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जेएनयू चार्जशीट: अदालत में नहीं टिकेंगे कन्हैया, उमर खालिद पर राजद्रोह के आरोप

जेएनयू के छात्रों के खिलाफ गहन जांच और तमाम फोरेंसिक सबूतों के साथ देशद्रोह (आईपीसी की धारा 124 ए) के तहत तीन साल बाद दायर की गई 1200 पन्नों की चार्जशीट कोर्ट में टिकेगी इस बारे में बहुत संदेह हैं।...

जेएनयू चार्जशीट: अदालत में नहीं टिकेंगे कन्हैया, उमर खालिद पर राजद्रोह के आरोप
श्याम सुमन ,नई दिल्ली।Sun, 20 Jan 2019 02:23 AM
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जेएनयू के छात्रों के खिलाफ गहन जांच और तमाम फोरेंसिक सबूतों के साथ देशद्रोह (आईपीसी की धारा 124 ए) के तहत तीन साल बाद दायर की गई 1200 पन्नों की चार्जशीट कोर्ट में टिकेगी इस बारे में बहुत संदेह हैं। इसे दाखिल करने में जो देरी हुई है उसे छोड़ दें तो भी पेश की गई चार्जशीट सिर्फ विवि परिसर में एक कार्यक्रम में देश विरोधी नारे लगाने के आरोपों पर ही है। इसमें ऐसा कोई कृत्य नहीं दर्शाया गया है जिसमें हिंसा हुई हो या हिंसा को भड़काया गया हो। 
 

चार्जशीट में पुलिस ने यह दावा नहीं किया है कि मामले में संलिप्त 10 छात्र जिन्हें चार्जशीट में आरोपी बनाया गया है, उनके देश विरोधी नारों के बाद सार्वजनिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हुई और बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। सर्वाेच्च अदालत के अनेक फैसले हैं, जिनमें ऐसी नारेबाजी या सभाओं में भाषणबाजी करने को देशद्राह नहीं माना गया है। 
 

रद्द हो गई थी यह धारा : 
इस धारा को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वर्ष 1959 में असंवैधानिक बताकर रद्द कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि यह अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को कमतर करता है। हालांकि 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान को बचा लिया लेकिन इसे हल्का कर दिया। 
 

केदानरनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य, 1962 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा था कि महज सरकार से मोह और निष्ठाभंग होना देशद्रोह नहीं माना जाएगा। पीठ ने कहा धारा उन मामलों में लागू होगी जहां सार्वजनिक व्यवस्था को भंग करने या हिंसा भड़काने की प्रवृत्ति हो। कोर्ट को यह पता था कि यह धारा कैसे औपनिवेशिक शासन में लाई गई। 
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1995 केस में धारा 124 ए के इस्तेमाल के लिए एक ठोस मानक ही स्थापित कर दिया। इस मामले में कोर्ट 124ए  में दंडित ठहराए गए दो व्यक्तियों की अपीलों पर सुनवाई कर रहा था। इन पर खालिस्तान समर्थक नारे लगाने का आरोप था। लेकिन नारे लगाने के लावा उन्होंने कुछ नहीं किया था। कोर्ट ने कहा कि दो लागों द्वारा नारे लगाने , जिससे लोगों में कोई प्रतिक्रिया ही नहीं हुई हो, उसमें यह धारा नहीं लगाई जा सकती। दोनों को देशद्रोह के आरोप से बरी करते हुए कोर्ट ने कहा कि इसके लिए कुछ हिंसा का होना जरूरी है। 
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इसके बाद कोर्ट ने बिलालकालू बनाम आंध्रप्रदेश, 1997 केस में एक कश्मीरी युवक के खिलाफ देशद्रोह का केस समाप्त कर दिया। उस पर आरोप था कि वह उग्रवादी संगठन का सक्रिय सदस्य था। 
 

सबसे नया फैसला 2011 का अरूप भुईयां बनाम असम राज्य का था जिसमें जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने टाडा के मामले को ख्त्म कर दिया। इस मामले में अरूप परआरोप था कि वह प्रतिबंधित संगठन का सक्रिय सदस्य था। कोर्ट ने कहा कि बैन संगठन का सदस्य होना अपराध नहीं है यह तभी जुर्म है जब वह हिंसा भड़काए या सार्वजिनक शांति भंग करने के लिए लोगों को हिंसक होने को उकसाए। 
 

सुप्रीम कोर्ट में आपराधिक मामलों के विशेषज्ञ ने कहा कि जेएनयू मामले में चार्जशीट सिर्फ देशविरोधी नारों पर है, चार्जशीट में इन नारों के बाद कोई हिंसा हुई या सार्वजनिक अव्यवस्था फैलने का कोई आरोप नहीं है। इसलिए नहीं लगता कि चार्जशीट सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित किए गए मानकों पर पास हो सकेगी। 
 

विधि आयोग का दुरुपयोग रोकने पर शोध जारी : 
 

राष्ट्रीय विधि आयोग ने देशद्रोह की धारा 124 ए के दुरुपयोग होने के लंबे इतिहास को देखते हुए इसे समाप्त करेन के लिए अध्ययन करना शुरू किया है। आयोग ने परामर्श पेपर जारी कर लोगों से राय मागी है। आयोग ने कहा कि है  कि देशद्राह का इस्तेमाल कर बार राजनैतिक विरोध को दबाने के लिए किया जाता है। इंग्लैंड जैसे विकसित देश में यह धारा 10 वर्ष पहले समाप्त कर दी गई थी। 
 

केस : 
एनसीआरबी के आंकडेां के मुताबिक 2014 से 17 तक देश में देशद्रोह के 112 केस दर्ज हुए और 165 लोगों को गिरफ्तार किया गया। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को हल्का कर दिया था। 
 

ब्रिटिश समय में लाई गई थी धारा : 
औपनिवेशिक शासन को मजबूत करने के लिए यह धारा 1860 आईपीसी में जोड़ी गई थी। प्रमुख नेता जैसे बाल गंगाधर तिलक, गांधी आदि पर आंदोलन को कुचलने के लिए यह धारा लगाई थी।

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