Hindi NewsIndia NewsEx CJI UU Lalit Criticises Lack Of Guidelines In BNS On Awarding Community Service As Punishment
दो, चार या आठ घंटे? कितनी हो सामुदायिक सेवा की सजा, Ex CJI ने नए BNS पर अब क्यों उठाए सवाल

दो, चार या आठ घंटे? कितनी हो सामुदायिक सेवा की सजा, Ex CJI ने नए BNS पर अब क्यों उठाए सवाल

संक्षेप: पूर्व CJI ने कहा कि नए BNS में सामुदायिक सेवा की सजा न्यायाधीशों के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जबकि इस पर स्पष्ट विधायी दिशानिर्देश होना चाहिए। उन्होंने आह्वान किया और कहा कि इस बारे में स्पष्ट दिशानिर्देश होने चाहिए कि मापदंड क्या हैं।

Thu, 25 Sep 2025 06:52 AMPramod Praveen पीटीआई, नई दिल्ली
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देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (Ex CJI) जस्टिस यू यू ललित ने ब्रिटिश काल से चले आ रहे भारतीय दंड संहिता (IPC) की जगह लाए गए नए भारतीय न्याय संहिता (BNS)-2023 के तहत सामुदायिक सेवा की सजा देने के दिशा-निर्देशों में कमी पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा है कि नए BNS में सामुदायिक सजा देने के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश नहीं दिए गए हैं। नया BNS पिछले साल एक जुलाई, 2024 से लागू किया गया है, जिसका उद्देश्य आपराधिक न्याय प्रणाली को आधुनिक बनाना और अपराधों के खिलाफ त्वरित और कुशल न्याय उपलब्ध कराना है।

‘सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन’ द्वारा आयोजित "बीएनएस 2023 और आईपीसी 1860: निरंतरता, परिवर्तन और चुनौतियाँ" विषय पर एक व्याख्यान देते हुए जस्टिस ललित ने कहा कि BNS की धारा 356(2) के तहत मानहानि के लिए दो साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों या सामुदायिक सेवा की सजा हो सकती है। उन्होंने कहा, ‘‘हालांकि इस बारे में BNS में कोई दिशानिर्देश नहीं हैं कि सामुदायिक सेवा की सजा कितनी होनी चाहिए। अगर दो साल की जेल की सज़ा है तो क्या इसका मतलब दो साल की सामुदायिक सेवा भी है?’’

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सामुदायिक सेवा का मापदंड क्या?

उन्होंने यह भी बताया कि सामुदायिक सेवा की सजा के प्रकार के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है। उन्होंने पूछा, ‘‘किस तरह की सामुदायिक सेवा? क्या यह आपके गुरुद्वारे में कार सेवा जैसी कोई चीज है? दिन में कितना समय? दो घंटे, चार घंटे, छह घंटे या आठ घंटे? और इसका मापदंड क्या है?’’

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एक उदाहरण देते हुए, जस्टिस ललित ने कहा कि बीएनएस की धारा 356(2) के तहत मानहानि के लिए दो साल तक की कैद, या जुर्माना, या दोनों, या सामुदायिक सेवा हो सकती है। उन्होंने कहा, "लेकिन इस बारे में कोई दिशानिर्देश नहीं हैं कि कितनी सामुदायिक सेवा करनी होगी। अगर दो साल की जेल है, तो क्या इसका मतलब दो साल की सामुदायिक सेवा भी है?" उन्होंने इस तरह की सजा की प्रकृति और सीमा पर भी सवाल उठाए हैं। उन्होंने पूछा कि अगर न्यायाधीश तीन दिन की सामुदायिक सेवा की अनुमति देते हैं, तो क्या कानून के अनुसार यह बिल्कुल सही है।"

न्यायाधीशों के विवेक पर छोड़ दिया गया

यह बताते हुए कि यह प्रावधान न्यायाधीशों के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जस्टिस ललित ने टिप्पणी की,"सज़ा के रूप में सामुदायिक सेवा देने के इस तर्क के लिए कोई दिशानिर्देश नहीं हैं। यह अनिवार्य रूप से एक बहुत ही एड हॉक लेवल पर है और पूरी तरह से दोषी ठहराने वाले न्यायाधीश या दंड देने वाले न्यायाधीश के विवेक पर छोड़ दिया गया है।" उन्होंने इसे न्यायाधीशों के विवेक पर छोड़ने के बजाय स्पष्ट विधायी दिशानिर्देशों का आह्वान किया और कहा, "इस बारे में स्पष्ट दिशानिर्देश होने चाहिए कि मापदंड क्या है। अगर इसे कारावास के विकल्प के रूप में दिया जाता है, तो सामुदायिक सेवा कितनी होगी?" उन्होंने कहा कि हमें विधायिका के माध्यम से कुछ प्रकार के सिद्धांत सामने लाने चाहिए, बजाय इसके कि इसे अलग-अलग न्यायाधीशों पर अपने विवेक और अपने स्वयं के विचार के अनुसार छोड़ दिया जाए कि क्या उचित और न्यायसंगत है।

Pramod Praveen

लेखक के बारे में

Pramod Praveen
भूगोल में पीएचडी और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर उपाधि धारक। ईटीवी से बतौर प्रशिक्षु पत्रकार पत्रकारिता करियर की शुरुआत। कई हिंदी न्यूज़ चैनलों (इंडिया न्यूज, फोकस टीवी, साधना न्यूज) की लॉन्चिंग टीम का सदस्य और बतौर प्रोड्यूसर, सीनियर प्रोड्यूसर के रूप में काम करने के बाद डिजिटल पत्रकारिता में एक दशक से लंबे समय का कार्यानुभव। जनसत्ता, एनडीटीवी के बाद संप्रति हिन्दुस्तान लाइव में कार्यरत। समसामयिक घटनाओं और राजनीतिक जगत के अंदर की खबरों पर चिंतन-मंथन और लेखन समेत कुल डेढ़ दशक की पत्रकारिता में बहुआयामी भूमिका। कई संस्थानों में सियासी किस्सों का स्तंभकार और संपादन। और पढ़ें
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