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हे मेरे मन के मेघ

कल आकाश में बादल घिर आए। ठंडी हवा भी चलने लगी, लगा कि आज रात मेघ जम के बरसेगा। मैंने सोचा बारिश की रिमझिम फुहारों को देखते हुए दो-चार फड़कती हुई कविताएं लिखूंगी। कलम और सादे कागज मैंने पहले से संभालकर...

हे मेरे मन के मेघ
पद्माशा झाThu, 06 Aug 2020 12:03 PM
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कल आकाश में बादल घिर आए। ठंडी हवा भी चलने लगी, लगा कि आज रात मेघ जम के बरसेगा। मैंने सोचा बारिश की रिमझिम फुहारों को देखते हुए दो-चार फड़कती हुई कविताएं लिखूंगी। कलम और सादे कागज मैंने पहले से संभालकर सिरहाने रख लिए, ताकि मन में भाव आते ही दनादन लिखना शुरू कर दूं। कई बार ऐसा होता है कि जब मन में काव्य भावनाओं का ज्वार उठता है, तो कलम ढूंढ़ने लगते हैं, जब तक कोई टूटी-फूटी कलम हाथ लगती है, कविता दिमाग से कपूर की तरह उड़ जाती है। सो मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी, पर मेघ नहीं बरसा-दो नंबरी प्रेमी की तरह चुपचाप खिसक लिया। आकाश में फिर से गर्म-गर्म तारे टिमटिमाने लगे। 
पता नहीं क्यों मेघ के बारे में कालिदास के मेघदूत से लेकर आधुनिक कवियों के बीच विभिन्न धाराणाएं हैं। आम लोगों की भी अपनी धाराणाएं हैं, पर अधिकतर लोगों को मेघ से कुछ शिकायत रहती है। पहले बरसो तो बुरा कहेंगे, खेत में पकी फसलें बरबाद हो गईं, बाद में बरसो तो कहेंगे-‘का बरखा जब कृषि सुखानी।’ और ‘गरजत-बरसत सावन आयो  री, सखि, लायो ना संग में हमरे बिछुड़े सजनवा को...,’ अब पूछिए, देवीजी ने क्या हवाई टिकट या ट्रेन टिकट भेजा था कि सावन इनके बलम को ले आता? 
इधर कवियों का तो ये हाल है कि मेघ का मौसम न हो तो उनकी काव्य भावना की फसल सूख जाएगी। अब बादल घुमडे़ंगे तो मन में कुछ उमडे़गा, ठंडी बयार और वर्षा की फुहारें मन में शुष्क कोने को भिगोएंगी, तो शब्दों में स्वत: धरती जैसी हरीतिमा आ जाएगी। मेघ से सबसे ज्यादा शिकायत सदियों से विरह ज्वाला में तड़पती नायिकाओं को होती है-
‘रिमझिम रिमझिम मेघा बरसे
तरसे जियरवा मीन समान ।’
अब यह कैसा विरोधाभास है कि झमाझम बारिश हो रही है और किसी के वियोग में मन, मछली की तरह तड़प रहा है। कोई ऋषि-मुनि ही बता सकते हैं कि इसमें मेघ का क्या कसूर है-‘पानी बिच मीन पियासी रे।’
स्कूल के दिनों में संगीत के गुरुजी हम लोगों को हारमोनियम पर एक गीत सिखाया करते थे। 
‘सखि हे श्याम नहीं घर आए। 
सावन बीतो जाए ना...’
उस किशोर वय में भी मुझे पता नहीं घोर आश्चर्य होता था कि ये गोपियां श्याम को सावन में ही क्यों बुलाती थीं, आश्विन या जेठ के महीने में भी बुला सकती थीं। अब ये भी क्या बात हुई कि सावन में न आने के कारण वे इतना रोए जा रही हैं और बेचारे श्याम को निष्ठुर, छलिया और जाने क्या-क्या बुरा-भला कह रही हैं? हो सकता है श्याम को सावन में आने की छुट्टी न मिली हो, यशोदा जी ने उन्हें गंैया चराने के अलावा और भी बड़े विभाग सौंप दिए हों और  वे उसी को निपटाने में व्यस्त हो गए हों। लेकिन नहीं, गोपियों को इतना धैर्य और समझदारी कहां? उन्होंने तो सारा संसार सिर पर उठा लिया और भरी बरसात में लगीं विरह की ज्वाला में जलने। अब मेघ भी क्या करे? चाहे जितना बरसे सावन, श्याम बिन यह ज्वाला तो बुझने से रही। 
हां तो मैं सोच रही थी कि रिसर्च कराने के लिए यह  विषय बहुत बढ़िया साबित हो सकता है-ओ मेघा रिमझिम की फुहारों के साथ प्रिय  की याद क्यों आती है? मेघ का दिल से कुछ तो खास संबंध है-जिस पर डी.लिट. की डिग्री हेतु शोध कार्य कराया जा सकता है। 
रिसर्च कराने के लिए आजकल विषयों का वैसे भी अभाव है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का निर्देश आया है कि शोध के विषय बिल्कुल मौलिक और नए होने चाहिए, तभी वह अनुदान देगा,और बिना अनुदान राशि के शोध-पत्र छपेगा कैसे? अब वह जमाना गया जब प्रोफेसर भाई लोग गांंधी, नेहरू, पटेल पर रिसर्च करवाकर अपने शोध छात्रों को पी.एच.डी. डिग्री दिलाने का श्रेय ले लेते थे।  अब आयोग की नजर में नेहरू, गांधी, पटेल, पुराने हो गए। इसी बीच में महिलाओं की दशा पर रिसर्च कराने का अभियान भी चला, किंतु रिसर्च स्कॉलर बंधु महिलाओं की घिसी-पिटी समस्याओं से बोर होकर कन्नी काटने लगे। सो यह मेघ विषय चल निकलेगा। जितनी बूंद उतनी बातें। चाहे मधुमालती की पंखुड़ियों पर लरजती हुई बूंदें होें या गरीब की झोपड़ी पर कहर बरसाती हुई बूंदें।  
सो मैं इसके इतिहास पर रिसर्च कराऊंगी, मसलन मेघा बरसने पर प्रिय मिलन का इतिहास वगैरह-वगैरह ‘गरजत-बरसत सावन आयो री, सखी लायो न संग में हमरे बिछुड़े सजनवा को...’, तो लब्बो-लुआब यह कि बिछुड़े हुए सजन को बादलोंभरे मौसम में आना होगा, वरना।
कल रात मैं सो रही थी, मेरी खिड़की से बादलोंभरा आकाश दिख रहा था। ठंडी हवा और झमाझम बारिश हो रही थी। 
हे मेघ आज मेरे मन के 
शुष्क रेगिस्तान में इतना
बरसो कि मैं उस सैलाब में डूब जाऊं। 
मेरी नींद हठात् खुल गई और मैंने बाल्कनी खोली, तो गर्म हवा का एक झोंका कमरे के भीतर फिल्मी विलेन की तरह प्रवेश कर गया। अखबार में पढ़ा था कि मानसून देर से आएगा, अभी मेघ केरल के चक्कर लगा रहा है। 
मेघ भी कभी-कभी दलबदलू नेता की तरह कमाल करता है और उसी पर टिका रहता है, मानसून का भविष्य। 
अब जरा गौर कीजिए-जब यूपीए का जलवा था, तो भंवरे की तरह ये दलबदलू  नेता सोनियाजी  के आसपास मंडराते थे, अभी एनडीए  का कब्जा है तो सभी में लगभग यह होड़-सी लगी है कि कौन अपने शीरीं ज़ुबां से मोदीजी को रिझा सकता है। इसी पर टिका है देश का भविष्य। सो अभी मेघ का झमाझम बरसना जारी ही हुआ है, वह केरल को भिगो रहा है तो उत्तर भारत को भी सराबोर करेगा ही, और हर साल की तरह भीषण बाढ़ भी आएगी जिसमें गरीबों की झोपड़ियों, गाय-बैल, बकरी सहित सबकुछ बह जाएंगे। हर साल की तरह हेलीकॉप्टरों से मंत्रीगण बाढ़ की विभीषिका का नजारा देखेंगे। हेलीकॉप्टर से मुट्ठीभर अनाज के दाने, दो-चार पैकेट मोमबत्ती और माचिस की डिब्बियांं, पानी के पॉलीथिन इत्यादि नीचे फेंके जाएंगे जो पेड़ों पर शरण लिए पीड़ितों के बजाय नीचे बहते पानी के करंट में बह जाएंगे और समाचार-पत्रों में र्सुिखयों में छपेंगे मंत्रियों के नाम और राहत सामग्री की लंबी-चौड़ी सूची-भाग्यवान हैं इस देश के लोग।
सुदूर गांव की एक गरीब औरत बोलती है- ‘‘हे प्रिय, मेघा को बरसने से रोको, नहीं तो चारों तरफ बाढ़ आ जाएगी और मेरी छोटी-सी झोपड़ी डूब जाएगी।’’ तो मेघ को लेकर अपना-अपना दर्द है। 

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

 

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