HOLI 2019: होली की कविताएं
होली के मौसम में मन महकने लगता है, तन हिलोरें लेने लगता है। यह ऐसा मोहक पर्व है कि अवतारी पुरुष भी इससे अछूते नहीं रहे। कान्हा बृज में होली खेलते हैं और राम अवध में, वहीं शिव तो श्मशान को ही रंग-भूमि...
होली के मौसम में मन महकने लगता है, तन हिलोरें लेने लगता है। यह ऐसा मोहक पर्व है कि अवतारी पुरुष भी इससे अछूते नहीं रहे। कान्हा बृज में होली खेलते हैं और राम अवध में, वहीं शिव तो श्मशान को ही रंग-भूमि बना लेते हैं। और उनकी इस होली को हमारे भक्त कवियों ने अपने वर्णन से लोक-मानस में ऐसा स्थापित कर दिया है कि लोक की होली, देवताओं की होली के उस गुणगान के बिना पूरी ही नहीं हो पाती। आधुनिक कवियों ने भी होली को अपने काव्य में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। रंगों के इस त्योहार पर प्रस्तुत हैं कुछ कविताएं:
खेलूंगी कभी न होली
(सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’)
खेलूंगी क भी न होली
उससे जो नहीं हमजोली।
यह आंख नहीं कुछ बोली,
यह हुई श्याम की तोली,
ऐसी भी रही ठठोली,
गाढ़े रेशम की चोली अपने से अपनी धो लो,
अपना घूंघट तुम खोलो,
अपनी ही बातें बोलो,
मैं बसी पराई टोली।
जिनसे होगा कुछ नाता,
उनसे रह लेगा माथा,
उनसे हैं जोड़ूं -जाता,
मैं मोल दूसरे मोली
साजन! होली आई है!
(फणीश्वर नाथ रेणु)
साजन! होली आई है!
सुख से हंसना
जी भर गाना
मस्ती से मन को बहलाना
पर्व हो गया आज साजन! होली आई है!
हंसाने हमको आई है!
साजन! होली आई है!
इसी बहाने
क्षण भर गा लें
दुखमय जीवन को बहला लें
ले मस्ती की आगसाजन! होली आई है!
जलाने जग को आई है!
साजन! होली आई है!
रंग उड़ाती
मधु बरसाती
कण-कण में यौवन बिखराती,
ऋतु वसंत का राज-
लेकर होली आई है!
जिलाने हमको आई है!
साजन! होली आई है!
खूनी और बर्बर
लड़कर-मरकर-मधकर नर-शोणित का सागर
पा न सका है आजसुधा वह हमने पाई है!
साजन! होली आई है!
साजन! होली आई है!
यौवन की जय!
जीवन की लय!
गूंज रहा है मोहक मधुमय
उड़ते रंग-गुलाल
मस्ती जग में छाई है
साजन! होली आई है!
होरी खेलत हैं गिरधारी
मीराबाई होरी खेलत हैं गिरधारी।
मुरली चंग बजत डफ न्यारो।
संग जुबती ब्रजनारी।।
चंदन के सर छिड़कत मोहन
अपने हाथ बिहारी।
भरि भरि मूठ गुलाल लाल संग
स्यामा प्राण पियारी।
गावत चार धमार राग तहं
दै दै कल करतारी।।
फाग जु खेलत रसिक सांवरो
बाढ्यौ रस ब्रज भारी।
मीरा कूं प्रभु गिरधर मिलिया
मोहनलाल बिहारी।।
होली
(हरिवंशराय बच्चन)
यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,
आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो!
निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,
आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!
प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफ लता जीवन की,
जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
गुलाल की मूठ
(अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’)
खेलने होली आई आज,
न जाना होगा ऐसा खेल;
न थी जिससे मिलने की चाह ,
हो गया उससे कैसे मेल?
लालिमा आंखों की जो बना,
ललक उससे क्यों सकती रूठ ;
लाल ने मूठी में कर लिया,
चला करके गुलाल की मूठ।