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शोक किसके लिए...

सत्य वह है, जिसका कभी नाश नहीं होता। अविनाशी तो वह है, जिससे यह सारा जगत् व्याप्त है।...’’ कृष्ण बोले, ‘‘व्याप्त क्या है। वही, यह सब कुछ बनकर हमारे चर्म चक्षुओं के सम्मुख...

शोक किसके लिए...
नरेंद्र कोहलीThu, 04 Jun 2020 05:43 PM
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सत्य वह है, जिसका कभी नाश नहीं होता। अविनाशी तो वह है, जिससे यह सारा जगत् व्याप्त है।...’’ कृष्ण बोले, ‘‘व्याप्त क्या है। वही, यह सब कुछ बनकर हमारे चर्म चक्षुओं के सम्मुख विद्यमान है। उस अव्यय का कभी नाश नहीं होता। इसलिए तुम सृष्टि के विनाश का भय अपने मन से निकाल दो।’’
‘‘हमारे इस युद्ध की चर्चा में वह अव्यय कहां से आ गया?’’ अर्जुन कुछ खीझकर बोला।
‘‘जिन लोगों के वध की बात सोचकर तुम इस प्रकार जड़ हो गए हो, वे शरीर हैं: और शरीर किसी का भी हो, वह नश्वर है।’’ कृष्ण बोले, ‘‘यह शरीर उस अविनाशी, अप्रमेय, नित्य आत्मा का चोला है। चोला नाशवान ही होता है। वह घिसेगा भी, फटेगा भी, नष्ट भी होगा। उस चोले की चिंता कर, किसी प्रकार का मोह न करो, नहीं तो तुम भी अधर्म के पक्ष में खड़े दिखाई पड़ोगे। तुम युद्ध करो।...’’
‘‘केशव !...’’ अर्जुन ने कुछ कहना चाहा।
‘‘मेरी बात सुनो।’’ कृष्ण ने कुछ बलपूर्वक कहा, ‘‘मैंने कहा, ‘सत् का कभी अभाव नहीं होता।’ कितने युद्ध हो जाएं। कितने शरीर धराशायी हो जाएं। कितना रक्तपात हो जाए। प्रलय हो जाए; किंतु सत् का अभाव नहीं होगा। और यह भी कहा मैंने कि ‘असत् का कभी भाव नहीं होता।’ कितना बचा लो मनुष्य के शरीर रूपी इस चोले को, वह बच नहीं पाएगा। उसे प्रकृति में समा ही जाना है। और अंतत: तो सारी प्रकृति उस ब्रह्म में समा जाएगी। उस ब्रह्म में, जो सत्य है। इसलिए ब्रह्म के प्रतिनिधि, ब्रह्म को जानने वाले, उसका साक्षात्कार और अनुभव करने वाले, यह मानते हैं़.़.’’
‘‘क्या मानते हैं?’’
‘‘आत्मा का न वध हो सकता है, न आत्मा किसी का वध करती है। इस आत्मा को जो हत्यारा समझता है, अथवा जो इस आत्मा को हत मानता है, वे दोनों ही सत्य को नहीं जानते। वे अपनी इंद्रियों के ज्ञान तक सीमित हैं।...’’
‘‘क्या?’’
‘‘आत्मा न किसी को मारती है, न किसी के द्वारा मारी जा सकती है।’’ कृष्ण का अलौकिक स्वर अर्जुन को बांधता जा रहा था, ‘‘यह शरीर जिस आत्मा का चोला है, वह आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, न नई होती है, न पुरानी होती है। अनस्तित्व की स्थिति आत्मा के लिए नहीं है। इसलिए अस्तित्व में आना और फिर अस्तित्व का नष्ट होना, आत्मा के साथ संभव नहीं है। आत्मा अज है, नित्य है, शाश्वत है।’’
‘‘मैं समझा नहीं।’’
‘‘जैसे वस्त्र के फट जाने पर भी शरीर नष्ट नहीं होता। वैसे ही शरीर के निर्जीव होने पर, आत्मा नष्ट नहीं होती।’’
‘‘वस्त्र के फट जाने पर शरीर चाहे नष्ट नहीं  होता; किंतु शरीर को खरोंच लग सकती है। रक्त बहता है। चोट खाता है शरीर। पीड़ा होती है उसे।’’ अर्जुन बोला।
‘‘आत्मा के साथ यह सब भी नहीं होता; क्योंकि आत्मा अविकारी है।’’
 ‘‘मेरे पास तो इसका कोई प्रमाण नहीं है।’’ अर्जुन बोला, ‘‘सखा, मैं तुम्हारी बात का विश्वास कैसे करूं? केवल इसलिए कि तुम कह रहे हो? केवल मैत्री के नाम पर?’’
‘‘जो शरीर समय आने पर नष्ट हो जाता है, वह अपने पश्चात् भी बने रहने वाली आत्मा को कैसे जानेगा? तुम नहीं जानते, अर्थात् तुम्हारे नश्वर शरीर में स्थित तुम्हारा चित्त उस अमर आत्मा को नहीं जानता। वह केवल बाहरी आवरण है। वह अपने भीतर सुरक्षित उस महान तत्त्व को नहीं जानता। तुम स्वयं को यह शरीर मात्र मानते हो?’’
‘‘मैंने अपने शरीर को अपनी आत्मा से पृथक् कर कभी देखा ही नहीं; मैं तो इस शरीर को ही ‘मैं’ मानता हूं। अपना आपा मानता हूं... क्या शरीर और आत्मा को पृथक् कर देखना संभव है?’’
‘‘संभव क्यों नहीं। आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् आत्मा शरीर को स्वयं से पृथक् देखती ही नहीं, जानती और मानती भी है। इस संसार में इस प्रकार के सहस्रों उदाहरण हैं।’’ 
‘‘किंतु प्रमाण?’’
‘‘चलो, ऐसे समझो : तुम्हारी अपनी मृत्यु से पहले तुम्हारे पास क्या प्रमाण है कि तुम्हारे प्राण तुम्हारा यह शरीर त्याग जाएंगे?’’ कृष्ण बोले, ‘‘फिर भी तुम जानते हो कि यह होगा।’’
अर्जुन उनकी ओर देखता रह गया।   
‘‘वृक्ष पहले बीज में था। बीज फल में था। फल, वृक्ष में था। बीज में से प्रस्फुटित होने से पहले और कटकर काठ मात्र हो जाने के मध्य के काल में वह वृक्ष था। उससे पहले भी वह वृक्ष नहीं था और उसके बाद भी वह वृक्ष नहीं रहा। वैसे ही मनुष्य, जन्म से पहले और मृत्यु के पश्चात् कहां होता है?’’
‘‘यह क्या?’’
‘‘जब तक तुम्हें आत्म का साक्षात्कार नहीं हो जाता, तब तक तुम्हारे लिए मेरे वचन ही प्रमाण हैं। शास्त्र, गुरु और कोई भी आप्त वचन प्रमाण हैं। यह अहंकार मत पालो कि जिसका तुमको अनुभव नहीं है, वह सत्य है ही नहीं।’’ कृष्ण हंसे, ‘‘जो इस आत्मा को अविनाशी, नित्य, अजन्मी और अनश्वर जानता है पार्थ, वह पुरुष किसी अनश्वर की हत्या कैसे कर सकता है, या उसकी अनश्वर आत्मा किसी के द्वारा कैसे मारी जा सकती है। जो हत्या करता है, और जिसकी हत्या होती है, वह शरीर तो असत् है, उसे तो मरना ही है, किसी बहाने से मरे; क्योंकि असत् का कभी भाव नहीं होता। जो नहीं है, वह हो नहीं सकता; और जो है, वह रहेगा ही, समाप्त नहीं हो सकता।’’
‘‘पर मैं...’’
‘‘हां, तुम इस अविनाशी आत्मा  को नहीं जानते।’’ कृष्ण बोले, ‘‘किंतु तुमने स्वयं को मेरा शिष्य माना है, इसलिए मेरी बात मानो। जैसे   मनुष्य पुराने फटे हुए कपड़ों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने जीर्ण     शरीर का त्याग कर, नया शरीर धारण करती है।’’
‘‘आत्मा क्या सचमुच नष्ट नहीं होती?’’ अर्जुन ने कुछ चकित भाव से पूछा।
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‘‘सब बहलाने की बातें हैं।’’ धृतराष्ट्र ने जैसे अपने-आप से कहा; किंतु  था वह संजय को सुनाने के लिए।
‘‘आप इस प्रकार कैसे कह सकते हैं?’’ संजय ने कहा।
‘‘तुम कैसे कह सकते हो कि आत्मा नामक कोई पदार्थ है और वह अमर है? वह मरती नहीं, जन्मती नहीं।’’ धृतराष्ट्र ने कुछ ठसक से कहा, ‘‘वैसे सैनिक को युद्ध के लिए तैयार करने के लिए, उसमें लड़ने की इच्छा उत्पन्न करने के लिए यह अच्छा तर्क है। नहीं तो कोई लड़ेगा कैसे? क्या मनोरम बात है कि कोई मरता नहीं और कोई किसी को मारता नहीं। कृष्ण ने सबको मुक्त कर दिया, पाप से भी और अपराध से भी।’’
लग रहा था कि धृतराष्ट्र जोर से ठहाका मारकर हंसने की तैयारी कर रहा था। 
‘‘कृष्ण ने यह नहीं कहा कि कोई मरता नहीं और कोई किसी को मारता नहीं।’’ संजय का विरोध कुछ आक्रामक था।
‘‘संजय ठीक कह रहा है।’’ गांधारी ने कहा।
‘‘अभी संजय ने ही तो ऐसा कहा।’’ धृतराष्ट्र ने तड़प कर कहा। 
‘‘उन्होंने कहा, जो अनश्वर आत्मा को जानता है, वह न मरता है, न किसी को मारता है; क्योंकि वह जानता है कि आत्मा न मरती है, न मारती है। वह आत्मा को जान लेने के बाद की स्थिति है।’’
‘‘दोनों बातों में कोई अंतर है क्या?’’
‘‘आकाश-पाताल का अंतर है।’’ संजय ने कहा, ‘‘साधारण व्यक्ति क्षुर से किसी के शरीर को चीरता है, तो वह उसे नष्ट करने के लिए ऐसा कर रहा है; किंतु शल्य चिकित्सक रोग को शरीर से निकालने के लिए शरीर को चीरता है। वह शरीर को स्वस्थ भी कर देता है। दोनों में कोई अंतर ही नहीं है? अंतर ज्ञान और अज्ञान का है।’’ संजय ने कहा, ‘‘कुरुक्षेत्र में युद्ध कर रहे योद्धा और उनके शल्य चिकित्सक शरीर के साथ एक ही जैसा व्यवहार कर रहे हैं; किंतु कितना अंतर है, दोनों के लक्ष्यों और दोनों के परिणामों में।’’ 
‘‘कृष्ण ने भी अर्जुन के प्रश्न का यही उत्तर दिया था क्या, जो तुम मुझे सुना रहे हो?’’
‘‘नहीं। कृष्ण ने कहा था...’’
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‘‘शरीर जिन तत्त्वों से बना है, वे ही उसके नाश के कारण बनते हैं। वे तत्त्व मिलते हैं तो शरीर का निर्माण होता है। वे पृथक् हो जाते हैं तो शरीर नष्ट हो जाता है। नाशवान है शरीर और उसको नष्ट करने वाले अनेक उपकरण हैं; किंतु शरीर को नष्ट करने वाला कोई भी उपकरण आत्मा को नष्ट नहीं कर सकता।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘न शस्त्र आत्मा को काट सकता है; न अग्नि उसको जला सकती है; न पानी उसको गला सकता है, और न पवन इसको सोख सकता है। पवन निर्जलित नहीं कर सकता उसे।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि आत्मा को प्रकृति ने नहीं बनाया है; और न ही वह भौतिक नियमों से संचालित और नियंत्रित कोई पदार्थ है। वस्तुत: वह प्रकृति की स्वामिनी है।’’ कृष्ण ने कहा।
‘‘तो? प्रकृति के नियमों से मुक्त है वह?’’ अर्जुन चकित था, ‘‘प्रकृति की बंदिनी नहीं है वह?’’
‘‘नहीं। वह प्रकृति की बंदिनी नहीं है।’’ कृष्ण बोले। 
‘‘आत्मा इस शरीर की बंदिनी नहीं है क्या? यह शरीर प्रकृति का बनाया हुआ नहीं है?’’ 
‘‘वह प्रकृति की बंदिनी नहीं है। उसने अपनी कामना से, अपनी इच्छा से, अपनी आज्ञा से यह शरीर ओढ़ अवश्य रखा है, जैसे तुम्हारे शरीर ने ये वस्त्र ओढ़ रखे हैं, किंतु आत्मा न प्रकृति द्वारा निर्मित है, न वह प्रकृति द्वारा नियंत्रित है।’’ कृष्ण बोले, ‘‘इसीलिए वह प्रकृति द्वारा नष्ट भी नहीं की जा सकती। वह अच्छेद्य है, अदाह्य है, अक्लेद्य है, अशोष्य है। वह नित्य है, सर्वगत, स्थाणु, अचल और सनातन है। यह अव्यक्त, अचिंत्य, और अविकारी है। यदि उसे जान लो तो उसकी चिंता की आवश्यकता नहीं है।’’
‘‘मैं आत्मा को नहीं जानता, शरीर को ही जानता हूं।’’ अर्जुन बोला।
‘‘शरीर को जन्म लेते भी देखा है; और मरते भी; किंतु क्या उसी शरीर को बार-बार जन्म लेते   देखा है?’’
‘‘वही शरीर पुनर्जन्म कैसे लेगा?’’ अर्जुन बोला, ‘‘उसका तो दाह कर दिया जाता है। भस्म हो जाता है वह।’’
‘‘मैंने भी नहीं कहा कि वही शरीर पुनर्जन्म लेता है। मैंने तो कहा, आत्मा को नया चोला मिलता है। पुनर्जन्म का अर्थ ही है कि वही आत्मा नया शरीर धारण करती है। आत्मा वही है, किंतु शरीर नया है।’’ कृष्ण पूर्णत: शांत थे।
‘‘मैं आत्मा को पृथक् से नहीं जानता, केवल शरीर को जानता हूं।’’ अर्जुन बोला, ‘‘मैं शरीर और आत्मा को संयुक्त मानता हूं। शरीर जन्म लेता है, तो आत्मा उसमें विद्यमान होती है। आत्मा शरीर का ही अंग है। इसलिए जब शरीर मरता है तो उसके साथ आत्मा भी मर जाती है।’’
‘‘चलो मात्र तर्क के लिए, यदि तुम यह मानो कि शरीर के समान ही इस आत्मा का भी बार-बार जन्म होता है और बार-बार मृत्यु होती है, तो भी यह तुम्हारे लिए शोक का कारण नहीं होना चाहिए।’’
‘‘क्यों? क्यों नहीं होना चाहिए?’’
‘‘क्योंकि तुम प्रकृति के नियमों को बदल नहीं सकते।’’
‘‘तो?’’
‘‘प्रकृति का नियम है कि जिस शरीर ने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अनिवार्य है।’’ कृष्ण बोले, ‘‘आज तक एक भी उदाहरण ऐसा है कि जिसने जन्म लिया हो, उसकी मृत्यु न हुई हो?’’
‘‘नहीं। जो पैदा हुआ है, वह मरेगा भी। कहीं कोई अपवाद नहीं है।’’ अर्जुन ने स्वीकार किया। 
‘‘वस्तुत: शरीर भी पैदा नहीं होता, मां के गर्भ में उसका निर्माण होता है। अत: उसका विनाश अनिवार्य है।’’ कृष्ण बोले, ‘‘निर्माण का अर्थ है विभिन्न तत्त्वों का संगठन। वे तत्त्व सदा संगठित नहीं रहते। जिसका संगठन होता है, उसका विघटन भी होता ही है। कोई संगठन चिरस्थायी नहीं है। अत: जन्म के साथ मृत्यु अवश्यंभावी है। जन्म के समय से ही मृत्यु इस शरीर में निवास करती है।  सहमत हो?’’
‘‘सहमत हूं।’’
‘‘तो फिर उस अपरिहार्य के लिए तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। किसी को भी शोक नहीं करना चाहिए।’’ कृष्ण बोले, ‘‘किंतु आत्मा को जानने वालों का कहना है कि आत्मा अपनी कामना से शरीर अंगीकार करती है। अत: मृत्यु का अर्थ है, आत्मा द्वारा अंगीकार किए गए एक शरीर का त्याग, नाश, उसका विघटन। उस स्थिति में आत्मा के लिए दूसरा शरीर अनिवार्य है। आत्मा अपने लिए दूसरे शरीर का निर्माण करेगी ही। उसे दूसरा शरीर मिलेगा ही।’’ कृष्ण मुस्करा रहे थे, ‘‘उसे ही पुनर्जन्म कहते हैं। जिस प्रकार जन्म के बाद मृत्यु अपरिहार्य है; उसी प्रकार मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म अवश्यंभावी है।’’
‘‘पर मैं उसे एक शरीर से दूसरे शरीर में आता-जाता देख तो नहीं पाता।’’ अर्जुन अब भी कृष्ण के सिद्धांत को स्वीकार नहीं कर पा रहा था।
‘‘आरंभ में, शरीर के जन्म से पहले, यह आत्मा, हमारे चर्म-चक्षुओं के लिए, अव्यक्त होती है।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘मध्य में शरीरावृत होकर व्यक्त होती है। शरीर के नष्ट होते ही वह फिर अव्यक्त हो जाती है। ऐसे में उसे एक शरीर से दूसरे शरीर में आते-जाते कैसे देख सकते हो; और प्राणियों के उन चोलों के विषय में शोक भी क्या करना।’’
‘‘विचित्र बात है।’’
‘‘हां। विचित्र तो है ही। ...’’
‘‘किंतु मेरा धर्म...’’
‘‘अपने धर्म को देखते हुए भी तुम्हें युद्ध में संकोच नहीं करना चाहिए। क्षत्रियों के लिए धर्मसंगत युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है। धर्म-स्थापना का प्रथम सोपान दुष्ट-दलन ही तो है। दुष्ट-दलन से भागना कायरता है। क्षत्रिय अपने प्राणों पर संकट झेल कर धर्म की स्थापना करता है। असहायों को न्याय दिलाता है। कभी-कभी अपने प्राण भी दे देता है।’’ कृष्ण ने अर्जुन की आंखों में देखा, ‘‘तुम्हारे लिए स्वत: प्राप्त हुआ धर्म-युद्ध का यह अवसर, खुला हुआ स्वर्ग-द्वार है। इस प्रकार का अवसर भाग्यवान क्षत्रिय ही पाते हैं।’’
‘‘किंतु...’’
‘‘अब यदि तुम यह धर्म-युद्ध नहीं करोगे, तो अपने धर्म और कीर्ति का नाश कर पाप को प्राप्त होगे। लोग अनंत काल तक तुम्हारी निंदा करेंगे।...स्वाभिमानी लोगों के लिए अपयश, मृत्यु से भी अधिक कष्टदायी है। और मेरा विचार है कि तुममें स्वाभिमान अभी वर्तमान है।’’ कृष्ण हंस पड़े, ‘‘एक बात और बता दूं। हस्तिनापुर में शांतिदूत का कार्य कर जब मैं लौट रहा था तो कुंती बुआ से मिलने भी गया था। उन्होंने मुझे धर्मराज के लिए जो संदेश दिया था, वह तुम्हें भी सुना देता हूं।...’’
‘‘क्या कहा था मां ने?’’
‘‘ उन्होंने कहा था’’ कृष्ण बोले, ‘‘मेरे युधिष्ठिर से कहना कि वह धर्मराज है, इसलिए वह धर्म की रट ही न  लगाए, उसे समझने का प्रयत्न भी करे। वेद के अर्थ को न जानने वाले अज्ञ वेदपाठी की सारी बुद्धि केवल मंत्रों की आवृत्ति में ही नष्ट हो जाती है, वैसे ही युधिष्ठिर की बुद्धि केवल शांति को बना रखने में ही नष्ट हो रही है। वैश्य का धर्म केवल शांति तक सीमित रहना है, किंतु क्षत्रिय का धर्म युद्धक्षेत्र तक भी जाता है। युधिष्ठिर शांति-धर्म का पालन कर रहा है, और प्रजापालन रूपी धर्म की हानि कर रहा है। प्रजापालन के लिए युद्ध रूपी कठोर धर्म का भी निर्वाह करना पड़ता है। राजा दंड-नीति के प्रयोग में पूर्णत: न्याय से काम लेता है, जो जगत् में ‘सत्य युग’ नामक उत्तम काल का आविर्भाव होता है। राजा का कारण काल है, अथवा काल का कारण राजा है-ऐसा संदेह मन में नहीं उठना चाहिए। राजा ही काल का कारण है। केशव! उससे कहना कि वह राजाओं तथा राजर्षियों का आचरण करे। यद्यपि कांपिल्य में छद्म वेश में पांडवों ने भिक्षाटन भी किया है, किंतु भिक्षा का उसे निषेध है, कृषि भी उसके योग्य नहीं है। वह तो प्रजा को क्षति से त्राण देने वाला क्षत्रिय है। उसे वैसा ही आचरण करना चाहिए। वह साम, दाम, दंड, भेद से किसी भी प्रकार अपने पैतृक राज्य का उद्धार करे। अपने बाहुबल से आजीविका अर्जित करे। राजधर्म के अनुसार युद्ध करे। अपने शत्रुओं का आनंद न बढ़ाए, उन्हें ताप दे। मैं, उसकी माता, उसे जन्म देकर भी एक अनाथ की भांति, अन्नपिंड की आशा में आकाश की ओर दृष्टि लगाए रहती हूं।...’’
उनके स्वर का क्षोभ इतना प्रखर था कि मैं भी उससे अप्रभावित न रह सका! बोला, ‘‘बुआ! मैं धर्मराज को ठीक इन्हीं शब्दों में आपका संदेश दे दूंगा। आप निश्ंिचत रहें, पांडव अवश्य ही युद्ध करेंगे।’’
‘‘ठीक है पुत्र! जब तुमने उनकी भुजा थामी है, तो मुझे किस बात की चिंता।’’  ‘‘बुआ, जैसे पुन: ऊर्जस्वित हो उठीं, तुम उसे विदुला और उसके पुत्र संजय की कथा सुनाना।’’
‘‘यह कौन-सी कथा है बुआ?’’ मेरी भी उत्सुकता जाग उठी थी।
‘‘विदुला एक यशस्विनी, तेजस्विनी, मानिनी, जितेंद्रिय तथा दूरदर्शिनी क्षत्राणी थी। उसका पुत्र संजय, सिंधुराज से युद्ध में पराजित होकर, अपने घर लौटकर पूर्ण शांति से सो रहा। विदुला ने उसे जगाया और कहा, ‘‘तू मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ है; किंतु मुझे आनंदित करने वाला नहीं है। तू तो शत्रुओं का हर्ष बढ़ाने वाला है। तू सर्वथा क्रोध-शून्य है। इसलिए क्षत्रियों में गणना करने योग्य नहीं है। तू नाम मात्र का पुरुष है। नपुंसक।’’ संजय ने पूछा, ‘‘तुम क्या चाहती हो मां?’’    
विदुला ने कहा, ‘‘शत्रु रूपी सांप के दांत तोड़ता हुआ तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जा। प्राण जाने का संदेह हो तो भी शत्रु के साथ युद्ध में पराक्रम प्रकट कर। तू तिंदुक की जलती हुई लकड़ी के समान चाहे दो ही घड़ी के लिए, पर प्रज्वलित हो उठ, किंतु भूसी की तरह ज्वालारहित आग के समान केवल धुआं मत कर।’’ पुत्र ने चकित होकर पूछा, ‘‘तू मेरी माता होकर भी मेरे प्रति इतनी निर्दय क्यों है? मैं ही जीवित नहीं रहूंगा, तो जीवन में तेरे लिए कौन-सा सुख शेष रह जाएगा।’’ विदुला ने उत्तर दिया, ‘‘तू मुझे तब ही प्रिय हो सकता है, जब तेरा आचरण सत्पुरुषों के योग्य हो। यदि तू अपने शत्रुओं के प्रति क्रूरतापूर्वक व्यवहार नहीं करेगा, तो सब ओर तेरा अपयश फैलेगा। संजय ऐसी अवस्था में भी यदि मैं तुझे कुछ न कहूं, तो मेरा यह वात्सल्य गदही के स्नेह के समान शक्तिहीन और निरर्थक होगा।’’
मैंने अपनी तेजस्विनी बुआ की ओर मुग्ध दृष्टि से देखा था, ‘‘यह कथा भी अवश्य कहूंगा बुआ।’’ 
‘‘और अर्जुन और भीम से कहना पुत्र...’’ वे बोलीं, ‘‘कि मैंने कहा है कि जिस क्षण के लिए क्षत्राणी पुत्र को जन्म देती है, वह क्षण आ गया है। उनसे कहना कि वे युधिष्ठिर का अनुसरण न करें। वे मेरी पुत्रवधू पांचाली की इच्छा पूरी करें। द्यूतसभा में उसके अपमान के समय निष्क्रिय रहकर, जो पाप उन्होंने किया है, उसके प्रायश्चित का अवसर आ गया है। उनसे यह भी कहना कृष्ण, कि मुझे उनके राज्य के छिन जाने का भी उतना कष्ट नहीं हुआ, जितना कृष्णा के अपमान से हुआ। वे उसका निराकरण करें, तो ही इस क्षत्राणी का पुत्र-प्रसव सार्थक होगा। मुझे उनका अपयश नहीं चाहिए।’’ (उपन्यास ‘आश्रय’ का एक अंश)
(कादम्बिनी, अप्रैल 2015)

लेखक परिचय :
जन्म : 6 जनवरी, 1940 को सियालकोट में।  सन् ़१९६० से नियमित लेखन। कहानी, उपन्यास, नाटक, व्यंग्य आदि विभिन्न विधाओं में लगभग सौ पुस्तकें प्रकाशित। उनके लेखन में एक अलग तरह की प्रयोगशीलता, विविधता और प्रखरता देखने को मिलती है। कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजे जा चुके हैं।
 

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