दुबई ने आर्टिफिशियल बारिश से दिखाई नई राह, मिनटों में कैसे बरसते हैं बादल, क्या है क्लाउड सीडिंग, जानें सबकुछ
दुबई में ड्रोन के जरिये कृत्रिम बरसात के बाद पूरी दुनिया में नई बहस शुरू हो गई है। बाढ़, सूखा, गर्मी और प्रदूषण जैसी समस्या से लड़ने में कृत्रिम बारिश को एक कारगर हथियार के रूप में देखा जा रहा है।...
दुबई में ड्रोन के जरिये कृत्रिम बरसात के बाद पूरी दुनिया में नई बहस शुरू हो गई है। बाढ़, सूखा, गर्मी और प्रदूषण जैसी समस्या से लड़ने में कृत्रिम बारिश को एक कारगर हथियार के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि भारत समेत कई देश कई बार कृत्रिम बारिश करा चुके हैं, लेकिन दुबई ने जिस ड्रोन तकनीक का इस्तेमाल करके बरसात कराई, वह कई मायने में खास है। इस तकनीक की खासियत और कृत्रिम बारिश के भविष्य से जुड़ी रोचक जानकारी ये हैं-
कृत्रिम बारिश का आधार क्लाउड सीडिंग :
कृत्रिम बारिश का आधार क्लाउड सीडिंग की प्रक्रिया है, जो काफी महंगी होती है। एक आकलन के मुताबिक एक वर्ग फुट बारिश कराने की लागत करीब 15 हजार रुपये आती है। भारत में कर्नाटक सरकार ने दो साल तक क्लाउड सीडिंग प्रोजेक्ट पर काम किया जिसकी लागत करीब 89 करोड़ रुपये आई।
नई और पुरानी विधि में अंतर
1- परंपरागत क्लाउड सीडिंग:
इसके तहत हम वायुमंडल में हेलीकॉप्टर या विमानों के जरिये कुछ रसायन जैसे कि सिल्वर आयोडाइड, पोटैशियम आयोडाइड और ड्राई आईस के कणों का छिड़काव करते हैं। ये कण हवा में मौजूद पानी के वाष्प को आकर्षित करके बादल बनाते हैं जिससे बारिश होती है।
2- आधुनिक ड्रोन क्लाउड सीडिंग :
दुबई ने क्लाउड सीडिंग के लिए नया तरीका अपनाया है। इसके तहत बिजली का करंट देकर बादलों को आवेशित किया जाता है। यह तकनीक परंपरागत विधि के मुकाबले हरित विकल्प मानी जाती है। इसके तहत बादल बनाने के लिए बैटरी संचालित ड्रोन के जरिये विद्युत आवेश का इस्तेमाल कर क्लाउड सीडिंग करते हैं। विमान के जरिये भी यह काम हो सकता है, लेकिन बैटरी चालित ड्रोन अधिक पर्यावरण हितैषी होते हैं। इस तकनीक को विकसित करने का श्रेय यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग को जाता है, जो वर्ष 2017 से इस तकनीक पर काम कर रहा है।
मिनटों में होती बारिश :
रासायनिक कणों के छिड़काव, बादल बनने और फिर बारिश होना, सब कुछ मिनटों का खेल है। आम तौर पर 30 मिनट का समय लगता है। हालांकि बारिश होने की समयावधि इस बात पर भी निर्भर करती है कि कणों का छिड़काव वायुमंडल की किस सतह में किया गया है।
चीन ने बादलों से ओलंपिक से दूर रखा:
चीन ने वर्ष 2008 में बीजिंग में आयोजित ओलंपिक खेलों के दौरान बारिश की आशंका को दूर करने के लिए क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल किया। इसके लिए आसमान में केमिकल युक्त रॉकेट दागा गया ताकि खेल शुरू होने से पहले ही बारिश करा ली जाए, ताकि बाद में बारिश ना होगा। इसके अलावा चीन बड़ी मात्रा में कृत्रिम बारिश करा रहा है।
कृत्रिम बारिश क्यों ?
संयुक्त अरब अमीरात के शहर दुबई में गर्मी के दिनों में पारा 50 डिग्री सेल्सियस के पार चला जाता है। ऐसे में ना केवल आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, बल्कि वायु प्रदूषण भी बढ़ जाता है। इस समस्या से राहत दिलाने में कृत्रिम बारिश सहायक हो सकती है। इसी तरह बाढ़ और सूखे की आशंका को खत्म करने में भी इससे मदद मिल सकती है।
कृत्रिम बारिश का इतिहास:
कृत्रिम बारिश कराने के लिए पहली बार क्लाउड सीडिंग का काम 1946 में अमेरिका में किया गया। भारत के भी कई राज्यों में कृत्रिम बारिश कराई जा चुकी है। तमिलनाडु सरकार ने वर्ष 1983, 1984-87 और 1993-94 में इस पर काम किया। इसी तरह कर्नाटक सरकार ने 2003-04 में कृत्रिम बारिश कराई। इसके अलावा तेलंगाना और आंध्र प्रदेश सकरार ने भी इस पर काम किया। आईआईटी-कानपुर में भी क्लाउड सीडिंग पर शोध चल रहा है, जिसके लिए एचएएल विमान उपलब्ध कराता है।
कृत्रिम बारिश का भविष्य :
कृत्रिम बारिश के भविष्य को लेकर वैज्ञानिकों से लेकर आम लोगों तक कि राय बंटी है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण कहीं बाढ़ तो कहीं अधिक सूखे से निपटने के लिहाज से कुछ वैज्ञानिक इसे एक हथियार के रूप में देख रहे हैं, तो कई वैज्ञानिक इसके दुष्प्रभाव को लेकर आशंकित हैं। दुबई ने क्लाउड सीडिंग के लिए जिस तकनीक का इस्तेमाल किया है, उससे भारत जैसे कृषि प्रधान देशों में भी उम्मीद जगी है।
कृत्रिम बारिश को लेकर आशंकाएं :
कृत्रिम बारिश को लेकर शोध अभी शुरुआती दौर में है, लेकिन इसके दुष्प्रभाव को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं जताई जा रही हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक कृत्रिम बारिश कराने के लिए क्लाउड सीडिंग करके पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ करना ठीक नहीं है। इससे ना केवल पारिस्थितिकीय विषमता पैदा होगी, बल्कि महासागरों का जल अधिक अम्लीय हो सकता है। इसके अलावा ओजोन स्तर में क्षय, कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में बढ़ोतरी होने का खतरा जताया गया है। सिल्वर एक जहरीली धातु है, जो वनस्पतियों और जीवों के लिए नुकसानदायक है।