HOLI 2019: होली पर पढ़ें यह करुणापूर्ण कहानी
‘झांसी की रानी’ जैसी वीर रस की कविता रचने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान के रचना संसार में कई रंग हैं। उनकी रचनाओं में ओज है, तो करुणा और माधुर्य भी। ‘हींगवाला’ कहानी और...
‘झांसी की रानी’ जैसी वीर रस की कविता रचने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान के रचना संसार में कई रंग हैं। उनकी रचनाओं में ओज है, तो करुणा और माधुर्य भी। ‘हींगवाला’ कहानी और ‘कदंब का पेड़’ कविता इसके उदाहरण हैं। होली के मौके होली पर प्रस्तुत है उनकी एक करुणापूर्ण कहानी
‘कल होली है ।’
‘होगी।’
‘क्या तुम न मनाओगी?’
‘नहीं।’
‘नहीं?’
‘न।’
‘क्यों?’
‘क्या बताऊं क्यों?’
‘आखिर कुछ सुनूं भी तो।’
‘सुनकर क्या करोगे?’
‘जो करते बनेगा।’
‘तुमसे कुछ भी न बनेगा।’
‘तो भी।’
‘तो भी क्या कहूं ? क्या तुम नहीं जानते होली या कोई
भी त्योहार वही मनाता है जो सुखी है। जिसके जीवन में
किसी प्रकार का सुख ही नहीं, वह त्योहार भला किस
बिरते पर मनावे?’
‘तो क्या तुमसे होली खेलने न आऊं ?’
‘क्या करोगे आकर?’
सकरुण दृष्टि से करुणा की ओर देखते हुए नरेश
साइकिल उठाकर घर चल दिया। करुणा अपने घर के
काम-काज में लग गई।
(2)
नरेश के जाने के आधे घंटे बाद ही करुणा के पति जगत प्रसाद ने घर में प्रवेश कि या। उ नकी आंखें लाल थीं। मुंह से तेज शराब की बू आ रही थी।
जलती हुई सिगरेट को एक ओर फें क ते हुए वे कुर्सी खींचकर बैठ गए। भयभीत हि रनी की तरह पति की ओर देखते हुए क रु णा ने पूछा,‘दो दिन तक घर नहीं आए, क्या कु छ तबीयत खराब थी? यदि न आया क रो तो खबर तो भिजवा दिया क रो। मैं प्रतीक्षा में ही बैठी रह ती हूं ।’
उन्होंने करुणा की बातों पर कु छ भी ध्यान न दिया। जेब से रु पए निकाल क र मेज पर ढेर लगाते हुए बोले, ‘पंडि तानी जी की तरह रोज ही सीख दिया क रती हो कि जुआ न खेलो, शराब न पियो, यह न क रो, वह न क रो। यदि मैं जुआ न खेलता तो आज मुझे इतने रु पए इकट्ठे
क हां से मिल जाते? देखो पूरे पंद्रह सौ हैं। लो, इन्हें उठाकर रखो, पर मुझ से बिना पूछे इसमें से एक पाई भी न खर्च करना। समझीं?’
करुणा जुए में जीते हुए रु पयों को मिट्टी समझती थी। गरीबी से दिन काट ना उ से स्वीकार था। परंतु चरित्र को भ्रष्ट क रके धनवान बनना उ से प्रिय न था। वह जगत प्रसाद से बहुत डरती थी इसलिए अपने स्वतंत्र विचार वह क भी भी प्रकट न कर सकती थी। उसे इसका अनुभव कई बार हो चुका था।
अपने स्वतंत्र विचार प्रकट करने के लिए उसे कितना अपमान, कितनी लांछना और कितना तिरस्कार सहना पड़ा था। यही कारण था कि आज भी वह अपने विचारों को अंदर ही अंदर दबाकर दबी हुई जबान से बोली, ‘रुपया उठाकर तुम्हीं न रख दो? मेरे हाथ तो आटे में भिड़े हैं।’
करु णा की इस इनकारी से जगत प्रसाद क्रोध से तिलमिला उठे और कड़ी आवाज से पूछा, ‘क्या कहा?’ करुणा कुछ न बोली नीची नजर किए हुए आटा सानती रही। इस चुप्पी से जगत प्रसाद का पारा एक सौ दस डि ग्री पर पहुंच गया। क्रोध के आवेश में रुपए उठाकर उन्होंने फिर जेब में रख लिए। ‘यह तो मैं जानता ही था कि तुम यही करोगी। मैं तो समझा था इन दो-तीन दिनों में तुम्हारा दिमाग ठिकाने आ गया होगा। ऊट -पटांग बातें भूल गई होगी और कुछ अकल आ गई होगी। परंतु सोचना व्यर्थ था। तुम्हें अपनी विद्वता का घमंड है तो मुझे भी कुछ है । लो! जाता हूं अब रह ना सुख से।’ कहते कहते जगत प्रसाद कमरे से बाहर निकलने लगे।
पीछे से दौड़कर करुणा ने उनके कोट का सिरा पकड़ लिया और विनीत स्वर में बोली, ‘रोटी तो खालो, मैं रुपए रखे लेती हूं। क्यों नाराज होते हो?’ एक जोर के झटके के साथ कोट को छुड़ाकर जगत प्रसाद चल दिए। झटका लगने से करुणा पत्थर पर गिर पड़ी और सिर फट गया। खून की धारा बह चली और सारी जैकेट लाल हो गई।
(3)
संध्या का समय था। पास ही बाबू भगवती प्रसाद जी के सामने वाली चौक से सुरीली आवाज आ रही थी। ‘होली कै से मनाऊं?’‘सैया बिदेस, मैं द्वारे ठाढ़ी, क र मल मल पछ ताऊं ।’ होली के दीवाने भंग के नशे में चूर थे। गानेवाली नर्तकी पर रु पयों की बौछार हो रही थी। जगत प्रसाद को अपनी दुखिया पत्नी का ख्याल भी न था। रुपया बरसाने वालों में उन्हीं का सबसे पहला नंबर था। इधर करुणा भूखी-प्यासी छटपटाती हुई चारपाई पर करवटें बदल रही थी। ‘भाभी, दरवाजा खोलो’, किसी ने बाहर से आवाज दी। करुणा ने कष्ट के साथ उठकर दरवाजा खोल दिया। देखा तो सामने रंग की पिचकारी लिए हुए नरेश खड़ा था। हाथ से पिचकारी छूटकर गिर पड़ी। उसने पूछा, ‘भाभी यह क्या?’ करुणा की आंखें छलछला आईं, उसने रूंधे हुए कंठ से कहा, ‘यही तो मेरी होली है , भैया।’