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पत्थर की जुबान

  एक थे काजी साहब। एक दिन वह अदालत पहुंचे, तो उन्हें अदालत के सामने बहुत भीड़ नजर आई। वह आगे बढ़े, तो भीड़ छंट गई। उन्होंने देखा, सूप बेचने वाला एक गरीब व्यक्ति दहाड़ें मार-मारकर रो रहा...

पत्थर की जुबान
डॉ. बानो सरताज,नई दिल्लीThu, 04 Jun 2020 06:49 PM
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एक थे काजी साहब। एक दिन वह अदालत पहुंचे, तो उन्हें अदालत के सामने बहुत भीड़ नजर आई। वह आगे बढ़े, तो भीड़ छंट गई। उन्होंने देखा, सूप बेचने वाला एक गरीब व्यक्ति दहाड़ें मार-मारकर रो रहा है।
काजी साहब उस व्यक्ति को जानते थे। वह उनकी अदालत के बाहर एक अंगीठी पर देगची रखकर गरमागरम सूप बनाता और नान के साथ बेचता। अदालत में अपने-अपने कामों से आए लोग नान-सूप लेकर खाते। यही उसकी जीविका का साधन था।
काजी साहब ने इधर-उधर नजरें दौड़ाईं, तो उन्हें सूप की देगची जमीन पर पड़ी दिखाई दी। सूप जमीन पर बिखरा पड़ा था। काजी साहब सारा मामला समझ गए। उन्होंने नरम आवाज में सूप बेचने वाले से पूछा, “क्या हुआ? क्यों रो रहे हो?”
“जनाब, मैं बर्बाद हो गया। मेरा सारा सूप मिट्टी में मिल गया। अब मैं क्या करूं? मेरी बीवी-बच्चे भूखे मर जाएंगे। इस घमंडी आदमी ने मेरा सूप गिरा दिया।” 
“काजी साहब, मुझसे सुनिए असल बात...।” धनवान व्यक्ति आगे बढ़कर बोला, पर काजी साहब ने उसे हाथ के संकेत से रोकते हुए सूप बेचने वाले से पूछा, “इसने कैसे गिराया तुम्हारा सूप?”
सूप वाला रोकर बोला, “यह अपने घमंड में आसमान की ओर देखते हुए चलकर आए और मुझसे टकरा गए। मैं बचने को पीछे हटा, तो अपशब्द कहते हुए फिर एक धक्का दिया। मैं नीचे गिर पड़ा। अंगीठी उलट गई। सूप की देगची गिर गई। सूप मिट्टी में मिल गया। अब मैं क्या करूं?”
काजी साहब ने धनवान व्यक्ति की ओर देखकर कहा, “यह है। इसके नुकसान की भरपाई कर दो।”
“मैं क्यों भरपाई करूं? मैंने इसका सूप नहीं गिराया।”
“फिर किसने गिराया है?” काजी साहब ने गंभीरता से पूछा।
“इस बड़े पत्थर ने।” उसने संकेत किया, “यही है वह पत्थर जिसने सूप वाले का सूप गिराया है।”
“क्या तुम्हारे पास कोई गवाह है, जो तुम्हारी बात का समर्थन कर सके? कह सके कि सूप पत्थर ने गिराया है?”
“एक नहीं, कई हैं।” उसने घमंड से कहा।
“तो ठीक है। मुलजिम पत्थर और गवाहों के साथ तुम अदालत के कमरे में आ जाओ। वहीं न्याय होगा।”
धनवान ने अपने नौकरों से वह बड़ा पत्थर उठवाया और अपने दोस्तों के साथ अदालत के कमरे में पहुंच गया। सूप वाला अपनी बुझी हुई अंगीठी और पिचकी हुई देगची के साथ उनके पीछे था।
काजी साहब के इशारे पर पत्थर अदालत के मध्य में रख दिया गया। उन्होंने धनवान व्यक्ति की ओर देखते हुए कहा, “तुम्हारा कहना है कि इस पत्थर ने सूप वाले को धक्का दिया, देगची और अंगीठी गिराई, जिससे सूप जमीन पर बिखर गया।”
“जी हां।”
“क्या तुम्हारे अलावा तुम्हारे सेवकों ने पत्थर को यह जुर्म करते देखा है?”
“ये मेरे सेवक नहीं हैं काजी साहब। शहर के रईस हैं, मेरे दोस्त हैं।”
“कहां हैं तुम्हारे गवाह दोस्त? एक-एक करके पेश करो।” काजी साहब ने आज्ञा दी।
धनवान ने संकेत किया। एक व्यक्ति ने आगे आकर कहा, “मैंने पत्थर को अंगीठी उलटाते और सूप गिराते देखा है।”
दूसरा आगे आकर बोला, “मैंने भी देखा है।”
“मैंने भी पत्थर को ऐसा करते देखा है।” तीसरे ने कहा। चौथा व्यक्ति आगे बढ़ा था कि काजी साहब ने हाथ उठाकर रोक दिया फिर पत्थर की ओर देखकर बोले, “गवाहों के बयान के मुताबिक, ऐ जालिम पत्थर! तूने गरीब सूप वाले की अंगीठी तोड़ी है, देगची पलटी है, सूप गिराया है। क्या तुम अपना जुर्म कुबूल करते हो?”
पत्थर क्या बोलता भला?
काजी साहब पत्थर की ओर देखकर बोले, “तुम अपना जुर्म कुबूल नहीं कर रहे हो, पर गवाहों के बयानों से तुम पर जुर्म साबित होता है। मैं तुम्हें दस कोड़ों की सजा देता हूं। सजा अभी और इसी वक्त दी जाएगी।”
काजी साहब के इशारे पर अदालत के सिपाही ने आगे बढ़ कर पत्थर पर कोड़े बरसाने शुरू कर दिए।
धनवान और उसके रईस साथी चेहरे हाथों में छिपाकर हंसने लगे। काजी साहब ने कड़ककर पूछा, “तुम लोग हंस क्यों रहे हो?”
एक रईस बोला, “पत्थर की भी कहीं जुबान होती है? वह गुनाह कैसे कुबूल करेगा?”
“पत्थर की जबान नहीं होती?” काजी साहब ने बनावटी आश्चर्य से कहा।  फिर हंसकर बोले, “पर पत्थर ने तो खामोश जुबान से गवाही दे दी है।”
“हमने तो नहीं सुना।” दूसरे ने हंसते हुए कहा।
“खूब, बहुत खूब!” काजी साहब मुसकरा पड़े, “पत्थर ने न सही, तुमने तो जुर्म कुबूल कर लिया। पत्थर की गवाही पर ही ना!”
“हमने? हमने कौन सा जुर्म कुबूल किया?” वे सब गड़बड़ा गए।
“प्रत्येक प्राणी की जुबान होती है, चाहे वह इनसान हो या हैवान। अब चूंकि पत्थर के जुबान नहीं है इसलिए वह जानदार नहीं है। जानदार नहीं है, इसलिए न वह अंगीठी तोड़ सकता है, न देगची पिचका सकता है और न सूप गिरा सकता है। तुम सबने अदालत में झूठी गवाही दी है। इसलिए तुम सबको चालीस-चालीस कोड़ों की सजा दी जाती है। चलो, शुरू हो जाओ।” काजी साहब ने सिपाही को आदेश दिया। 
सिपाही आगे बढ़ा ही था कि काजी ने कहा, “रुको, पहले उस रईस को सौ कोड़े मारो, जिसने एक गरीब पर जुल्म किया है।”
धनवान व्यक्ति के पसीने छूट गए। गिड़गिड़ाकर बोला, “मुझे माफ कर दीजिए। मैं इस गरीब के नुकसान की भरपाई के तौर पर उसे सौ सिक्के देने को तैयार हूं।” 
“अदालत तुम्हें माफ करती है।” काजी साहब ने कहा। यह सुनते ही अन्य रईस आगे बढ़कर बोले, “हमारी सजा भी माफ कर दीजिए। हम भी चालीस-चालीस सिक्के इसे देने को तैयार हैं।”
काजी साहब ने हां में सिर हिलाया। झूठी गवाही देने वालों ने सिक्के रख दिए। काजी साहब ने सूप वाले से कहा, “ये सिक्के रख लो। ये तुम्हारे ही हैं। इस रकम से तुम एक छोटी सी दुकान खोल लो। सूप के साथ नान तो बेचते ही हो, चावल भी बनाकर बेचना। अच्छी कमाई होगी।”
सूप वाला रकम लेकर खुशी-खुशी चला गया। ’ 

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