
MM से लालू ने MY को कैसे खोजा? 35 साल पुराना फॉर्मूला 2025 में कितना कारगर, जानें
संक्षेप: बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है। राजनीतिक दल अपनी रणनीतियों को अंतिम रूप दे रहे हैं, जबकि राजनीतिक विश्लेषक चुनावी समीकरणों को समझने में जुटे हैं। इस बीच एक बार फिर 'एमवाई' यानी मुस्लिम-यादव फॉर्मूला चर्चा का केंद्र बिंदु बन गया है।
बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है। राजनीतिक दल अपनी रणनीतियों को अंतिम रूप दे रहे हैं, जबकि राजनीतिक विश्लेषक चुनावी समीकरणों को समझने में जुटे हैं। इस बीच एक बार फिर 'एमवाई' यानी मुस्लिम-यादव फॉर्मूला चर्चा का केंद्र बिंदु बन गया है। इस फॉर्मूले को आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने तैयार किया था, जिसके दम पर वे 15 वर्षों तक बिहार की सत्ता में रहे। इसी के बल पर लालू और उनका परिवार करीब तीन दशकों से बिहार की राजनीति में सबसे प्रभावशाली बने हुए हैं।

अब 77 वर्षीय लालू यादव गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के कारण रैलियों और जनसभाओं में नजर नहीं आएंगे, लेकिन एमवाई फॉर्मूला अभी भी उनकी पार्टी का मजबूत आधार बना हुआ है। वर्तमान में आरजेडी की कमान लालू-राबड़ी के छोटे बेटे तेजस्वी यादव संभाल रहे हैं। लालू द्वारा तैयार यह एमवाई फॉर्मूला इतना मजबूत है कि इसे तोड़ने के लिए कई सियासी चालें आजमाई जा चुकी हैं, लेकिन यह लगभग अपरिवर्तित ही बना रहा। करीब तीन दशक से यह फॉर्मूला लालू परिवार से जुड़ा हुआ दिखाई देता है।
मंडल और मंदिर की राजनीति
एक ऐसा दौर भी आया जब देश की राजनीति मंडल और मंदिर के इर्द-गिर्द घूम रही थी। दरअसल, 1990 में दो बड़ी राजनीतिक घटनाओं ने पूरे सियासी परिदृश्य को बदल दिया। समाजवादी नेता वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं, जिससे पिछड़े समुदायों के लिए आरक्षण की शुरुआत हुई। वहीं, बीजेपी के संस्थापक सदस्य लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग को लेकर देशव्यापी रथ यात्रा निकाली। मंडल ने जाति को राजनीति का केंद्र बिंदु बना दिया, जबकि मंदिर ने बीजेपी को दो सांसदों वाली छोटी पार्टी से दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन बिहार में लालू यादव ने इन दोनों घटनाओं का उपयोग अपनी राजनीति को मजबूत करने के लिए किया।
मंडल का दौर
1989 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस बहुमत हासिल करने से चूक गई। बोफोर्स घोटाले के बाद कांग्रेस छोड़ चुके विश्वनाथ प्रताप सिंह अब जनता दल के नेता थे और बीजेपी के समर्थन से संयुक्त मोर्चा सरकार चला रहे थे। अगस्त 1990 में वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं, जिसके तहत केंद्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत नौकरियों में आरक्षण शुरू हो गया। इस फैसले का उच्च जातियों ने बड़े पैमाने पर विरोध किया, जिसमें कई युवाओं ने आत्मदाह जैसे कदम उठाए।
लालू यादव ने इन घटनाओं को अपनी राजनीतिक पूंजी बना लिया। उस समय बिहार में पिछड़े वोटरों का हिस्सा 52 प्रतिशत था। आरक्षण ने उच्च जातियों को पिछड़ों के खिलाफ खड़ा कर दिया, जबकि लालू ने खुद को जातिगत वर्चस्व के खिलाफ लड़ने वाले योद्धा के रूप में पेश किया। वे बिहार के मुख्यमंत्री भी थे। मंडल के दौर ने बिहार की राजनीति को जाति-केंद्रित बना दिया, जिसने विकास और शासन जैसे मुद्दों को दबा दिया। लालू लगातार मजबूत होते चले गए।
मंदिर राजनीति का प्रभाव
मंडल का जादू चल ही रहा था कि लालू के पास दूसरा राजनीतिक अवसर आ गया। दिवंगत पत्रकार शंकरशन ठाकुर ने अपनी पुस्तक 'द ब्रदर्स बिहारी' में लिखा है कि आडवाणी की रथ यात्रा वीपी सिंह सरकार के लिए खुली चुनौती थी। बीजेपी संयुक्त मोर्चा की सहयोगी थी और 1989 के चुनाव में 85 सीटें जीत चुकी थी, इसलिए सरकार का अस्तित्व बीजेपी के समर्थन पर टिका था। प्रधानमंत्री के हाथ बंधे थे, वे यात्रा रोक नहीं सकते थे।
ठाकुर के अनुसार, उन्होंने लालू से आडवाणी का रथ रोकने को कहा। लालू तुरंत सहमत हो गए। 23 अक्टूबर 1990 को आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार कर मसानजोर के सरकारी गेस्ट हाउस भेज दिया गया। उसी दिन लालू ने पटना के गांधी मैदान में ऐतिहासिक रैली को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि अगर इंसान मर जाएंगे, तो मंदिर की घंटी कौन बजाएगा? मस्जिद में कौन नमाज पढ़ेगा? मैं अपने बिहार में सांप्रदायिक हिंसा नहीं फैलने दूंगा। चाहे सत्ता रहे या जाए, मैं इस पर समझौता नहीं करूंगा।
ठाकुर आगे लिखते हैं कि रातोंरात लालू राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गए। वे वह शख्स बन गए जिन्होंने आडवाणी को रोका, जो अधिकांश सरकारें करने से हिचकिचाती थीं। वे मुसलमानों, वामपंथियों और उदार बुद्धिजीवियों के चहेते बन गए। दलितों और अल्पसंख्यकों में उनकी वाहवाही होने लगी।
मुस्लिम-यादव फॉर्मूला
लालू के नए फॉर्मूले की पहली कसौटी 1991 के लोकसभा चुनाव थे, जहां उन्होंने शानदार सफलता पाई। बिहार में जनता दल ने 40 में से 32 सीटें जीतीं, जबकि राज्य के बाहर पार्टी हार गई। उस समय पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियां मिलाकर 52 प्रतिशत वोटर थीं, मुसलमान 12 प्रतिशत। कांग्रेस उच्च जाति, मुस्लिम, हरिजन और अति पिछड़ों पर निर्भर थी। मंडल-मंदिर के बाद समीकरण बदल गए। लालू पिछड़ों और मुसलमानों के मसीहा बन गए।
उन्होंने मुस्लिम वोट पूरी तरह अपनी ओर मोड़ लिया। राजीव गांधी सरकार के राम मंदिर शिलान्यास फैसले ने मुसलमानों को कांग्रेस से नाराज कर दिया, जिससे वे लालू की ओर मुड़ गए। पिछड़े वोट बैंक के साथ लालू अजेय हो गए। 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल ने 167 सीटें जीतीं, जो एमवाई फॉर्मूले की पुष्टि थी। तब से कांग्रेस मुस्लिम वोट वापस पाने के लिए जूझ रही है। लालू ने जनता दल को विभाजित कर आरजेडी बनाई, जो आज भी मुस्लिमों का भरोसा जीतती है।
लालू के सामने चुनौती
2020 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन कांग्रेस के खराब प्रदर्शन से महागठबंधन सत्ता से बाहर रहा। बिहार के सीमांचल में हैदराबाद से आए असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM ने पांच सीटें जीतकर सबको चौंका दिया। बाद में चार विधायक आरजेडी में शामिल हो गए, लेकिन यह लालू के विकसित वोट बैंक के लिए चुनौती था। यही कारण है कि ओवैसी के गठबंधन प्रस्तावों के बावजूद आरजेडी AIMIM से दूरी बनाए हुए है।
1990 के दशक की लालू लहर के बाद बिहार की राजनीति बदली है। पिछले 20 वर्षों से एनडीए ने ईबीसी वोटों का बड़ा हिस्सा हथिया लिया है और मुसलमान अन्य विकल्प तलाश रहे हैं, लेकिन एमवाई फॉर्मूला अभी भी आरजेडी को मजबूत बनाए रखता है। क्या इस बार भी यही फॉर्मूला कामयाब होगा? इसके लिए 14 नवंबर तक इंतजार करना होगा।





