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सीएम पद लेकर कैसे सत्ता और पार्टी दोनों खोने की कगार पर उद्धव ठाकरे, पिता बालासाहेब ठाकरे से नहीं ली सीख

यह अलिखित पार्टी संविधान ही बन गया था कि ठाकरे परिवार शिवसेना की ओर से कभी सत्ता का हिस्सा नहीं होगा। लेकिन 2019 में शिवसेना की यह परंपरा टूट गई। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि संकट यहीं से शुरू हुआ।

सीएम पद लेकर कैसे सत्ता और पार्टी दोनों खोने की कगार पर उद्धव ठाकरे, पिता बालासाहेब ठाकरे से नहीं ली सीख
Surya Prakashलाइव हिन्दुस्तान,मुंबईThu, 23 Jun 2022 10:22 AM

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Uddhav Thackeray in Crisis: शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे अपने दौर में महाराष्ट्र के सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक थे। भाजपा को 'कमलाबाई' कहने वाले बालासाहेब ठाकरे अकसर अपनी शर्तों पर ही काम करने के लिए जाने जाते थे। लेकिन एक चीज से वह हमेशा दूर रहे, वह थी सत्ता। भले ही भाजपा और शिवसेना के गठबंधन वाली सरकार में उनका अच्छा खासा दखल होता था, लेकिन वह कभी सरकार में पद पर नहीं रहे। यहां तक कि यह अलिखित पार्टी संविधान ही बन गया था कि ठाकरे परिवार शिवसेना की ओर से कभी सत्ता का हिस्सा नहीं होगा। लेकिन 2019 में शिवसेना की यह परंपरा टूट गई। भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली शिवसेना बाद में इसी बात पर अड़ गई कि उनका सीएम भी ढाई साल के लिए बनना चाहिए, यह वादा अमित शाह ने किया था।

सीएम पद बन गया उद्धव ठाकरे के लिए गले की हड्डी

इसी बात पर दोनों दलों के बीच तनाव इस कदर बढ़ा कि शिवसेना ने राह ही अलग कर ली और दशकों तक जिस कांग्रेस और एनसीपी से टकराव रहा, उनके साथ मिलकर महा विकास अघाड़ी गठंबधन बना। कहा जाता है कि इस गठबंधन की पहली शर्त ही यह थी कि उद्धव ठाकरे ही कमान संभालें। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने यह मांग स्वीकार कर ली और सीएम बन गए। मौजूदा हालातों में माना जा रहा है कि उनका सीएम बनना और फिर बेटे आदित्य ठाकरे का मंत्री बनना ही शिवसेना में नाराजगी की वजह बना। दरअसल एकनाथ शिंदे खुद को सीएम पद का दावेदार मानते थे। उन्हें यह पद नहीं मिला और वरिष्ठ मंत्री के तौर पर जो उनकी पकड़ थी, वह आदित्य ठाकरे के बढ़ते दखल के चलते कमजोर होती चली गई।

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शिवसेना में आलोचना से परे नहीं रही अब ठाकरे फैमिली

इस तरह ठाकरे परिवार के सत्ता का हिस्सा बनने से दूर रहने की परंपरा टूटी तो फैमिली आलोचना से परे भी नहीं रह सकी, जैसा बालासाहेब ठाकरे के दौर में था। तब मनोहर जोशी से लेकर नारायण राणे जैसे नेता भले ही सत्ता में होते थे, लेकिन अंतिम फैसला सरकार से दूर बैठे बालासाहेब ठाकरे ही लेते थे। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो सीएम उद्धव ठाकरे की छवि पिता की तरह जादुई नहीं रही है। इसके अलावा सत्ता को स्वीकार करके उन्होंने ठाकरे फैमिली के सत्ता से दूर रहने के नैतिक संदेश को भी खत्म कर दिया। इससे शिवसैनिकों के बीच ठाकरे फैमिली का वह रुतबा नहीं रहा, जो बालासाहेब के दौर में होता था।

40 विधायकों की बगावत से गहरे संकट का संकेत

एकनाथ शिंदे की बगावत से भी अहम बात यह है कि उनके पास करीब 40 विधायकों का समर्थन है। यदि शिवसेना में सब कुछ ठीक होता तो एकनाथ शिंदे की नाराजगी होने के बाद भी इतनी बड़ी संख्या में विधायक उनके साथ नहीं होते। साफ है कि शिवसेना में सीएम उद्धव ठाकरे के कामकाज और गठबंधन को लेकर गहरा असंतोष है। यही वजह है कि इतनी बड़ी टूट के चलते एक तरफ उद्धव ठाकरे सरकार बचाने की स्थिति में नहीं हैं तो वहीं पार्टी को बचाना भी अब उनके लिए एक चुनौती है। वह उस मोड़ पर आ गए हैं, जहां ठाकरे फैमिली के लिए सत्ता और साख दोनों जाती दिख रही हैं।

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