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बदली है चाल मेघों की या...

मेघों की चाल से धरती पर जिंदगी की नियति तय होती है। इसी नाते इधर कुछ वर्षों में मौसम के उलटफेर के चलते धरती की आबोहवा में भी कुछ बदलाव दिखने शुरू हुए तो कहा जाने लगा कि मेघों ने अपनी चाल बदल ली है।...

बदली है चाल मेघों की या...
अनुपम मिश्र,नई दिल्लीWed, 19 Jul 2017 06:14 PM
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मेघों की चाल से धरती पर जिंदगी की नियति तय होती है। इसी नाते इधर कुछ वर्षों में मौसम के उलटफेर के चलते धरती की आबोहवा में भी कुछ बदलाव दिखने शुरू हुए तो कहा जाने लगा कि मेघों ने अपनी चाल बदल ली है। लेकिन क्या सचमुच मेघों की चाल बदली है या माजरा कुछ और है? प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक और 'आज भी खरे हैं तालाब' के चर्चित लेखक भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। कादम्बिनी के जुलाई 2014 अंक में प्रकाशित

अकसर यह कहा जाता है कि अब मेघों ने अपनी चाल बदल दी है। असल में मेघों की चाल बदली या नहीं बदली, यह पक्के तौर पर कहना कठिन है। उससे ज्यादा भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि हमारी चाल जरूर बदल गई है। पिछले सौ-सवा सौ साल में मौसम विभाग-जैसा कोई विभाग हमारे समाज में, हमारे देश में और दुनिया के विभिन्न देशों में अस्तित्व में आया है। दो-पांच वर्ष का अंतर होगा, लेकिन ऐसी चीजें बहुत पुरानी नहीं हैं।

वर्षा, मेघ, पानी का गिरना, आषाढ़ का आना, सावन-भादों-ये सब हजारों साल के अनुभव हैं समाज के, उसके सदस्यों के, विशेषकर किसानों के जिनका पूरा जीवन इस पर टिका रहता है। उन्होंने कभी अपनी चाल नहीं बदली, बल्कि मेघों की चाल देखकर अपना व्यवहार तय किया था। लेकिन बाद में, विशेषकर पिछले पचास-साठ वर्षों में, विकास नाम का एक शब्द मानव समाज के हाथ में लगा। इस विकास की दौड़ में कोई भी समाज हो-चाहे आधुनिक कहलाता हो, अति आधुनिक अमेरिका हो, वो  चाहे डॉलरवाला हो, रुपयों वाला हो-उसके मन में कहीं-न-कहीं यह घमंड आ गया कि वह प्रकृति पर, मेघों पर, वर्षा पर नियंत्रण कर सकता है।

बहुत से नेता आपको यह कहते हुए मिलेंगे कि हमारी  खेती भगवान भरोसे है, इसलिए हम पिट जाते हैं। वे कहते हैं कि यह हमारे भरोसे होनी चाहिए और हम विज्ञान से उसको करके दिखा सकते हैं। इसीलिए बड़े-बड़े बांध बनते हैं, फिर उनकी सैकड़ों किलोमीटर की नहरें बनती हैं। वे यह मानते हैं कि मेघ अपनी चाल बदल देंगे, तो हमारे पास उनको अंगूठा दिखाने का एक तरीका है कि हमने भी अपनी चाल इतनी आधुनिक कर ली है कि हम तुमको याद भी नहीं करनेवाले और हमारे खेतों में पानी पहुंच जाएगा। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति हमारा घमंड बीच-बीच में तोड़ती रहती है।

वह अपने रिमाइंडर्स भेजती है, स्मरण पत्र भेजती रहती है कि भाई! जरा संभल के चल, इतना मत लड़खड़ा, इतना मत घमंड कर, इतना माथा ऊपर मत कर, थोड़ा झुक के रह, थोड़ा विनम्रता दिखा। ये बदलता नहीं है। तो, मतलब यह कि हमारा स्वभाव नहीं बदलता तो हम ऐसी बातें करते हैं कि ये मेघ जो पानी गिराते हैं वह नदियों में बह जाता है, समुद्र में व्यर्थ चला जाता है। लेकिन सच तो यह है कि समुद्र में पानी कभी व्यर्थ नहीं जाता है, नहीं तो प्रकृति इसका ऐसा चक्र बदल देती कि आधा पानी समुद्र में जाए और आधा कहीं और जाए। 

पूरी नदी को एक बार ऊपर से नीचे तक देखिए। हम कुछ भी उस पर बनाएं, वह समुद्र तक जाने की हर संभव कोशिश करती चली जाती है। जिन नदियों पर अभी आधुनिक किस्म के बांध हमने बनाए हैं, उनमें समुद्र और नदी के मिलने के बिंदु पर बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि मिट्टी बहुत कम है इस पृथ्वी पर। पानी ज्यादा बड़े हिस्से में है, तो, जहां नदी मिलती है वहां मुहाने पर, डेल्टा पर प्रकृति उसे सैकड़ों धाराओं में तोड़ देती है। धीरे-धीरे करके उसे समुद्र में मिलाती है, क्योंकि तब कोण उसका कम हो जाता है और उसमें ढाल भी नहीं रह जाता। वह बिलकुल ही समुद्र के स्तर पर पहुंच जाता है। एक फुट छह इंच, पांच इंच, तीन इंच ऐसे करके मिलता है पानी उसमें। 

समुद्र का जो वेग है, ज्वार-भाटा है, वह तीस-चालीस किलोमीटर तक नदी में दिन में दो बार प्रवेश करता है और दो बार नदी उसको फिर वापस ठेल देती है। जिन इलाकों में हमने बड़े बांध बनाए हैं, उनमें नर्मदा भी शामिल है, उन्हें देखिए। आज लोग इस बात को स्वीकार करने में थोड़ा सकुचाएंगे, क्योंकि उनके विकास के तरीके पर थोड़ा असर पड़ेगा। वे तो कहेंगे कि हमने पानी रोक लिया और समुद्र में नहीं जाने दिया, यह बड़ा अच्छा हुआ। लेकिन सच यह है कि वहां से समुद्र अपना हिस्सा मांगना शुरू करता है और नतीजतन बहुत दूर-दूर के हिस्से में खारा पानी आने लगता है। यह नर्मदा में भी आ रहा है, दूसरी जगहों में भी आ रहा है। 

खासकर सिंध के मुहाने पर, तटीय इलाकों में, कराची की तरफ पाकिस्तान में इतना ज्यादा खारा पानी बढ़ रहा है कि हालत गंभीर है। जहां कभी मीठे पानी के कुएं होते थे, वहां अब एक बूंद मीठा पानी नहीं है। इतने पर भी सरकारों को लगता है कि इससे हमारा कुछ नहीं बिगड़ेगा, हम कहीं टैंकर से पानी ले आएंगे, कहीं पाइप लाइन डाल देंगे, फलां बांध से ले आएंगे-वगैरह-वगैरह।

ये सब हमारे तर्क हैं, इसलिए वापस मेघों की चाल पर लौटें। मेघों की चाल हमारी अपनी चाल के मुकाबले स्थिर रही है और उसका इतिहास लाखों साल का है। उसमें अगर उसने दायें-बायें एकाध कदम इधर-उधर कर दिया हो, तो हम उसको जो सवा सौ साल से औसत मानते हैं, उस तराजू पर तौलने पर एकबारगी लगेगा कि मेघों की चाल बदली है। बहुत से गांवों में, रेगिस्तान में भी, जहां बहुत कम पानी गिरता है, महज दो-दो से.मी., यानी 20 मि.मी. तक की बारिश के इलाके हैं। उसमें कई बार लोगों को अचानक बड़ा तालाब दिख जाता है और वह सूखा पड़ा होता है। नए लोग तो देखकर कहेंगे कि, 'अरे, यहां तो बेकार में इतना बड़ा तालाब बनाया, जबकि पानी तो गिरता ही नहीं है।' 

बीस इंच बरसातवाले इलाकों पर भी अब जरा ध्यान दीजिए। लापुड़िया, अजमेर, पुष्कर आदि ये सब ऐसे इलाके हैं जहां बीस इंच पानी गिरता है। इनमें बड़े तालाबों को देखकर हमारे विशेषज्ञ कहते हैं-'ऐसे तालाबों की यहां क्या जरूरत, ये तो चालीस इंचवाले इलाकों में होने चाहिए। यह भी कि लोगों ने यह तो ओवर डिजाइन किया (जिसे हम परंपरागत ज्ञान कहते हैं)। ये फालतू का काम किया, संसाधन बर्बाद कर दिया, इसमें तो इतना पानी भरेगा ही नहीं।' 

असल में उन्हें इसका अंदाजा नहीं है कि यहां के लोगों का नौ-दस साल के अंतराल का अनुभव था कि एक बार ऐसा भी वक्त आएगा जबकि बीस इंच के बदले अट्ठाइस, उनतीस, तीस या इकत्तीस इंच पानी भी गिर ही जाएगा। दरअसल, उस पानी को रोकने के लिए ही है वह। और फिर, उनके जब कभी बुरे दिन आएंगे, तो वह काम आएगा। सतह का पानी प्रयोग किया जाएगा, भूजल रिचार्ज होगा। तालाब तो फिर सूख जाएगा, लेकिन वह इतना कुछ नीचे जमा करके जाएगा गुल्लक में कि आनेवाले समय में फिर वैसे किसी ऊंचाईवाले दिन तक उनको खींचकर ले जाएगा। असल में मेघों की यह चाल देखकर ही हमारा समाज चलता था।

आजकल हमारा तरीका होता है कि हम एक फसल के इलाके को दो फसलवाला बनाते हैं, दो फसल को तीन फसलवाला बनाते हैं, लेकिन कई बार पता चलता है कि दुनिया के तमाम इलाकों में जहां तीन फसल थी वहां वापस दो हुईं और फिर दो से एक हो गई। कहीं दलदल हो गया, कहीं कुछ सेम आ गया, यानी जमीन के ऊपर नमक उभर आया। वास्तव में यह सब देखकर लगता है कि चाल हमारी बदली है, मेघों की नहीं बदली है। इस बात के लिए तो उन्हें धन्यवाद देना चाहिए और नतमस्तक होना चाहिए।

यह सवा सौ साल का अनुभव है और करोड़ों साल की बरसात है। हो सकता है उसमें हर सौ साल बाद पांच-छह-आठ साल का ऐसा उतार-चढ़ाव आता रहता होगा, जिसको अपन अब कह रहे हैं कि यह तो बदल गया। इसके लिए तो प्रकृति भी हंसती होगी कि-'यार! यह तो वही है जो मैं पिछले कुछ लाख साल से कर रही हूं। आखिर इसमें क्या दिक्कत है?' समझदार, विवेकवान समाज ऐसी स्थितियों की तैयारी करता है कि आज ज्यादा पानी गिरे तो हम उसको तो रोक ही सकें, पर कल कम पानी गिरे तो उसको भी रोक सकें। विद्वानों की एक शाखा है, जो कह रही है कि लगातार परिवर्तन हो रहा है। अगर उनसे तर्क कीजिए कि भई हिंदुस्तान में जितने इंच या सें.मी. पानी गिरता था, उसमें तो आज भी कोई अंतर नहीं है, तो उसको तो वे स्वीकार कर जाएंगे, लेकिन फिर वे कहेंगे कि इतना पहले छत्तीस दिन में गिरता था अब छब्बीस दिन में गिर जाता है। इसमें क्या आश्चर्य कि प्रकृति के कैलेंडर में सौ-सवा सौ साल बाद छत्तीस दिन के बदले छब्बीस दिन भी आ गया होगा कभी। 

अलनीनो नाम का एक शब्द अब फिर से आ रहा है अपने सामने। इस शब्द को शायद कोई उलट-पुलटकर देखने की जरूरत ही नहीं समझता कि यह क्या है? इसका अर्थ क्या है? यह हमसे कितनी दूर है? यह भी कि विज्ञान क्या कहता है और अलनीनो क्या कहता है? अलनीनो शब्द है बाइबिल के समय का। ईसाई धर्म से लिया गया है। इसका मतलब है-नटखट बच्चा। अपन बिलकुल हिंदुस्तानी में कहेंगे तो होगा-बाल-गोपाल, लड्डू गोपाल। अब वे किसकी गोद में पेशाब कर दें, किसका मक्खन चुरा लें, किसी को कुछ नहीं पता। भगवान मानो, प्रणाम करो और चलते बनो। तो, अलनीनो प्रशांत सागर में हमसे हजारों-हजार कि.मी. दूर है। वहां अगर एक छोटी-सी घटना ने कोई परिवर्तन किया, तो उससे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, एशिया, अफ्रीका-इन सबका मौसम बदल जाता है। ऐसे में यह सोचना चाहिए कि वास्तव में हमारी चाल क्या है और उसकी चाल क्या है?
(सुप्रसिद्ध गांधीवादी विचारक व पर्यावरणविद)

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