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विनम्र श्रद्धांजलि-तीसरी कड़ी:गिरिजा देवी की कहानी उन्हीं की जुबानी-'आज भी बनारस ही है मेरा घर'

हिन्दुस्तान अखबार में 19 मार्च, 2016 से 16 अप्रैल, 2016 के बीच हर रविवार प्रकाशित हाने वाले कॉलम 'मेरी कहानी' में पांच क​ड़ियों में गिरिजा देवी से बातचीत पर आधारित उनके जीवन से जुड़े कुछ...

विनम्र श्रद्धांजलि-तीसरी कड़ी:गिरिजा देवी की कहानी उन्हीं की जुबानी-'आज भी बनारस ही है मेरा घर'
लाइव हिन्दुस्तान टीम,नई दिल्लीWed, 25 Oct 2017 02:10 AM
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हिन्दुस्तान अखबार में 19 मार्च, 2016 से 16 अप्रैल, 2016 के बीच हर रविवार प्रकाशित हाने वाले कॉलम 'मेरी कहानी' में पांच क​ड़ियों में गिरिजा देवी से बातचीत पर आधारित उनके जीवन से जुड़े कुछ अनछुए पहलू प्रकाशित हुए थे। हम आपके लिए गिरिजा देवी के जीवन से जुड़ी उन कहानियों को पांच कड़ियों में पेश कर रहे हैं। पेश है तीसरी कड़ी...

पिताजी अक्सर बड़े-बड़े कलाकारों के कार्यक्रम में मुझे ले जाते। उस्ताद फैयाज खान साहब, अलाउद्दीन बाबा का सरोद, बहुत कुछ सुनने को मिला मुझे। इन्हीं संस्कारों के बीच हमारी जिंदगी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रही थी। 1947-1948 में पहली बार पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने मुझे सुना। इलाहाबाद में रेडियो स्टेशन की ओपनिंग हुई थी। उनको मेरी गायकी इतनी पसंद आई कि उन्होंने 1949 में मेरा पहला कार्यक्रम रखा। उस समय रेडियो के कार्यक्रमों के लिए आडिशन नहीं होता था। मेरे गाने पर 90 रुपये का पारिश्रमिक मिला। यह वह रकम थी, जो उस वक्त सिद्धेश्वरी देवी, रसूलन बाई जैसे बड़े कलाकारों को मिलती थी। फर्स्ट क्लास का टिकट भी दिया। पांच टिकट का पैसा मिलता था। दो टिकट आने के, दो टिकट जाने के और एक रास्ते के खर्च के लिए। जब लोगों को पता चला कि मुझे 90 रुपये का पारिश्रमिक मिला है, तो कहा गया कि अरे, गिरिजा देवी का तो पहली ही बार में टाप ग्रेड हो गया। हालांकि उस वक्त ग्रेड तो होता ही नहीं था। मगर हमको इस बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता था- बस रिकार्डिंग के लिए गए और गाना गाकर चले आए।

इसके बाद 1951 में हम आरा कान्फ्रेंस में गए। दिसंबर का महीना था। वहां पर भी लोगों ने बहुत सराहा। वहां पंडित ओंकारनाथ ठाकुर जी को गाना था, लेकिन उनकी गाड़ी सासाराम में खराब हो गई। वह आ नहीं पाए। उस कार्यक्रम के आयोजक लल्लन बाबू भी हमारे गुरु के शागिर्द थे। दोपहर में दो बजे के करीब कार्यक्रम शुरू होना था और सुबह करीब 10-11 बजे उन्हें पता चला कि ओंकारनाथ ठाकुर जी नहीं आ पाएंगे। ओंकारनाथ जी की जगह पर गाने को और कोई तैयार नहीं हुआ, तो उन लोगों ने मुझे ही बिठा दिया। हमारा कार्यक्रम दोपहर एक बजे शुरू हुआ और करीब ढाई बजे खत्म। हमने पहले राग देसी गाया और फिर बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए। वह कार्यक्रम बड़े पंडाल में हो रहा था। हमने आंखें मूंदी और गाना शुरू कर दिया, इस बात की फिक्र किए बिना कि सामने सौ लोग हैं या हजार। बाद में आंखें खोलीं, तो देखा कि पंडाल में करीब दो-ढाई हजार लोग थे। वैसे वे आए थे पंडित ओंकारनाथ ठाकुर जी को सुनने। फिर 1952 में बनारस कान्फ्रेंस था, जनवरी में। हमारे पति भी आयोजकों में थे।

संयोगवश उसी दिन रविशंकर, अली अकबर भैया, विलायत खान साहब- सब लोग गाने-बजाने आए थे। जब हमारा गाना रविशंकर जी ने सुना, तो उन्होंने निर्मला जोशी और सुमित्रा जी को कहा कि इनको दिल्ली बुलाइए गाने के लिए। फिर हम 1952 में ही दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में आए। वहां उन दिनों दो तरह के कार्यक्रम होते थे। एक कार्यक्रम होता था एक घंटे का, जो सिर्फ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और बाकी मंत्रियों के लिए होता था। उसमें आम जनता नहीं आती थी। उस प्रोग्राम में 20 मिनट बिस्मिल्ला खां को, 20 मिनट डीवी पलुष्कर को और 20 मिनट हमको गाना था। उस दिन राष्ट्रपति तो नहीं आए, लेकिन उप-राष्ट्रपति राधाकृष्णन जी आए थे। सरोजिनी नायडू भी थीं। इनमें से किसी से निजी तौर पर हमारी जान-पहचान नहीं थी। सबका नाम सुन रखा था। कार्यक्रम से पहले हमने रवि भैया से पूछा कि हम क्या गाएंगे वहां? उन्होंने कहा कि तुम डरो मत, एक टप्पा गा दो और एक ठुमरी, जो कोई नहीं गाता है। हमने एक टप्पा गाया और एक ठुमरी गाई। गाना सुनने के बाद राधाकृष्णन जी ने कहा कि इसको कहो, एक ठुमरी और गाए। हमने कहा कि नहीं, हम नहीं गाएंगे, क्योंकि हम समय से ज्यादा गाएंगे, तो ये लोग बीच में उठकर चले जाएंगे और फिर हमको रोना आएगा।

हमको पता नहीं था कि हम जो बोल रहे हैं, वह माइक की वजह से सबको सुनाई दे रहा है। फिर राधाकृष्णन जी ने इशारा किया कि नहीं, हम बैठे हैं, हम नहीं जाएंगे। उसके बाद हमने एक ठुमरी 40 मिनट तक गाई। वह ठुमरी खमाज की थी- मोहे कल न पड़त छिन राधा प्यारी बिना। बोल बनाते चले गए और सामने बैठे लोग सिर हिलाते रहे। गाते-गाते घड़ी का पता तक न चला। इसके बाद तो प्रेस वालों ने जमकर तारीफ की। पेपर में पापा का, गुरुजी का, सबका नाम छपा। धीरे-धीरे मेरी गायकी का शोर होने लगा। जीवन की असली चुनौती तब आई, जब मेरे पति इस दुनिया से चले गए। हम बहुत अकेले हो गए। हमने अपनी बेटी की शादी कलकत्ता (अब कोलकाता) में की थी, बाद में हम भी वहीं चले गए संगीत रिसर्च एकेडमी में। मगर आज भी बनारस मेरा घर है। मेरा सारा काम बनारस से ही होता है।

पढ़ें चौथी कड़ी: विनम्र श्रद्धांजलि-चौथी कड़ी:गिरिजा देवी की कहानी उन्हीं की जुबानी-'उस साधु की याद और मेरे आंसू'

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