
आज ही के दिन हुई थी सिंधु जल संधि; दशकों तक नुकसान झेलता रहा भारत, अब पाकिस्तान की बारी
संक्षेप: आज के दौर में, जब जल संकट और सीमा विवाद चरम पर हैं, यह संधि एक विवादास्पद विरासत बन चुकी है। भारत ने दशकों तक इस संधि के चलते नुकसान झेला लेकिन अब पाकिस्तान की बारी है। विस्तार से समझिए।
आज ही के दिन यानी 19 सितंबर 1960 को, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने कराची में सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर किए थे। दरअसल भारत और पाकिस्तान के बीच स्वतंत्रता के बाद से ही नदियों के जल बंटवारे का प्रश्न जटिल और संवेदनशील रहा। सिंधु नदी प्रणाली दोनों देशों के लिए कृषि और सिंचाई का प्रमुख स्रोत थी। इसमें सिंधु, झेलम, चिनाब, रावी, ब्यास और सतलुज नदियां शामिल हैं। विश्व बैंक ने दोनों देशों को बातचीत की मेज पर लाने और समझौते को मूर्त रूप देने में निर्णायक भूमिका निभाई। कई वर्षों की लंबी वार्ता के बाद एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जिसे सिंधु जल संधि के नाम से जाना जाता है। लेकिन आज के दौर में, जब जल संकट और सीमा विवाद चरम पर हैं, यह संधि एक विवादास्पद विरासत बन चुकी है। भारत ने दशकों तक इस संधि के चलते नुकसान झेला लेकिन अब पाकिस्तान की बारी है क्योंकि भारत ने अप्रैल में इसे निलंबित कर दिया।
संधि की पृष्ठभूमि: बंटवारे का काला अध्याय
1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद, सिंधु नदी प्रणाली एक बड़ा विवाद बन गई। ये नदियां हिमालय से निकलकर पाकिस्तान की कृषि और अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। बंटवारे के तुरंत बाद, भारत ने पानी रोक दिया था, जिससे पाकिस्तान में भुखमरी का खतरा मंडराने लगा। पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में शिकायत की और विश्व बैंक ने 1951 में मध्यस्थता शुरू की। नौ साल की कड़ी डिप्लोमेसी के बाद, 19 सितंबर 1960 को संधि पर हस्ताक्षर हुए। यह संधि तीन युद्धों (1965, 1971, 1999) तक टिकी रही, लेकिन अब पाकिस्तानी आतंकवाद के कारण निलंबित हो चुकी है।
संधि की मुख्य शर्तें
पूर्वी नदियों पर भारत का अधिकार: रावी, ब्यास और सतलुज नदियों का संपूर्ण उपयोग भारत को मिला। भारत इन नदियों के जल का सिंचाई, पेयजल और बिजली उत्पादन में स्वतंत्र रूप से उपयोग कर सकता है।
पश्चिमी नदियों पर पाकिस्तान का अधिकार: सिंधु, झेलम और चिनाब का पूर्ण नियंत्रण पाकिस्तान को सौंपा गया। भारत को केवल सीमित स्तर पर (जैसे जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बिना जल मोड़ के) इन नदियों का उपयोग करने की अनुमति मिली।
वित्तीय प्रावधान क्या थे?
पाकिस्तान को पूर्वी नदियों के जल उपयोग के नुकसान की भरपाई हेतु एकमुश्त वित्तीय सहायता दी गई। स्थायी सिंधु आयोग का गठन किया गया। दोनों देशों के आयुक्त नियमित रूप से जल-आंकड़े साझा करते रहे और विवादों को बातचीत से हल करने का प्रयास करते रहे।
नेहरू और अयूब खान की भूमिका
कराची में आयोजित समझौता हस्ताक्षर समारोह में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान ने दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए। नेहरू ने इसे “स्मरणीय अवसर” बताया और कहा कि इसकी असली अहमियत केवल सिंचाई या विकास में ही नहीं, बल्कि आपसी विश्वास की भावना में निहित है। उन्होंने कहा कि इस समझौते से दोनों देशों की बंजर जमीनों तक “अच्छे जल की प्रचुरता” पहुंचेगी।
भारत के हितों को कैसे नुकसान पहुंचा? नेहरू की 'उदारता' का बोझ
हालांकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे शांति और सहयोग का प्रतीक माना गया, लेकिन भारत के भीतर नेहरू को आलोचना का सामना करना पड़ा। कुछ राजनीतिक नेताओं ने उन पर आरोप लगाया कि उन्होंने संसद से अनुमति लिए बिना ही पाकिस्तान को महत्वपूर्ण नदियों पर नियंत्रण सौंप दिया। संधि को 'शांति का समझौता' कहा जाता है, लेकिन कई विशेषज्ञों का मानना है कि यह भारत के लिए एकतरफा नुकसानदेह साबित हुई।
अनुपातहीन बंटवारा: भारत की आबादी पाकिस्तान से 5-6 गुना ज्यादा है, लेकिन कुल सिंधु जल का 80% पाकिस्तान को दे दिया गया। भारत को पूर्वी नदियों का पानी मिला, जो कम बहाव वाली हैं। पश्चिमी नदियों पर भारत केवल 'रन-ऑफ-द-रिवर' (प्रवाह पर निर्भर) हाइड्रोपावर बना सकता है, बिना बड़े बांध या भंडारण के। इससे भारत का जल उपयोग सीमित हो गया।
राष्ट्रीय सुरक्षा का खतरा: संधि कश्मीर विवाद से अलग रखी गई, जबकि नदियां कश्मीर से गुजरती हैं। पाकिस्तान ने बाद में इसे हथियार बनाया - भारत के हाइड्रो प्रोजेक्ट्स (जैसे किशनगंगा, रतले) पर आपत्ति जताकर। 2016 में उरी हमले के बाद पीएम मोदी ने कहा, "खून और पानी साथ नहीं बह सकते।"
आर्थिक नुकसान: भारत को संधि लागू करने के लिए पाकिस्तान के कनाल सिस्टम को पश्चिमी नदियों से जोड़ने का खर्चा भी वहन करना पड़ा। विश्व बैंक फंड से पाकिस्तान को 9 करोड़ डॉलर दिए गए, जिसमें भारत का योगदान भी था। इससे भारत की अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ा।
जलवायु परिवर्तन की अनदेखी: 1960 में बनी संधि में ग्लेशियर पिघलाव या जनसंख्या वृद्धि का जिक्र नहीं था। आज हिमालयी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, लेकिन संधि पुरानी डिजाइन पर अड़ी थी, जो भारत के नए प्रोजेक्ट्स को रोकती थी।
आलोचकों का मानना है कि नेहरू की 'उदारता' ने भारत का एक मजबूत कार्ड गंवा दिया, जिसे पाकिस्तान ने आतंकवाद और कानूनी लड़ाइयों में इस्तेमाल किया।
भारतीय राज्यों ने चुकाई क्या कीमत?
संधि का सबसे ज्यादा नुकसान उत्तरी भारतीय राज्यों को हुआ, जहां सिंधु बेसिन फैला है। ये राज्य पानी के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि पानी व्यर्थ बह रहा है। मुख्य प्रभाव: जम्मू-कश्मीर पर हुआ। पश्चिमी नदियों (झेलम, चेनाब) पर सीमित उपयोग से हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स रुके। किशनगंगा (2017 में पूरा) और रतले पर पाकिस्तान की आपत्ति से 1,000 मेगावाट बिजली का नुकसान हुआ। बाढ़ नियंत्रण कमजोर हुआ। बिजली जरूरतें पूरी नहीं हो पाईं।
पंजाब को पूर्वी नदियों का पानी मिलता है, लेकिन कुल जरूरत का 30% कम मिलता था। भूजल स्तर गिरा (हर साल 1 मीटर), जिससे किसान कर्जदार हुए। 2023 में सूखे से 20% फसल नुकसान हुआ। संधि ने बड़े बांध रोक दिए, जिससे सिंचाई सीमित हुई।
इसके अलावा, राजस्थान और गुजरात की रावी-ब्यास लिंक परियोजना अधर में अटकी। राजस्थान के रेगिस्तान में पानी की कमी हुई 40% गांव सूखाग्रस्त हुए। संधि ने पानी को पाकिस्तान भेजने पर मजबूर किया, जबकि स्थानीय जरूरतें अनदेखी रहीं। कुल मिलाकर, भारतीय राज्य 1960 से 2025 तक अरबों रुपये के अवसर गंवा चुके।
2025 में संधि पूरी तरह बदल चुकी है। 22 अप्रैल 2025 को केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में 26 पर्यटकों पर आतंकी हमला हुआ। इसके बाद, 23 अप्रैल को भारत ने संधि को सस्पेंड कर दिया। पहली बार ऐसा हुआ। गृह मंत्री अमित शाह ने जून 2025 में कहा, "संधि कभी बहाल नहीं होगी। पानी राजस्थान में डायवर्ट करेंगे।" भारत अब डेटा शेयरिंग बंद कर चुका, न्यूनतम पानी रिलीज नहीं करेगा। नए प्रोजेक्ट्स (जैसे कैनाल राजस्थान के लिए) शुरू हो रहे हैं। लेकिन इंफ्रास्ट्रक्चर कमजोर होने से तत्काल प्रभाव सीमित रहेगा।





