पुराने जमाने की बात है। किसी गांव में मोहन नाम का एक लड़का रहता था। वह बहुत शैतान था। हर दिन उसकी शिकायतें उसके माता-पिता को सुनने को मिलतीं।
पिता ने मोहन को विद्यालय भेज दिया, लेकिन उसकी शरारतों से शिक्षक भी बहुत दुखी हो गए। उस पर अपने शिक्षक की बातों का भी कोई असर नहीं होता था।
मोहन कई बार बच्चों की सीट के नीचे चींटियां छोड़ देता, जिससे वे ठीक से पढ़ न पाते। बच्चे उसके डर से उसकी शरारतों के बारे में अपने शिक्षकों से भी शिकायत न करते। एक दिन तंग आकर मास्टरजी ने उसे विद्यालय से निकाल दिया।
उस जमाने में जंगल अधिक थे। चारों ओर पेड़-पौधों की भरमार थी। अब मोहन जंगल में जाकर पेड़-पौधों का ध्यान करता, पानी देकर सींचता। घर में उसका मन नहीं लगता था। उसकी चिंता में मां परेशान रहतीं।
मोहन के गांव में एक बूढ़ा आदमी भीख मांगने आता था। वह उसे भी बहुत तंग करता। कभी उसका थैला छीनकर उसमें रखी रोटी निकालकर जानवरों को खिला देता, तो कभी बूढ़े पर पानी डाल देता। लेकिन बूढ़ा उसके गांव में जरूर आता। लोग उससे पूछते कि इतना तंग होने के बाद भी वह इस गांव में भीख मांगने क्यों आता है?
वह सबको एक ही उत्तर देता, “मोहन बच्चा है। बच्चे शरारत नहीं करेंगे, तो क्या हम बड़े लोग करेंगे?” उसकी बात सुनकर लोग चुप हो जाते।
इस प्रकार कई महीने बीत गए। एक दिन मोहन किसी गांव से आ रहा था। उसे घर पहुंचने की जल्दी थी। किसी किसान ने अपनी फसल की रक्षा के लिए नागफनी की बाड़ लगा रखी थी। रास्ते में नागफनी के कांटे गिरे हुए थे। उसकी नजर उन कांटों पर पड़ी। उसने सोचा कि वह एक-दो नागफनियों को लेकर रास्ते पर डाल दे, तो बड़ा मजा आएगा। उसने दो नागफनियों को उठा लिया और उन्हें घास के नीचे छिपा दिया। फिर घर चला आया।
दो-तीन दिन बीत गए। आज वह स्वयं उसी रास्ते से जा रहा था। उसी रास्ते से बूढ़ा भिखारी भी आ रहा था। मोहन को शरारत सूझी। उसने कहा, “जरा थैला दिखाना।” भिखारी ने उसे थैला दे दिया। उसमें एक फटी धोती थी। दो रोटियां भी थीं। वह थैले को लेकर उछालने लगा कि अब वह थैला नहीं देगा।
भिखारी उसके करीब आता, तो वह दौड़कर थोड़ी दूर भाग जाता। इसी भाग-दौड़ में अचानक सूखी नागफनी पर मोहन का पांव पड़ गया। उसके पूरे तलवे में कांटे चुभ गए। वह अचानक एक ओर लुढ़क गया। थैला उसके हाथ से छूट गया। भिखारी मोहन के पास आया। वहां उसने अपनी लाठी से घास हटाई, तो उसे एक और नागफनी नजर आई। उसने उसे भी डंडे से दूर हटा दिया और मोहन के पास बैठकर पांव से कांटे निकालने लगा।
भिखारी ने मोहन के पांव से काफी कांटे निकाल दिए। फिर भी कुछ कांटे उसके पांव में चुभे ही रह गए। भिखारी ने उसे सहारा देकर खड़ा किया। मोहन ने कहा, “मैं घर नहीं जाऊंगा। छाया में बैठकर तलवे के सारे कांटे निकालूंगा, तब घर लौटूंगा।”
भिखारी ने कहा, “यदि तुम मेरी झोंपड़ी तक चलो, तो मैं तलवे के सारे कांटे निकाल दूंगा। ऐसा लेप लगा दूंगा कि तुम्हारा पांव जल्दी ठीक हो जाएगा।” मोहन तैयार हो गया।
भिखारी उसे अपने कंधे का सहारा देकर, झोंपड़ी तक ले आया। फर्श पर एक फटी-पुरानी दरी और कंबल का टुकड़ा बिछा हुआ था। उसी पर उसने मोहन को लिटाया। पानी गरम कर उसका पांव धोया। फिर कांटे निकालकर पैर पर जड़ी-बूटी का लेप कर दिया। मोहन को लेप से बहुत राहत मिली और वह सो गया।
भिखारी ने अपने थैले से भीख में मिले चावल निकाले और खिचड़ी बनाई। फिर गांव जाकर दूध ले आया। उसने मोहन को खिचड़ी खिलाकर पीने के लिए दूध गरम करके दिया। मोहन को अब उस भिखारी को बुड्ढा कहने में शर्म आई। उसने भिखारी को ‘दादा’ कहकर पुकारा। दादा शब्द सुनकर भिखारी की आंखों से आंसू झरने लगे। मोहन ने चकित होकर पूछा, “तुम रो क्यों रहे हो?”
“नहीं बेटा, कोई बात नहीं है। मैं तीस वर्षों से यहां अकेला पड़ा हूं। तुमने मुझे दादा कहा, तो मेरा दिल भर आया।” भिखारी बोला।
“नहीं दादा, अब तुम्हें भीख मांगने की जरूरत नहीं होगी। मैं तुम्हें खिलाऊंगा।” मोहन बोला।
भिखारी हंसकर चुप हो गया। शाम होने जा रही थी। भिखारी ने उसके पांव का लेप गरम पानी से धो दिया। अब उसके पांव में एक भी कांटा नहीं था। इसके बाद भिखारी उसे गांव तक छोड़ने आया। मोहन दौड़कर घर गया और रोटी तथा सब्जी लेकर आया। कहा, “दादा, इसे रात में खाना। मैं कल सुबह आऊंगा।”
भिखारी घर लौट आया। वह सोच रहा था कि मोहन कितना अच्छा लड़का है।
मोहन दूसरे दिन उठा और एक किसान से बोला, “यदि आपको मजदूर की जरूरत हो, तो मैं काम करने के लिए तैयार हूं।” किसान को एक मजदूर की जरूरत तो थी, मगर वह मोहन को एक शरारती बच्चे के रूप में जानता था। वह मोहन से बोला, “तुम्हें शरारत से फुरसत मिलेगी, तभी तो काम करोगे।”
“मुझसे आज काम लेकर देखो चाचा, तब पता चलेगा।”
“ठीक है, चलो काम करो।” किसान बोला।
मोहन ने दिन भर मेहनत से काम किया। बदले हुए मोहन को देखकर किसान बहुत चकित था। उसने मोहन को तीन सेर चावल मजदूरी में दिए।
मोहन चावल लेकर भिखारी की झोंपड़ी में जा पहुंचा। भिखारी खाना बनाने की तैयारी कर रहा था। उसने जब चावल देखे, तो बोला, “मोहन बेटा! ये ले जाकर अपनी मां को दो। मेरा गुजारा तो भगवान चला ही रहा है।”
“नहीं दादा! ये चावल तुम रखो। ये मैंने दिन भर मजदूरी करके कमाए हैं। तुम नहीं रखोगे, तो मैं कल से मजदूरी नहीं करूंगा और शरारतें करने लगूंगा।”
उस दिन से मोहन बहुत बदल गया। अब वह हर एक की मदद करने की कोशिश करता। गांव के सब लोग उसकी खूब तारीफ करते।
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तीन सेर चावल
चंद्रेश्वर प्रसाद,नई दिल्ली | Published By: Anil Kumar
- Last updated: Sat, 13 Jun 2020 10:52 AM

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- Web Title:Three Ser Rice
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