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प्रयाग पर बम गिरा सकता है जापान; अंग्रेजों को लगने लगा था कुंभ से डर, लगा दिया था प्रतिबंध

  • इलाहाबाद (अब प्रयागराज) जाने वाली ट्रेनों सहित आवागमन के साधनों की तलाशी ली जाने लगी। परिवहन साधनों अथवा उनमें सवार लोगों को वापस भेजने का सिलसिला चला। हालांकि, कई इतिहासकार 1942 के कुंभ पर प्रतिबंध का दूसरा कारण बताते हैं।

Himanshu Jha हिन्दुस्तान, डॉ. प्रभात ओझाSat, 11 Jan 2025 07:47 AM
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Prayagraj Mahakumbh: 1942 में हुए कुंभ मेले में श्रद्धालुओं के आने पर प्रतिबंध की बात बहुत कम लोगों को मालूम है। शायद कुछ इतिहासकार ही जानते हों कि करीब 85 साल पहले 19वीं शताब्दी में भी यह कुंभ प्रतिबंधित था। दोनों मौकों पर लगी रोक में अंतर था। 1942 में भीड़ को रोकने का अंग्रेजों के पास अपना तर्क था। वह द्वितीय विश्व युद्ध का समय था। मेले को लेकर अफवाह थी कि मेले पर जापान बम गिरा सकता है। इलाहाबाद (अब प्रयागराज) जाने वाली ट्रेनों सहित आवागमन के साधनों की तलाशी ली जाने लगी। परिवहन साधनों अथवा उनमें सवार लोगों को वापस भेजने का सिलसिला चला। हालांकि, कई इतिहासकार 1942 के कुंभ पर प्रतिबंध का दूसरा कारण बताते हैं।

उनके मुताबिक, कुंभ स्वाधीनता सेनानियों के एकत्र होने के केंद्र बन गए थे। वैसे भी, वह वर्ष भारत छोड़ो आंदोलन का था। अंग्रेजों को लगा कि प्रयाग के कुंभ मेले में आए लोगों को आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। फिर भी उस बार का कुंभ संपन्न हुआ। कम संख्या में ही सही, लोग पहुंचे। इसके पहले 19वीं शताब्दी में जिस कुंभ पर प्रतिबंध का ब्योरा मिलता है, वह 1858 का था। उसमें संतों के प्रमुख संगठन अखाड़े तक नहीं आ सके।

प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 में तत्कालीन इलाहाबाद के कई स्थानों पर संगठित संग्राम अथवा विद्रोह हुए थे। वहां मौलाना लियाकत अली के नेतृत्व में विद्रोह इतिहास में दर्ज है। फिर शहर के चौक क्षेत्र में जिस स्थान पर कई विद्रोहियों को फांसी दी गई थी, वह स्थान भी चिह्नित कर सुरक्षित किया गया है। इसी तरह जहां स्वरूप रानी नेहरू चिकित्सालय है, वहां जेल हुआ करती थी। कहते हैं कि अस्पताल परिसर में आज जिस स्थान पर पोस्टमार्टम हाउस है, वहां कई क्रांतिकारियों को फांसी दी गई।

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बहरहाल, बात 1858 के कुंभ की। कुंभ के पहले जून 1857 में इलाहाबाद के मिशन कंपाउंड को आग के हवाले कर दिया गया था। तब अमेरिकन प्रेसबिटेरियन चर्च मिशन भी जला दिया गया था। ‘द इंडियन चर्च ड्यूरिंग ग्रेट रिबेलियन’ के लेखक रेव. एम.ए. शेरिंग के मुताबिक इससे मिशन की गतिविधियां बंद हो गईं। बाद में मिशन के एक प्रचारक जेम्स ओवेन जनवरी, 1958 में इलाहाबाद लौटे। उन्होंने जो देखा, उसका वर्णन रेव. जेम्स मोफेट की पुस्तक ‘द स्टोरी ऑफ ए डेडिकेटेड लाइफ’ में देखा जा सकता है। किले के आसपास और मेला क्षेत्र में तीर्थ पुरोहितों के नहीं, सेना के तंबू लगे थे। शहर में भी सेना और प्रशासनिक अधिकारियों के राउंड जारी थे। मेले की ओर स्थानीय लोगों को भी नहीं आने दिया जा रहा था।

धार्मिक परंपराओं का निर्वाह ऐसे किया गया कि एक-दो की संख्या में तीर्थ पुरोहित संगम की ओर जाकर अपने लोटों में संगम का जल भरकर ले आते। उस जल को प्रयागवाल (तीर्थ पुरोहित) के प्रसिद्ध मुहल्ले दारागंज में लाकर गंगा में मिला देते। फिर उस कुंभ के दौरान उसी जल से स्थानीय लोगों ने धार्मिक स्नान किया था।

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