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पुण्यतिथि: जब हिन्दी भाषा पर गांधी और नेहरू से भिड़ गए थे निराला

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का कद उनके साहित्य के कारण कितना भी विशाल रहा हो, जन-साधारण के बीच उनके सम्मान के पीछे उनकी दानवृत्ति बड़ा कारण था। वे पात्र-कुपात्र का ध्यान किए बिना मुक्त-हस्त से अपनी...

पुण्यतिथि: जब हिन्दी भाषा पर गांधी और नेहरू से भिड़ गए थे निराला
लाइव हिन्दुस्तान टीम,नई दिल्लीSun, 15 Oct 2017 01:25 PM
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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का कद उनके साहित्य के कारण कितना भी विशाल रहा हो, जन-साधारण के बीच उनके सम्मान के पीछे उनकी दानवृत्ति बड़ा कारण था। वे पात्र-कुपात्र का ध्यान किए बिना मुक्त-हस्त से अपनी कठिन कमाई लुटाते हुए तनिक नहीं हिचकते थे। वे अवढरदानी थे। अपने शरीर के वस्त्र, कम्बल, जूते तक देखते-देखते लुटा देते। उनकी यह दानवृत्ति उनके साहित्य में भी अंकित मिलती है। कठिन से कठिन परिस्थितियां भी उनकी इस दानवृत्ति को छुड़ा नहीं पाईं। 

उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते यह किस्से डॉ. शिवगोपाल मिश्र द्वारा लिखी किताब 'ऐसे थे हमारे निराला' से लिए गए हैं।

'भीख मांगी तो गला दबा दूंगा' : एक बार निराला जी अपने प्रकाशक के यहां से रॉयल्टी लेकर इक्के पर चले आ रहे थे। रास्ते में एक बुढ़िया भिखारिन ने तीव्र स्वर में पुकारा- ‘बेटा, भीख दे दो।’ निराला जी ने इक्का रुकवाया और उतरकर बुढ़िया की ओर बढ़े। बुढ़िया ने समझा कि कोई बड़ी भीख मिलने वाली है, किन्तु निराला जी ने बुढ़िया का गला पकड़ लिया और पूछना शुरू किया- ‘तुम निराला की मां बनकर भीख मांग रही हो? बोलो यदि तुम्हें पांच रुपए दूं तो कब तक भीख नहीं मांगोगी?’बुढ़िया ने कहा- ‘आज भर।’निराला जी ने पूछा- ‘यदि दस?’, ‘तो दो रोज।’‘यदि सौ दूं तो?’ बुढ़िया हतप्रभ हो गई। निराला जी की जेब में कई सौ रुपए थे। सभी रुपए निकालकर उन्होंने बुढ़िया की हथेली पर रखते हुए कहा- ‘निराला की मां होकर यदि आज से तुमने कभी भीख मांगी तो गला दबा दूंगा।’ यह कहकर रिक्तहस्त हो निराला अपने निवास चले गए। बुढ़िया ने दानी बेटे को लाख आशीष दिए। 

इलाहाबाद में दारागंज स्टेशन के पास एक भिखारिन बुढ़िया रहती थी। जाड़े की एक शाम निराला जी उधर से निकले तो शीत से कांपती हुई बुढ़िया के ऊपर अपना कंबल लपेटते हुए कहा, ‘तुङो कितना जाड़ा लग रहा होगा, ले।’ फिर वे उसे सुरक्षित स्थान पर बैठाकर घर गए और वहां से अपने लिए परोसी गई थाली उठाकर उसी बुढ़िया को दे आए। 

कद्रदान का कर्ज : जब कलकत्ते से ‘मतवाला’ साप्ताहिक पत्र निकलता था, और जब निराला जी की कविताओं की कोई कद्र नहीं थी तो मुं. नवजादिक लाल ने ‘अनामिका’ नाम से उनकी नौ कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित किया था और उसकी भूमिका में निराला जी को अग्रणी कवि माना था। फलत: नवजादिक लाल की मृत्यु के पश्चात उनकी विधवा पत्नी एवं परिवार के प्रति भी निराला जी सदैव आत्मीयता बरतते रहे। अत: जब ‘अपरा’ पर उन्हें 2100 रुपए का पुरस्कार मिला तो उनके सामने उनके खर्च की समस्या आई। उन्होंने बिना कुछ सोचे-विचारे स्वर्गीय नवजादिक लाल की पत्नी के नाम सम्पूर्ण राशि भिजवा दी। बाद में एक कृति भी स्वर्गीय मित्र के नाम अर्पित की। 

ले लो मेरी आंख: एक बार निराला जी के घर की गली साफ करने वाली मेहतरानी ने बड़े ही विनयपूर्वक स्वर में उनसे कहा, ‘पंडित जी, अब ठीक से दिखाई नहीं पड़ता।’ निराला जी ने झट से अपना चश्मा उतार कर उसे देते हुए कहा, ‘लो, हम अपनी आंखें तुम्हें देते हैं।’

दूध वाले को नंगे पांव देखकर उसे अपने जूते दे देने अथवा किसी भी दीन-हीन को अपनी लुंगी, चादर या कुर्ता दे देने की अनेक कथाएं दारागंज के निवासियों से सुनी जा सकती हैं। वस्तुत: निराला जी का वास्तविक सम्मान ऐसे ही दीन-हीन जन करते थे। जिस गली से वे निकल जाते थे, लोगों की आंखें श्रद्धा से झुक जाती थीं। रिक्शेवाले को अपनी गांठ से पैसे देकर चाय पिलाना अथवा बीमार के लिए दवा ला देना, ऐसी सामान्य घटनाओं की तो न जाने कितनी कथाएं होंगी।

वह षडय़ंत्र और मित्रों से संबंध विच्छेद : निराला जी की साहित्यिक जीवन संबंधी सबसे बड़ी घटना है उनका लेख ‘वर्तमान धर्म’। इसे पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी ने ‘विशाल भारत’ में 'साहित्यिक सन्निपात’ शीर्षक से प्रकाशित किया। बाद में उन्होंने मत संग्रह करके यह घोषित कर किया कि निराला विक्षिप्त हो गए हैं। कहा जाता है कि निराला जी को इस साहित्यिक षडय़ंत्र से बड़ा धक्का लगा और उन्होंने सारे मित्रों से अपने संबंध विच्छेद कर लिए। कवि सम्मेलनों में वे डंडा लेकर जाया करते थे। उनकी वाणी और उनके स्वर का असर था कि खड़े होकर एक भी अपनी कविता सुना देते तो शांति स्थापित हो जाती। ऐसी कई दंतकथाएं हैं, जब निराला जी ने कवि सम्मेलनों में असामान्य आचरण किए। एक बार शिमला में आयोजित कवि सम्मेलन में टिकट लगा दिया गया तो निराला वहां रहते हुए भी कवि सम्मेलन में सम्मिलित नहीं हुए। फैजाबाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर पं. रामचंद्र शुक्ल को उचित मान न प्रदान किए जाने पर निराला जी गरज उठे थे।

गांधी-नेहरू से टकराते निराला: महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, टंडन जी तथा सम्पूर्णानंद जी से उनकी भिड़ंतों की कई कथाएं हैं। एक बार गांधी जी ने कह दिया कि हिन्दी में एक भी रवीन्द्रनाथ टैगोर नहीं हुआ तो निराला जी ने ललकारते हुए कहा- ‘गांधी जी, आपको हिन्दी का क्या पता। उसको तो हम जानते हैं। आपने मेरी रचनाएं पढ़ी हैं?’राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर नेहरू जी से निराला जी की भिड़ंत रेलगाड़ी में हुई थी। बातचीत के दौरान नेहरू जी ने हिन्दी शब्द भण्डार पर कुछ छींटाकशी की तो निराला जी ने पूछ दिया- ‘क्या आप ‘ओउम्’ का अर्थ बता सकते हैं?’ नेहरू जी निरुत्तर रह गए थे।

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