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आंख मिचौनी    

बार-बार देवेश जी को यह लगा कि उस लड़की को उन्होंने कहीं देखा है...पर कहां, पूरी तरह याद नहीं आ रहा था। लेकिन टी.वी. वाले तो एक-एक घटना को बार-बार दिखाते ही रहते हैं...‘‘देखिए यही है वह...

आंख मिचौनी    
सीतेश आलोकTue, 16 Jun 2020 02:54 PM
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बार-बार देवेश जी को यह लगा कि उस लड़की को उन्होंने कहीं देखा है...पर कहां, पूरी तरह याद नहीं आ रहा था। लेकिन टी.वी. वाले तो एक-एक घटना को बार-बार दिखाते ही रहते हैं...‘‘देखिए यही है वह मासूम, जिसे दरिंदों ने कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा... यही है वह छोटी-सी कली, जिसे खिलने से पहले ही इनसानियत के दुश्मनों ने मसल दिया...’’
टी.वी. पर दिखाए गए दृश्य में लड़की के चेहरे पर एक झिलमिलाता हुआ धुंधला पर्दा डाला गया था, जो उसकी पहचान को छिपा रहा था। लेकिन फिर भी, कभी इधर से तो कभी उधर से, उसकी पहचान झांक ही लेती थी।
वही आंख-मिचौनी खेलती झलक बार-बार देवेश जी का कौतूहल बढ़ा रही थी। एक क्षण में लगता था कि पहचान पकड़ में आ गई... और दूसरे ही क्षण स्मृति से सब कुछ फिसल जाता था।
वह उलझन टी.वी. बंद करने के बाद भी समाप्त नहीं हुई, सोने के समय तक उनका पीछा करती रही और अकारण ही बड़े अजीब से प्रश्न उठाने लगी। कभी यह कि-‘‘तुम पहचान क्यों नही पा रहे हो उसे?’’ और कभी यह कि-‘‘अरे छोड़ो भी... वहम हो रहा है तुम्हें...’’
और नींद का क्या! नींद को तो बस बहाना चाहिए आंखों से छिटक जाने का। देवेश जी ने हारकर बत्ती जलाई और पढ़ने के लिए एक किताब निकाल ली। पढ़ना भी शुरू किया। कुछ देर बाद... पता नहीं कितनी देर बाद उन्हें ध्यान आया कि उन्हें पता ही नहीं कि उनके आगे किताब का कौन-सा पन्ना खुला है... और उन्होंने इतनी देर तक क्या पढ़ा? वास्तव में वे खुली किताब के पीछे, उसी लड़की को देख रहे थे और लगातार उसे पहचानने के प्रयास में भटक रहे थे।
फिर भी नींद आ ही गई... जाने कब।
दिन निकला तो अपनी व्यस्तताओं तथा नए कार्य-कलाप के साथ। ...वे सुबह पार्क में पांच चक्कर लगाकर लौटे ही थे और प्राणायाम के लिए बैठने जा ही रहे थे कि तभी फोन की घंटी बजी... और कैसा विचित्र संयोग।
‘‘प्रणाम सर, मैं सुमेर बोल रहा हूं, रामचंद्र सुमेर...’’ उधर से आवाज आई।
सुमेर... सुमेर! अरे हां, ...सुमेर ही तो। वह एक नाम सहसा उन्हें कालचक्र में बहुत पीछे खींचता ले गया। लगभग आठ महीने पीछे। शायद वहीं... हां वहीं तो मिली थी वह। वही है... बिल्कुल वही।
उनकी स्थिति सहसा उस आर्कमिडीज-जैसी हो गई थी, जो तन-मन, लाज-शर्म सब कुछ भूलकर पागलों की तरह रोम की गलियों में ‘यूरेका... यूरेका’ कहता हुआ निकल पड़ा था। उन्हें भी सहसा लगा जैसे उन्हें किसी बहुत बड़ी समस्या का हल मिल गया... जैसे उन्होंने उस लड़की को कल शाम टी.वी. पर नहीं, बहुत पहले देखा था और उसे बिल्कुल ही भूल चुके थे। लेकिन आज, उसके संकट की घड़ी में, उनके मन में उसके प्रति आत्मीयता बढ़ गई थी... बहुत बढ़ गई थी।
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विष्णु पार्क पहुंचते ही देवेश जी को काफी चहल-पहल दिखाई दी। पार्क के एक बड़े भाग में तेज प्रकाश था और लाउड स्पीकर से ‘टेस्टिंग-टेस्टिंग’ का स्वर सुनाई दे रहा था। ...
‘‘आपको यहां पहुंचने में कोई परेशानी तो नहीं हुई, सर...?’’ सुमेर ने देवेश जी को मंच की दिशा में चलने का संकेत करते हुए पूछा... शायद औपचारिकतावश ही। यद्यपि वह जानता था कि विष्णु पार्क पहुंचना कोई बहुत आसान भी नहीं है। भीड़ भरे रस्ते को पार करके कई मोड़ लेने के बाद ही जीवन नगर का यह मार्केट आता है, जिसके बीच बना है यह विष्णु पार्क। ...कार्यक्रम प्रारंभ होने में कुछ देर थी, यद्यपि ‘टेस्टिंग...टेस्टिंग’ वाली आवाज आनी बंद हो चुकी थी। देवेश जी को पार्क के किनारे, सड़क के पार, एक अपेक्षाकृत बड़े, किसी प्रकाशचंद जी के मकान में बैठाया गया। ड्राइंग रूम साफ-सुथरा दिखाई दे रहा था। इधर-उधर दो सोफासेट और बीच में कांच के टॉप वाली बड़ी-सी मेज। किनारे पर दो-तीन गुलदस्ते, प्लास्टिक के फूलों वालें। ऊपर बीच में एक मध्याकार शांडलियर।
‘‘प्रकाशचंद जी बस आते ही होंगे...’’ सुमेर ने बातों ही बातों में बताया। ‘‘शाहदरा में प्रेस है उनका। साढ़े छह तक आने का पक्का वादा था। लेकिन देर हो जाती है, कभी-कभी  ट्रैफिक जाम भी हो जाता है। ’’
तब तक चाय आ चुकी थी, कुछ मीठे -नमकीन आदि के साथ। 
‘‘पहले आप यह लीजिए सर!’’
मना करते-करते भी उन्हें कुछ तो लेना ही पड़ा... आवश्यकता से अधिक।
‘‘यहां के लोगों में बड़ा उत्साह है, सर ...’’ सुमेर बताते जा रहे थे। ‘‘लेकिन यहां कोई मार्गदर्शन नहीं मिल पाता उन्हें। कई बच्चे तो बहुत ही     टैलेंटेड हैं। अपने स्कूलों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उन्हें बड़े-बड़े पुरस्कार मिल चुके हैं। हमारी इच्छा है कि उन्हें आपका भी आशीर्वाद मिले। उनका उत्साह बढ़ेगा।’’
तभी बाहर की ओर देखते हुए सुमेर ने कहा, ‘‘प्रकाशचंद जी आ गए।’’...
‘‘आइए सर!’’ सुमेर ने बढ़कर उन्हें बुलाते हुए कहा। ‘‘इधर आइए सर! आपको देवेश जी से मिलवाऊं। ये हैं, देवेश जी... मैंने बताया था न आपको, आज के कार्यक्रम के अध्यक्ष।’’
प्रकाशचंद ने देवेश जी की ओर देखा और शायद उनके नमस्कार की मुद्रा में मुड़े हाथों को भी देखा ही होगा, किंतु शायद उनकी दृष्टि में नमस्कार करने वाले की ओर देख लेना ही अभिवादन का पर्याप्त प्रत्युत्तर होता हो। फिर उन्होंने अपना मुंह पीछे की ओर घुमाते हुए देखा, शायद आश्वस्त होने के लिए कि वे सोफे के पास ही खड़े हैं... और फिर वे ऐसे बैठे जैसे उस पर गिरे हों।
‘‘सर, आप भी चाय ले लें...’’ सुमेर ने सन्नाटा तोड़ते हुए कहा। ‘‘कुछ देर हो गई... काफी लोग आ चुके हैं।’’
चाय का प्याला पकड़ते हुए प्रकाशचंद ने देवेश जी की ओर देखा, ‘‘आप क्या करते हैं?’’
उनके इस प्रश्न से वे कुछ असहज हुए जैसे किसी साक्षात्कार में कोई ऐसा जटिल प्रश्न पूछ लिया गया हो, जिसका उत्तर वे नहीं जानते। ‘‘मैं... मैं तो बेकार हूं, प्रकाशचंद जी! आप जैसे बड़े लोग जब बुलाते हैं तो चला जाता हूं।’’
‘‘अरे सर, हमारे देवेश जी को कौन नहीं जानता...।’’ सुमेर ने लगभग बात काटते हुए कहा- ‘‘जाने-माने लेखक हैं और इनके लिखे हुए कई नाटक भी... और...’’
‘‘अरे हां... आपने बताया था।’’ प्रकाशचंद ने अपनी गंभीर वाणी में गर्दन हिलाते हुए उनकी ओर देखा। ‘‘आपका तो बड़ा नाम सुना जाता है। तो आप तो सब आर्टिस्टों वगैरा को जानते होंगे... मेरा मतलब है बंबई में भी।’’
‘‘बंबई में...?’’ देवेश जी सहसा कुछ समझ नहीं पाए। ‘‘हां, मुंबई में भी कुछ परिचय है मेरा, कुछ लेखकों से और कुछ कलाकारों से भी।’’
‘‘तो एक काम करवा दीजिए हमारा...’’ उन्होंने किसी दुविधा में रुककर इधर-उधर सिर घुमाया। ‘‘बात ये है...’’ फिर अपनी बात बीच में छोड़ते हुए उन्होंने आवाज लगाई, ‘‘अरे धीरू... ओ धीरू...’’
कमरे में कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। तभी भीतर की ओर से एक व्यक्ति को आते देखकर उन्होंने कहा, ‘‘जरा भइया को बुलाओ... कहना कि...’’
‘‘भइया तो चंडीगढ़ गए हैं, साब!’’
‘‘अरे हां...’’ प्रकाशचंद ने बुदबुदाते से स्वर में कहा। ‘‘मैं तो भूल ही गया... हां, तो मैं कह रहा था कि आपकी तो बड़ी जान-पहचान होगी बंबई में। हमारा एक काम करवा दीजिए।’’
देवेश जी को बात बहुत अटपटी लगी। कैसी जान-पहचान? कैसा काम? लेकिन जिज्ञासा वाली मुस्कान होठों पर लाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘अरे श्रीमान, मैं तो...’’
‘‘नहीं, नहीं... आप करा सकते हैं’’ उन्होंने कहा। ‘‘बात ये है कि मेरा लड़का बड़ा ही होशियार है। देखने में भी हर तरह अच्छा है। गाना भी बढ़िया गाता है। और शारुक का डालॉग तो ऐसे बोलता है कि बस... अगर एक बार उसे बंबई में चांस मिल जाए तो वो शारुक की तो छुट्टी कर दे। आज एक दोस्त की शादी में चंडीगढ़ गया है। नई तो सुनवाता आपको उसका गाना भी।’’
‘‘प्रकाश जी...!’’ देवेश जी ने यथासंभव शांत रहते हुए मुस्कराकर कहा, ‘‘मैं तो साधारण-सा लेखक हूं... मुंबई में कुछ लेखकों को जरूर जानता हूं, लेकिन फिल्मों में...’’
‘‘अरे, आप कोशिश तो कीजिएगा। आपकी जान-पहचान जरूर निकल आएगी। बस इत्ता-सा काम हमारा करवा दीजिए... तो... आपकी सब किताबें हम छापेंगे। अपना प्रेस है। आप चिंता न कीजिएगा।’’
‘‘अब चलें...’’ सुमेर ने बीच में ही बोलकर किसी अप्रिय स्थिति से सबको उबार लिया। ‘‘समय हो गया। पार्क में काफी लोग आ चुके हैं।’’
‘‘हां-हां, चलिए...’’ प्रकाशचंद ने अपने हाथ का प्याला मेज की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लेकिन वो मेरी बात ध्यान रखिएगा...’’
उत्तर में देवेश जी ने हाथ जोड़ दिए।
घर के सामने दुकानों और ठेलों से भरी संकरी-सी सड़क पार करके उन्होंने पार्क में प्रवेश किया। पार्क का वह भाग तेज बिजली के प्रकाश में जगमगा रहा था। वहां कोई दो-ढाई सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था दिखाई दे रही थी। काफी कुर्सियां भर चुकी थीं।...
देवेश जी के मंच तक पहुंचने से पहले ही, माइक पर पहुंचकर सुमेर ने घोषणा की, ‘‘भाइयो, हमारे बीच देश के जाने-माने लेखक, नाटककार और कवि आदरणीय श्री देवेश जी पधार चुके हैं... कृपया जोरदार तालियों से उनका स्वागत करें।’’
यह कहते हुए स्वयं सुमेर ने माइक के सामने ही ताली बजाई। उस ध्वनि के साथ ही सामने बैठे लोगों की तालियां भी बजीं। दूसरे ही क्षण, तालियों की ध्वनि के बीच ही सुमेर ने कहा, ‘‘अब मैं आदरणीय देवेश जी से अनुरोध करता हूं कि वे मंच पर अपना स्थान ग्रहण करके आज की सांस्कृतिक संध्या का शुभारंभ करें।’’
सुमेर ने स्वयं भी आगे बढ़कर देवेश जी को मंच की ओर चलने का संकेत किया। साथ में दो-तीन स्थानीय नागरिक और भी थे।
मंच पर अपना स्थान ग्रहण करके देवेश जी को लगा, पता नहीं और कौन मंच पर उनके साथ बैठने आएगा। लेकिन और कोई नहीं आया। मंच के दाहिनी ओर वाले माइक से खड़े होकर अपने छोटे से भाषण में सुमेर ने बड़ी ही नपी-तुली आलंकारिक भाषा में देवेश जी का परिचय कराया कि देश के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हमारे बीच पधारे हैं, यह हम सब का सौभाग्य है, इससे हमारे आसपास के बच्चों को अच्छा जीवन अपनाने के लिए मार्गदर्शन मिलेगा और कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आए नवोदित कलाकारों को प्रोत्साहन प्राप्त होगा... आदि।
उस कॉलोनी के निवासी लाला राधारमण जी ने माला पहनाकर और प्रकाशचंद ने पुष्पगुच्छ देकर उनका अभिनंदन किया।
सुमेर ने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रारंभ करने की घोषणा की। पहली प्रस्तुति के लिए मंच के सामने दो बच्चे बुलाए गए। एक लड़का और एक लड़की। दोनों लगभग बारह-तेरह वर्ष के। उनके चेहरे पर हल्का मेकअप तो था, लेकिन कुछ अजीब-सा। देवेश जी की दृष्टि संगत करने वालों को ढूंढ़ रही थी। संगत अर्थात् कोई तबला वादक, कोई हारमोनियम, सारंगी या बांसुरी वादक। लेकिन उनके साथ कोई भी नहीं था। लड़के ने तेजी से बढ़कर माइक के सामने एक छोटा-सा यंत्र रखा। उसके बजते ही पता चला, वह कोई टेप रिकार्डर है। भरभराती हुई आवाज में ऑकेस्ट्रा के बाद ‘किसी होटल में जाएं, किसी होटल में खाएं...’ बज उठा और देखते-ही-देखते उसकी धुन पर वे लड़का-लड़की नाचने लगे। उनका नाच समाप्त होते ही सामने बैठे सभी दर्शकों ने तालियां बजाईं।
देवेश जी ने असहज होते हुए स्थिति बदली और बाईं ओर के गाव-तकिये पर कोहनी टिका दी।
सुमेर ने माइक पर पहुंचकर दूसरी प्रस्तुति की घोषणा की। दो लड़कियों ने ‘चोली के पीछे क्या है...’ बजाकर नाच दिखाया। कोई बारह-तेरह साल की सपाट छातियों वाली वे दोनों ऐसे अपना वक्षस्थल झटक रही थीं कि वहां भी उभार का भ्रम होने लगता था। दर्शक ताली बजा रहे थे, किंतु देवेश जी को कोई अनाम-सी घबराहट घेरने लगी। उनकी दृष्टि सुमेर को ढूंढ़ रही थी। तभी दो लड़कों ने आकर संता-बंता के दस-बारह चुटकुले सुनाए।
फिर तालियां बजीं और तालियों के बीच ही सुमेर ने माइक पर आकर नई घोषणा की। देवेश जी निरंतर सुमेर की ओर देख रहे थे... इस आशा में कि वह उनकी ओर देखे, तो वे उसे संकेत से बुलाएं।
नया कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। एक लड़के ने आकर टेप पर ‘तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त’ बजाकर अकेले ही नृत्य किया। उस पंद्रह-सोलह साल के लड़के का सारा शरीर गाने की धुन पर, विशेषतया तब, जब गीत के शब्द नहीं होते थे और केवल ऑकेस्ट्रा बजता था, ऐसे थरथराता था जैसे वह कोई    मंजा हुआ डिस्को नर्तक हो। साथ ही उसकी नाभि के नीचे का भाग रह-रहकर ऐसे उछलता था कि लोग ताली बजाने लगते थे। देवेश जी को भी उसकी परिपक्वता पर आश्चर्य हो रहा था। वे सोच  रहे थे कि काश इसने इसका आधा परिश्रम भी किसी परंपरागत कला के लिए लगाया होता! उधर दर्शक रह-रहकर तालियां बजाते थे। इसी बीच दर्शकों में से एक व्यक्ति उठा और आगे बढ़कर उसने उस लड़के को बांहों में भरकर चूम लिया।
उस लड़के ने अचानक सकपका कर अपने को छुड़ाया और आश्चर्य में वह इधर-उधर देखने लगा। टेप पर गाना लगातार बज रहा था। देखने वाले कुछ समझते, उससे पहले ही दर्शकों में से दो-तीन लोग ‘ऐ गुप्ता... तू इधर आ’ जैसा कुछ पुकारते हुए आए और उस व्यक्ति को पीछे खींच ले गए। उनके पीछे कुछ आधे-अधूरे वाक्य सुनाई देते रहे।
...आयोजकों  में से किसी ने उस लड़के की ओर बढ़ते हुए इशारा किया-जैसे कह रहे हों कि तू क्यों रुक गया? तू अपना काम चालू रख...
उस लड़के ने झटके के साथ रिकार्ड की धुन कुछ पीछे करके अपना नाच प्रारंभ किया... ऐसे, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
देवेश जी के मन में अजीब बेचैनी हो रही थी। क्या वह घबराहट थी या फूट पड़ने के लिए मचलते हुए क्रोध का कोई उफान...? वे समझ नहीं पा रहे थे। उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि लोगों में व्यवहार का स्तर इतना गिर सकता है। ‘लेकिन क्यों नहीं’ स्वयं उनका ही मन तर्क कर रहा था। ‘आए दिन बलात्कार की घटनाएं नहीं होतीं क्या?’
वह नृत्य समाप्त होते ही माइक संभाले हुए सुमेर ने अगले कार्यक्रम की घोषणा की। दर्शकों के सामने दो लड़के आकर खड़े हुए। कुछ तो उनकी पोशाक से लग रहा था और कुछ उनके संवाद बोलने के ढंग से... उनमें से एक संजय दत्त की  नकल कर रहा था और एक शाहरुख की। संवाद शायद उन्हीं लड़कों के बनाए हुए थे... प्रश्न उत्तर के रूप में।
सहसा मंच में पीछे देवेश जी को लगा जैसे कोई उनसे कुछ कह रहा है। उन्होंने गर्दन घुमाते हुए देखा... वहां दो महिलाएं खड़ी थीं। उनके पीछे एक छोटी-सी लड़की भी थी, गहरे मेकअप में जिसका चेहरा, एक झलक में कुछ परिचित लगा।
‘‘भाई साब...!’’ वह महिला फुसफुसाते-से स्वर में उनसे कुछ कह रही थी,  ‘‘हमारी बच्ची का आइटम जरा जल्दी करवा दो। हमें बहुत दूर  जाना है...।’’
‘‘ये तो आप सुमेर जी से...’’
‘‘वो  मान नहीं रहे हैं। कहते हैं अभी ही तो इसका डांस हुआ था।’’
अभी... देवेश जी को याद आया। हां, यही तो थी वह, जिसने एक लड़की के साथ वो डांस किया था, कोई वल्गर-सा...
‘‘क्या आइटम है इसका?’’ देवेश जी ने फुसफुसाते हुए ही पूछा।
‘‘सर, मुन्नी बदनाम हुई... सुना होगा         आपने। बड़ी मेहनत से तैयार किया है दोनों  लड़कियों ने।’’
सुनते-सुनते देवेश जी को लगा जैसे उनके भीतर कहीं कुछ तड़कने लगा है।
‘‘हमें बड़ी दूर जाना है... और फिर इन दोनों के हाफ इयरली एग्जाम भी शुरू हो रहे हैं। प्लीज आप कह दीजिए तो...’’
‘‘आप अपनी बच्चियों को ऐसे बेहूदा नाच सिखाती हैं...’’ बोलते-बोलते देवेश जी को स्वयं ही लग रहा था कि शायद वे कोई सीमा पार कर रहे हैं... क्या उन्हें यह कहने का अधिकार है।
‘‘आजकल तो बच्चे यही सब सीखते हैं... फिल्में देख-देखकर। उनका भी मन होता है कि उन्हें कहीं अपनी कला...’’
‘‘आप इसे कला कहती हैं...?’’ फुसफुसाकर बोलते हुए भी देवेश जी को लग रहा था कि शायद वे क्रोध भरे स्वर में बोल रहे हैं। स्वर को यथासंभव धीमा और संयत रखते हुए भी उनकी आंखें शायद अंगारे बरसाने लगी थीं। ‘‘अगर आपको सिखाना ही है तो कथक है, भरत नाट्यम है, ओडिसी है... कला की क्या कहीं कोई कमी है?’’
‘‘कहां सिखाते हैं ये सब? हमने तो कोई स्कूल देखा नई...’’ दूसरी महिला ने सहमते स्वर में कहा।
‘‘कहिए कि आपने ढूंढ़ा नहीं... और ये वाहियात नाच सिखाने वाले कहां मिल गए आपको? कल को इन्हें देखकर कोई इनके साथ बलात...’’ जाने कैसे देवेश जी ने अपने शब्दों को लगाम दी। ‘‘तो फिर आप ही शोर मचाती फिरेंगी कि...’’
 क्षण भर उनके बीच सन्नाटा रहा।
‘‘कुछ नहीं सुमेर जी...’’ उन्होंने जाने कैसे अपना स्वर बदला। हां, उनकी भाव-भंगिमा में असहज होने का स्पष्ट संकेत था। ‘‘अब मैं और नहीं रुक सकूंगा। मुझे आज्ञा दीजिए।’’
‘‘क्या हुआ सर...? बस थोड़ी देर और...’’
‘‘नहीं, मुझे जाना ही होगा...’’ उन्होंने उठते हुए कहा।
 ‘‘मेरी विनती मानकर, सर...’’ सुमेर ने हाथ जोड़कर लगभग गिड़गिड़ाते स्वर में कहा, ‘‘ये लोग आपका आशीर्वचन सुनने के लिए बैठे हैं...’’
‘‘मेरे लिए...?’’ उनके स्वर में ही नहीं, आंखों में भी तीखा प्रश्न था। वे मंच से उठकर खड़े हो चुके थे।
सामने संजय दत्त और शाहरुख की मिमिक्री वाला कार्यक्रम समाप्त हो चुका  था। ‘‘अच्छा सर... एक मिनट, बस एक मिनट... आप इन सबको कोई संदेश तो देते जाइए। हमें मार्गदर्शन देते जाइए। बात ये है, सर... कि आप ऐसे चले गए तो...’’ 
सुमेर का स्वर थराथरा रहा था। नहीं उसकी आंखें तो नहीं भीगी थीं, लेकिन सारा स्वर भीगा लग रहा था। देवेश जी को लगा कि कहीं वह बिना आंसुओं के ही न रो पड़े।
जाने कौन-सा संकेत पाकर सुमेर माइक की ओर लपका। ‘‘भाइयो...देवेश जी को अचानक किसी कारणवश यहां से जाना पड़ रहा है। मैं आप सबकी ओर से उनसे हाथ जोड़कर अनुरोध कर रहा हूं कि वे हमारा मार्गदर्शन करने के लिए हमें कोई संदेश देकर जाएं।’’
न चाहते हुए भी बड़े बेमन से देवेश जी माइक की ओर बढ़े। उसके बाद उन्हें भी ठीक से नहीं याद कि उन्होंने क्या कहा। क्रोध और शालीनता के बीच परिस्थिति ने उनसे क्या कुछ कहलवाया, वह याद करना अथवा याद रखना उन्होंने आवश्यक नहीं समझा। इतना क्या पर्याप्त नहीं कि लौटते समय उनका कोई एक्सीडेंट नहीं हुआ और... और यह कि अगले दिन जब क्षमा मांगते हुए सुमेर का फोन आया तो न तो उन्होंने उसे डांटा-फटकारा और न कोई उलाहना दिया, बस अल्प शब्दों में छोटी-सी प्रतिक्रिया दी कि वे यह समझकर गए थे कि वहां कुछ लोकगीत होंगे, लोक नृत्य होंगे या शास्त्रीय संगीत सुनने को मिलेगा... बांसुरी या सितार पर कोई मधुर धुन सुनने को मिलेगी... या कोई शास्त्रीय नृत्य प्रस्तुत करेगा। जो कुछ वहां हुआ उसे सांस्कृतिक कार्यक्रम न कहो तो अच्छा होगा...
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और आज अचानक उसी सुमेर की आवाज उन्हें क्षणभर में ही उस विचित्र ‘सांस्कृतिक संध्या’ का स्मरण कराते हुए उस लड़की की याद दिला गई, जिसे देखकर उन्होंने क्रोध में ही सही, उसका बलात्कार होने की आशंका जताई थी।
पिछली रात उस धुंधले पर्दे से झांकती उस लड़की का चेहरा उन्हें फिर याद हो आया। वही... बिल्कुल वही। वही, जो उस शाम फिर किसी अश्लील फिल्मी गाने पर नाची होगी जैसा उसकी मां कह रही थी कि उसने बड़ी मेहनत से तैयार     किया है।
क्यों कह दिया उन्होंने...? क्यों कही ऐसी अशुभ बात? ऐसा भी क्या क्रोध? उन्हें याद हो आया... जाने किससे सुना था उन्होंने कि कभी-कभी मुंह से निकली बात सच हो जाती है। लेकिन... वे ऐसा न बोलते तो क्या वह लड़की बच जाती? हम मौन साध लें तो क्या वे सब बच जाएंगी?’’’
 

(कादम्बिनी, नवंबर 2015)

लेखक परिचय :
जन्म : 14 मार्च, 1937 को अयोध्या-फैजाबाद में। कहानी, कविता, लेख, व्यंग्य, गजल आदि विधाओं में रचनाएं प्राय: सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। दूरदर्शन व आकाशवाणी पर भी अनेक कार्यक्रम प्रसारित। लगभग दो दर्जन पुस्तकें छप चुकी हैं। कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों व सम्मानों से नवाजे जा चुके हैं।
 

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