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यादों के दरमियां: कमाल के इ़कबाल

अल्लामा इ़कबाल भारतीय प्रायद्वीप के जन-जीवन को गहरे प्रभावित करने वाले शायर हैं। जज्बात के साथ-साथ गहरी दार्शनिकता उनकी शायरी की ऐसी खासियत है, जिसका कोई सानी नहीं है। एक साहित्यकार के रूप में वे...

यादों के दरमियां: कमाल के इ़कबाल
हिन्दुस्तानTue, 22 May 2018 02:16 PM
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अल्लामा इ़कबाल भारतीय प्रायद्वीप के जन-जीवन को गहरे प्रभावित करने वाले शायर हैं। जज्बात के साथ-साथ गहरी दार्शनिकता उनकी शायरी की ऐसी खासियत है, जिसका कोई सानी नहीं है। एक साहित्यकार के रूप में वे जितने विशिष्ट नजर आते हैं, एक इनसान के रूप में उतने ही आम-फहम। लेकिन इस मामूलीपन में भी उनकी इनसानियत जिस तरह चमकती दिखाई देती है, वह उन्हें एक महान इनसान साबित करती है। इ़कबाल की अभी-अभी गुजरी पुण्यतिथि 21 अप्रैल के बहाने पेश है मशहूर उर्दू लेखक चिरा़ग हसन हसरत का यह संस्मरण :  

क्लोड रोड पर लक्ष्मी इंश्योरेंस कम्पनी की इमारत से कुछ आगे सिनेमा है। सिनेमा से इधर एक मकान छोड़ के एक पुरानी कोठी है, जहां आजकल आंखों या दांतों का कोई डॉक्टर रहता है। किसी जमाने में अल्लामा इ़कबाल यहीं रहा करते थे। चुनांचे सन 1930 ई. में यहीं पहली बार उनकी सेवा में उपस्थित होने का गौरव प्राप्त हुआ था। अब भी मैं उस तरफ से गुजरता हूं तो उस कोठी के निकट पहुंच कर कदम रुकते मालूम होते हैं और नजरें अनायास उसकी तरफ उठ जाती हैं।

कोठी अच्छी-खासी थी। सहन भी खासा खुला हुआ। एक तरफ नौकर-पेशा के लिए दो-तीन कमरे बने हुए थे, जिनमें अल्लामा इ़कबाल के नौकर-चाकर अली बख्श, रहमान, दीवान अली वगैरह रहते थे। लेकिन कोठी की दीवारें सीली हुई, प्लस्तर जगह-जगह से उखड़ा हुआ, छतें टूटी-फूटी, मुंडेर की कुछ ईंटें अपनी जगह से इस तरह सरकी हुई थीं कि हर वक्त मुंडेर के जमीन पर आ रहने का भय था। ‘मीर’ का मकान न सही, पर ‘गालिब’ के बल्लीमारान वाले मकान से मिलता-जुलता नक्शा जरूर था।

कोठी के सहन में चारपाई बिछी थी। चारपाई पर उजली चादर। उस पर अल्लामा इ़कबाल मलमल का कुरता पहने, तहबन्द बांधे, तकिए से टेक लगाए हुक्का पी रहे थे। सुर्ख-सफेद रंग, भरा हुआ जिस्म, सिर के बाल कुछ सियाह, कुछ सफेद। दाढ़ी घुटी हुई। चारपाई के सामने कुछ कुर्सियां थीं। उन पर दो-तीन आदमी बैठे थे। दो-तीन उठ के जा रहे थे। ‘सालिक’ साहब (उर्दू के मशहूर पत्रकार अब्दुल मजीद ‘सालिक’) मेरे साथ थे। अल्लामा इ़कबाल ने पहले उनका मिजाज पूछा फिर मेरी ओर ध्यान दिया।

उन दिनों नमक-सत्याग्रह जोरों पर था। डांडी-मार्च की चर्चा जगह-जगह हो रही थी। लाहौर में रोज जुलूस निकलते, जलसे होते और ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगते थे। मैंने कभी खादी के कपड़े नहीं पहने थे। पर वह तो खद्दर का आम मौसम था। कुछ आम रिवाज का असर, कुछ किफायत का खयाल, मैंने भी खादी पहननी शुरू कर दी। ऐसा लगता है कि अल्लामा इ़कबाल का दिमाग मेरे खादी के वस्त्रों से चर्खे, चर्खे से गांधी जी और गांधी जी से कांग्रेस की तरफ चला गया। क्योंकि उस रस्मी परिचय के बाद उन्होंने जो बातें शुरू कीं तो उसकी लपेट में गांधी जी, कांग्रेस और अहिंसा- सब-के-सब आ गए थे।

विषय शुष्क था पर बीच-बीच में लतीफे भी होते जाते थे। मैं तो ‘हूं’ ‘हां’ करके रह जाता था, पर सालिक साहब कब रुकने वाले थे। जहां मौका मिलता था, कोई लतीफा, कोई चुटकुला, कोई फब्ती जरूर कह देते थे। हम जब गए थे तो सूरज छिपने में कोई आध घंटा बाकी था, पर उठे तो अच्छी-खासी रात हो चुकी थी। मुझे लाहौर आए हुए सवा साल से ऊपर हो चुका था, लेकिन अधिक लोगों से सम्पर्क नहीं था। या अकेला घर में बैठा हूं या सालिक साहब के यहां। हफ्ते में एक-दो बार हकीम फकीर मुहम्मद साहब चिश्ती के यहां भी चला जाता था। लेकिन अब जो अल्लामा इ़कबाल की सेवा में पहुंच हो गई तो एक और ठिकाना हाथ आ गया। कुछ दिनों में तो यह हालत हो गयी कि अव्वल तो दूसरे-तीसरे, वरना सातवें-आठवें दिन उनकी खिदमत में जरूर पहुंचता। कभी किसी दोस्त के साथ, कभी अकेला।

लेकिन जब जाता था, घंटा-दो-घंटा जरूर बैठता था। कभी-कभी ऐसा होता था कि बारह-बारह बजे तक बराबर महफिल जमी है। लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं। साहित्य, कविता, राजनीति, धर्म पर बहसें हो रही हैं। लेकिन उन महफिलों में सब से ज्यादा बातें अल्लामा इ़कबाल करते थे। दूसरे लोगों की हैसियत अधिकतर ‘श्रोताओं’ की होती थी। मेरा यह मतलब नहीं कि वे दूसरों को बात करने का मौका नहीं देते थे या बात काट कर बोलना शुरू कर देते थे, बल्कि सच यह है कि हर विषय में उनकी जानकारी दूसरों से अधिक होती थी और उपस्थित लोगों के लिए इसके अतिरिक्त कोई दूसरा चारा न होता था कि चन्द जुमले कह कर चुप बैठे रहें।

उनके मकान के दरवाजे गरीब-अमीर, छोटे-बड़े सब पर खुले थे। न कोई संतरी न दरबान। न मुलाकात के लिए कार्ड भिजवाने की जरूरत न परिचय के लिए किसी सहारे की आवश्यकता। जो आता है, कुर्सी खींच कर बैठ जाता है और या तो स्वयं अपना परिचय देता है या चुपचाप बैठा बातें सुनता रहता है। अल्लामा इ़कबाल बातें करते-करते थोड़ी देर के लिए रुकते हैं तो उसकी तरफ ध्यान देते हैं और पूछते हैं, ‘फरमाइए कहां से आना हुआ?’ वह अपना नाम बताता है। कोई जरूरत होती है तो बयान कर देता है।

डॉ. मुहम्मद दीन ‘तासीर’ कहते हैं कि एक रात को मैं डॉ. इ़कबाल साहब की सेवा में उपस्थित था। कुछ और लोग भी बैठे थे कि एक आदमी, जिसके सिर के बाल बढ़े हुए थे और कुछ बदहवास मालूम होता था, आया और सलाम करके बैठ गया। अल्लामा इ़कबाल कुछ देर बाद उसकी ओर आकृष्ट हुए और कहने लगे, ‘फरमाइए, कहां से तशरीफ लाए?’ वह कहने लगा, ‘यों ही, आपसे मिलने चला आया था।’ खुदा जाने डॉक्टर इ़कबाल ने उसके चेहरे से मालूम कर लिया कि उसने खाना नहीं खाया, या कोई और बात थी, बहरहाल उन्होंने पूछा, ‘खाना खाइएगा?’ उसने जवाब दिया, ‘हां, खिला दीजिए!’ डॉक्टर इ़कबाल ने अली बख्श को बुला कर कहा, ‘इन्हें दूसरे कमरे में ले जा कर खाना खिला दो।’ यह सुन कर वह कहने लगा, ‘मैं खाना यहीं खाऊंगा।’ गरज अली बख्श ने वहीं दस्तरख्वान बिछा कर उसे खाना खिलाया।

वह खाना खा कर भी न उठा और वहीं चुपचाप बैठा रहा। रात अच्छी-खासी जा चुकी थी, इसलिए मैं उसे वहीं छोड़ कर घर चला आया। दूसरे दिन डॉक्टर साहब की सेवा में पहुंचा तो मैंने सब से पहले यह सवाल किया कि क्यों डॉक्टर साहब, रात जो आदमी आया था, उसका क्या हुआ? कहने लगे, तुम्हारे जाने के बाद मैंने उससे कहा कि अब सो जाइए। लेकिन वह कहने लगा कि आपके कमरे में ही पड़ा रहूंगा। चुनांचे अली बख्श ने मेरे कमरे के दरवाजे के साथ उसके लिए चारपाई बिछा दी। सुबह-सबेरे उठ कर वह कहीं चला गया।

उनसे जो लोग मिलने आते थे, उनमें कुछ तो रोज के आने वाले थे, कुछ दूसरे-तीसरे और कुछ सातवें-आठवें आते थे। बहुत से लोग ऐसे थे, जिन्हें उम्र भर में सिर्फ एक-आध बार उनसे मिलने का मौका मिला। फिर भी उनके यहां हर वक्त मेला-सा लगा रहता था। अब जाओ, दो-तीन आदमी बैठे हैं। कोई सिफारिश कराने आया है, कोई किसी शेर का अर्थ पूछ रहा है, किसी ने आते ही राजनीतिक बहस छेड़ दी और कोई मजहब के संबंध में अपनी शंकाएं बयान कर रहा है।

डॉ. इ़कबाल जिन्दगी के कुछ मामलों में खास कायदों के पाबंद थे। वे घर का सारा हिसाब-किताब बाकायदा रखते थे और हर आदमी के खत का जवाब जरूर देते थे। लेकिन यह अजीब बात है कि कोई आदमी उनसे कोई सनद या किसी रचना पर उनकी राय लेने आता था तो कहते थे- खुद लिख लाओ। मैं दस्तखत कर दूंगा। और यह बात महज टालने को नहीं कहते थे, बल्कि जो कुछ कोई लिख लाता था, उस पर दस्तखत कर देते थे। उनकी तबियत में बला की आमद भी। एक-एक बैठक में दो-दो सौ शेर लिख जाते थे। पलंग के पास एक तिपाई पर पेंसिल और कागज पड़ा रहता था। जब शेर कहने पर तबियत आती थी तब लिखना शुरू कर देते थे। कभी खुद लिखते थे, कभी किसी को लिखवा देते थे। रसूल की मुहब्बत ने उनके दिल को पवित्र बना रखा था।

मुहम्मद साहब का नाम लेते वक्त उनकी आंखें भीग जाती थीं और कुरान पढ़ते-पढ़ते अनायास रो पड़ते थे। कहने का मतलब यह कि उनका व्यक्तित्व बड़ा की आकर्षक था। जिन लोगों ने सिर्फ उनका कलाम पढ़ा है और उनसे मिले नहीं, वे इ़कबाल के कमालों से बेखबर हैं। मौत से कोई ढाई साल पहले वे मेओ रोड पर अपनी नई बनी कोठी में उठ गए थे। वहां गए अभी थोड़े दिन हुए थे कि उनकी बेगम साहबा का देहान्त हो गया। उन्हें इस घटना का बहुत दुख हुआ। मैंने उस हालत में उन्हें देखा कि बेगम की कब्र खोदी जा रही है और वे माथे पर हाथ रखे पास ही बैठे हैं। उस वक्त वे बहुत बूढ़े मालूम हो रहे थे। कमर झुकी हुई थी और चेहरा पीला पड़ गया था। उस घटना के बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। आखिर 21 अप्रैल सन 1938 ई. को देहान्त हुआ और शाही मसजिद के बाहर दफन हुए।

अल्लामा इ़कबाल
हर खास-ओ-आम की जुबां पर छाई ‘खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले/खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है’, जैसी पंक्तियां हों या ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ का तराना... ये कुछ लाइनें हमारी जिंदगी की शुरुआत से हमारे साथ जुड़ी रही हैं और आज भी हैं। यह अलग बात है कि कई बार हमारी नई पीढ़ी इन पंक्तियों को बारहा गुनगुनाने के बावजूद उसके रचयिता के नाम से अपरिचित दिखाई दी है। ये अल्लामा इ़कबाल की पंक्तियां हैं, जिन्हें मिर्जा गालिब के बाद उर्दू का दूसरा सबसे बड़ा शायर कहा गया और पाकिस्तान के तो वे राष्ट्रकवि ही हैं। उनकी एक बहुत खूबसूरत शायरी की पंक्तियां हैं- ‘अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक्ल/लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे’। इ़कबाल का निधन 21 अप्रैल 1938 को लाहौर में 61 साल की उम्र में हुआ।

चिरा़ग हसन हसरत
चिरा़ग हसन हसरत उर्दू के कुछ ऐसे रचनाकारों में शुमार हैं, जिनके सहज हास्यबोध की मिसालें दी जाती हैं। 1904 में कश्मीर के बारामूला के नजदीक एक गांव में जन्मे हसरत अच्छे शायर के साथ अखबार नवीस और व्यंग्यकार भी थे। 1920 में शिमला के एक स्कूल में अध्यापन के दौरान मौलाना अबुल कलाम आजाद से मुलाकात हुई, जिनके असर में कलकत्ता आकर उनके साप्ताहिक अखबार ‘पैगाम’ से जुड़े, लेकिन कुछ ही दिन बाद छोड़ दिया। अखबारों में हास्य स्तंभ लिखते रहे, जिनकी तारीफ अल्लामा इ़कबाल, अबुल कलाम आजाद और मुहम्मद अली जौहर भी करते थे। उर्दू साहित्यिक पत्रिका ‘आफताब’ निकाली, जो पूर्वी भारत की अकेली मासिक उर्दू पत्रिका थी। उनके जीवन में पंडित नेहरू से करीबी और दूरी की कहानियां भी हैं। 26 जून 1955 को महज 51 साल की उम्र में उनका लाहौर में इंतकाल हो गया।

‘उर्दू के बेहतरीन संस्मरण’ से साभार

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