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लाहौर में कोहिनूर

सबसे प्रसिद्ध हीरा कोहिनूर ब्रिटिश काल में ब्रिटेन पहुंचकर औपनिवेशिक प्रभुत्व का प्रतीक बना, मगर भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय प्रतीक की तरह है, जिसे वे स्वेदश वापस लाना चाहते हैं। इसके नाम का मतलब...

लाहौर में कोहिनूर
हिन्दुस्तानSat, 24 Jun 2017 11:39 PM
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सबसे प्रसिद्ध हीरा कोहिनूर ब्रिटिश काल में ब्रिटेन पहुंचकर औपनिवेशिक प्रभुत्व का प्रतीक बना, मगर भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय प्रतीक की तरह है, जिसे वे स्वेदश वापस लाना चाहते हैं। इसके नाम का मतलब रोशनी का पहाड़ है, लेकिन इसके ईदगिर्द रहस्य का धुंधलका हमेशा छाया रहा। मशहूर लेखक विलियम डेलरिंपल और अनिता आनंद ने अपनी किताब ‘कोहिनूर’ में उस धुंधलके को हटाकर इस नायाब हीरे की असल कहानी पेश की है, जो भारत के गुजरे जमाने की कहानी भी है। प्रस्तुत है जगरनॉट बुक्स द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का एक दिलचस्प अंश :

कोहिनूर के सभी स्वामियों की तुलना में इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल रणजीत सिंह ने किया। सिखों के इस महान महाराजा का व्यक्तित्व बहुत सरल और विनम्र था। इस छोटे कद और चेहरे पर चेचक के दाग वाले शख्स को जब एक ब्रिटिश अधिकारी ने ढलती उम्र में देखा था तो उसकी तुलना एक बूढ़े होते चूहे से की, जिसकी एक ही आंख हो और मूंछों के बाल सफेद हो रहे हों। वह हमेशा ही सफेद रंग के लिबास पहनते और खुद को संवारने की कोई खास कोशिश नहीं करते थे। पर कोहिनूर से उन्हें जुनून की हद तक मोहब्बत थी, और हर सार्वजनिक मौके पर वह उसे जरूर पहनते थे।

उन्हीं के शासनकाल में पहली बार कोहिनूर ने अपनी अलग पहचान बनाई जो अब तक बरकरार है। नादिर शाह और दुर्रानी के वंशजों ने इसे हमेशा किसी दूसरे कीमती पत्थर, मुगलों ने इसे खास तैमूरी माणिक्य के साथ पहना, नादिर शाह ने जिसे एजुल हूर और दुर्रानियों ने फखराज कहा था। पर अब कोहिनूर अकेले रणजीत सिंह के गले की शोभा बनकर उनके संघर्षों और आजादी के लिए लड़े गए मुश्किल युद्धों का प्रतीक बन चुका था।

रणजीत सिंह को कोहिनूर पसंद होने की सिर्फ यही वजह नहीं थी कि उन्हें सिर्फ हीरे पसंद थे और वह कोहिनूर के बेशकीमती होने की वजह से ही उसकी इज्जत करते थे, पर कोहिनूर उनके लिए इन सब पैमानों से ऊपर था। उनके लिए यह नगीना अलग ही महत्व रखता था। वह जब से सिंहासन पर आसीन हुए थे, उन्होंने अफगान दुर्रानी वंश से भारत की वह सारी भूमि जीतकर वापस ले ली थी, जो अहमद शाह के शासन के समय से ही इस वंश के कब्जे में थी। रणजीत सिंह ने दुर्रानी वंश से हर इलाका जीतकर वापस ले लिया था, यहां तक कि खैबर दर्रे तक उनकी सल्तनत पहुंच चुकी थी। दुर्रानी वंश के इस हीरे को हासिल करने को रणजीत सिंह ने अपनी सफलता के चरमोत्कर्ष का प्रतीक चिह्न मान लिया था। दरअसल वह कोहिनूर को एक ऐसी मोहर मानते थे, जो यह साबित करती कि लड़खड़ाते दुर्रानी वंश के खात्मे का सारा श्रेय उन्हीं को जाता है। शायद यह एक बड़ी वजह रही होगी, जिसने रणजीत सिंह को हर मौके पर कोहिनूर पहनने की प्रेरणा दी। कोहिनूर की खूबसूरती के साथ-साथ, शायद यह भी बड़ी वजह रही हो।

जब रणजीत सिंह ने वर्ष 1813 में इस महान हीरे को हासिल किया, तो उन्हें शक था कि शाह शुजा उन्हें बेवकूफ भी बना सकता है। यही वजह थी कि उन्होंने तुरंत लाहौर के सारे बड़े जौहरियों को बुलाया और हीरे की प्रामाणिकता की जांच करने का आदेश दिया। उन्हें तब बड़ी राहत मिली और थोड़ी सी हैरानी भी हुई, जब सभी ने इसे खालिस खरा और बेशकीमती करार दिया। एक पुराने दरबारी ने बाद में इस घटना को याद करते हुए लिखा है, ‘महाराजा जब महल लौटे तो उन्होंने दरबार बुलाया। कोहिनूर हीरे का प्रदर्शन किया गया और वहां मौजूद सभी सरदारों, मंत्रियों और विशिष्ट लोगों को इसे देखने का मौका दिया गया। सभी ने बार-बार महाराजा को इस अमूल्य रत्न के हासिल होने पर बधाई दी।’

अगले दो दिनों तक रणजीत सिंह ने लाहौर के जौहरियों से इसकी प्रामाणिकता की जांच करवाई।

इसके बाद जब महाराजा इस बात से पूरी तरह से संतुष्ट हो गए कि जो हीरा उनके पास है वह असली कोहिनूर है तो उन्होंेने शाह शुजा को सवा लाख रुपए दान में भिजवा दिए। महाराजा इसके बाद अमृतसर गए और तुरंत ही अमृतसर के मुख्य जौहरियों को बुलवा भेजा, जिससे यह पता लग सके कि लाहौर के जौहरियों ने कोई गलती तो नहीं की और इस हीरे का असली मूल्य क्या है। उन जौहरियों ने कोहिनूर की ठीक से जांच की और जवाब दिया कि इस बड़े आकार के बेहद खूबसूरत हीरे की कीमत के आगे हर आंकड़ा बौना है। महाराजा चाहते थे कि हीरे को कुछ इस शानदान अंदाज और तरतीब से रखा जाए, जिसे दुनिया सराहे। वह हीरे को अपनी आंखों से दूर नहीं होने देना चाहते थे। यही वजह थी कि यह काम भी जौहरियों को महाराजा जी की मौजूदगी में ही करना पड़ा।

यह काम पूरा हुआ, रणजीत सिंह ने कोहिनूर को अपनी पगड़ी के सामने की तरफ लगवाया, हाथी पर सवार हुए और अपने सरदारों और सहायकों के साथ शहर के मुख्य मार्ग पर कई बार आए-गए। ऐसा करने के पीछे महाराजा की मंशा थी कि उनकी प्रजा यह देख ले कि कोहिनूर पर अब उनका अधिकार है। कोहिनूर को रणजीत सिंह हर दीवाली, दशहरा और त्योहारों पर बाजूबंद की तरह भी पहनते थे। उसे हर उस खास व्यक्ति को दिखाया जाता जो दरबार आता था, खासकर दरबार आने वाले हर ब्रिटिश अफसर को। महाराजा रणजीत सिंह जब भी मुल्तान, पेशावर या किसी और जगह दौरे पर जाते, वह अपने साथ कोहिनूर को ले जाते थे।

इसके थोड़े ही दिन बाद रणजीत सिंह ने हीरे की कीमत जानने के लिए हीरे के पुराने स्वामियों और उनके परिवारों से दोबारा संपर्क करना शुरू कर दिया। वफा बेगम ने उन्हें बताया, ‘अगर कोई बेहद ताकतवर व्यक्ति एक पत्थर को चारों दिशाओं में फेंके और पांचवां पत्थर हवा में ऊपर की ओर उछाल दिया जाए तो इन सारे पत्थरों के बीच भरे गए सोने-चांदी और जवाहरात का कुल मूल्य भी कोहिनूर की बराबरी नहीं कर सकेगा।’ इस बीच जब शाह शुजा से यही सवाल पूछा गया तो उसने जवाब दिया, ‘जिसके पास यह पत्थर रहता है वह भाग्यशाली होता है, इसे मैंने अपने दुश्मनों को हराकर हासिल किया है।’ इसके बाद तो पूरे जीवन रणजीत सिंह को इस बात की चिंता रही कि उनका यह बेशकीमती पत्थर कोई चुरा न ले।  

जब रणजीत सिंह इस हीरे को नहीं पहनते तो उसे गोबिंदगढ़ के अभेद्य किले के राजकोष में बहुत ही तगड़ी सुरक्षा के बीच रखा जाता। महाराजा रणजीत सिंह ने बहुत से राज्यों की यात्रा की थी और हर जगह इसे लेकर भी गए थे। यात्रा के दौरान भी उन्होंने इसकी सुरक्षा व्यवस्था के लिए कई नायाब तरकीबें ईजाद की थीं। 

यात्रा के दौरान चालीस ऊंट और उन पर एकदम एक तरह के बक्से रखवाए जाते थे। किसी को नहीं पता होता था कि असली कोहिनूर किस बक्से में रखा गया है। यह बात और थी कि आमतौर पर हर समय सुरक्षाकर्मियों के ठीक पीछे वाले यानी पहले ही बक्से में कोहिनूर रखा जाता था, पर इस बात की सख्त गोपनीयता बरती जाती कि कोहिनूर का असली बक्सा किसी को न पता चले। महाराजा के पहनने या यात्रा में न होने की दशा में कोहिनूर को गोबिंदगढ़ के तोशाखाने में कड़ी सुरक्षा के बीच रखा जाता था।

इस बीच महाराजा रणजीत सिंह के राज्य की सीमाओं और समृद्धि ने विकास के नए आयाम को हासिल किया। अफगान गृहयुद्ध का पूरा फायदा उठाते हुए महाराजा ने दुर्रानी वंश की करीब-करीब सारी जमीन पर कब्जा करके उसे अपने राज्य का हिस्सा बनाने का मौका नहीं छोड़ा। उन्होंने सिंधु नदी से लेकर खैबर दर्रे तक का पूरा इलाका जीत लिया। उन्होंने पेशावर को 1818 में जीता और कश्मीर को उसके एक साल बाद। इस दौर में उन्होंने एक बेहद वैभवशाली, मजबूत, केंद्रीकृत और बेहतरीन शासित सिख राज्य का निर्माण कर दिया था। उन्होंने जिन सरदारों को हराया उनके साथ न सिर्फ बेहद सौहार्दपूर्ण और उदारता से पेश आए, बल्कि उन्हें अपने राजनीतिक तंत्र का हिस्सा भी बना लिया था। इसके साथ ही उन्होंने एक बेहतरीन सेना बनाई, अपनी नौकरशाही तंत्र का जबर्दस्त आधुनिकीकरण किया, अपने राजस्व पर ध्यान देकर उसे संतुलित किया और पहली बार एक लाभकारी कृषि नीति भी बनाई। कश्मीर से लेकर पंजाब तक महाराजा रणजीत सिंह के राज्य में करीब एक करोड़ तीस लाख लोग रहते थे और वह अपनी प्रजा के बीच बहुत ही लोकप्रिय थे। 

कोहिनूर का वह रखवाला
रणजीत सिंह के अलावा मिश्र बेली राम ही पूरे राज्य में वह दूसरा व्यक्ति था, जिसे कोहिनूर के प्रबंधन के सर्वाधिकार मिले थे। मिश्र बेली राम हमेशा कोहिनूर के मोती जड़े हुए शानदार डिब्बे को अपने हाथों में ही रखता था। वह दरअसल कोहिनूर को रत्न नहीं, बल्कि जीवधारी वस्तु मानता था। कोहिनूर मिश्र बेली राम को एक ऐसे चूजे की तरह दिखता था, जिस पर झपट्टा मारने के लिए हर चील तैयार बैठी हो। जब महाराजा अपने कामकाज या किसी और वजह से राजमहल से दूर होते तो बेली राम ही महाराजा की शानदार और संवेदनशील अमानत का ख्याल रखता। बेली राम इस दौरान कोहिनूर को एक साधारण से दिखने वाले डिब्बे में रखता था। इसके साथ ही ठीक वैसे ही डिब्बों में कोहिनूर के शीशे के दो प्रतिरूप भी रखे जाते थे। इन तीनों बक्शों को अलग-अलग ऊंटों पर रखकर महाराजा रणजीत सिंह की तगड़ी सैन्य सुरक्षा के बीच ले जाया जाता। किस बक्से में असली कोहिनूर है यह सिर्फ मिश्र बेली राम ही जानता था। अगर महाराजा का शाही लश्कर कहीं रात्रि प्रवास करता तो तीनों बक्से बेली राम के पलंग से जंजीर के जरिए बांधे जाते। चोरों को अगर उनके तंबू के बाहर की कड़ी सुरक्षा से निकलने में कामयाबी मिल भी जाती तो कोहिनूर चुराने के लिए उन्हें तीनों डिब्बों को काटना पड़ता। वरना चोरों को यह कभी पता नहीं लगता कि उन्होंने जो हीरा चुराया है, वह असली कोहिनूर है कि नहीं। 

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