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मुशर्रफ के इन फैसलों ने बढ़ाई थी पाकिस्तान की मुसीबत, अमेरिका के साथ की बात थी सबसे अहम

पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की अफगान नीति और तालिबान के प्रति उनका नरम रुख पाकिस्तान के लिए दोधारी तलवार साबित हुआ। इन नीतियों का परिणाम यह हुआ कि चरमपंथी समूह उनके खिलाफ हो गए।

मुशर्रफ के इन फैसलों ने बढ़ाई थी पाकिस्तान की मुसीबत, अमेरिका के साथ की बात थी सबसे अहम
Deepakभाषा,इस्लामाबादSun, 05 Feb 2023 10:42 PM

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पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ के कई फैसले काफी चर्चित रहे। इनमें से कुछ फैसले ऐसे भी रहे, जो पाकिस्तान के लिए सही नहीं साबित हुए। एक ऐसा ही फैसला था अमेरिका में 11 सितम्बर 2001 को हुए हमलों के बाद आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी लड़ाई में साथ देने का। पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की अफगान नीति और तालिबान के प्रति उनका नरम रुख पाकिस्तान के लिए दोधारी तलवार साबित हुआ। मुशर्रफ की इन नीतियों का परिणाम यह हुआ कि चरमपंथी समूह उनके खिलाफ हो गये तथा पाकिस्तान में आतंकवादी हमले हुए। गौरतलब है कि जनरल मुशर्रफ (79) का लंबी बीमारी के बाद रविवार को दुबई के अमेरिकी अस्पताल में निधन हो गया।

2008 तक रहे थे राष्ट्रपति
पाकिस्तान के पूर्व सैन्य तानाशाह और 1999 में करगिल युद्ध के मुख्य सूत्रधार जनरल मुशर्रफ ने 1999 में रक्तहीन सैन्य तख्तापलट के बाद सत्ता पर कब्जा कर लिया और 2008 तक प्रभारी बने रहे। 11 सितम्बर 2001 के हमलों का मुख्य साजिशकर्ता अल-कायदा का नेता ओसामा बिन लादेन था, जिसे तालिबान अफगानिस्तान में शरण दे रहे थे। मुशर्रफ ने अपनी आत्मकथा ‘इन द लाइन ऑफ फायर’ में लिखा है कि अमेरिका का 9/11 के हमलों के बाद घायल रीछ की तरह पलटवार करना निश्चित था। यदि साजिशकर्ता अल-कायदा हुआ तो घायल रीछ सीधे हमारी ओर आएगा। आत्मकथा के अनुसार, तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कॉलिन पॉवेल ने 9/11 के हमलों के बाद मुशर्रफ से कहा था कि पाकिस्तान या तो हमारे साथ होगा या हमारे खिलाफ होगा।

अमेरिकी डॉलर का खोला रास्ता
अमेरिकी संदेश की प्रकृति के बावजूद, अफगानिस्तान पर आक्रमण मुशर्रफ के लिए अधिक उपयुक्त समय पर नहीं हुआ, जो सैन्य तख्तापलट के बाद भी वैधता हासिल करने के लिए अंधेरे में हाथ-पांव मार रहे थे। लेकिन, तब वह अमेरिका के साथ हो लिए और पाकिस्तान के लिए अमेरिकी डॉलर का रास्ता खोल दिया। इस फैसले के दूरगामी परिणाम हुए। पाकिस्तान में चरमपंथी समूह उनके खिलाफ हो गए और न केवल अफगान आतंकवादियों को समर्थन प्रदान किया, बल्कि देश के अंदर हमले भी शुरू कर दिए। अफगानिस्तान के साथ सीमा पर सुरक्षा के इंतजाम के अभाव में मुशर्रफ आतंकवादियों को सीमा में प्रवेश से रोक नहीं सके। पश्चिमी देशों ने इस दोहरे खेल के लिए उन्हें दोषी ठहराया, लेकिन वे पाकिस्तान और तालिबान के बीच सांठगांठ को तोड़ने में विफल रहे। 

टीटीपी बना पाक की मुसीबत
मुशर्रफ के राजनीतिक परिदृश्य से गायब होने के लंबे समय बाद, तालिबान अंततः 2021 में अफगानिस्तान की सत्ता में लौट आए। अफगानिस्तान में नाटो और अमेरिकी सेना के घुसने के लिए पाकिस्तान को एक ट्रांजिट मार्ग के रूप में इस्तेमाल किया गया था और मुशर्रफ ने पाकिस्तान के बीहड़ सीमावर्ती इलाकों में संदिग्ध आतंकवादियों के खिलाफ अमेरिकी सेना द्वारा शुरू किए गए हमलों को सहन किया। मुशर्रफ की अफगान नीति के कारण 2007 में सामने आए तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) जैसे आतंकवादी संगठनों के समक्ष पाकिस्तान की दुर्बलता उजागर हुई। टीटीपी को पूरे पाकिस्तान में कई घातक हमलों के लिए दोषी ठहराया गया है, जिसमें 2009 में सेना मुख्यालय पर हमला, सैन्य ठिकानों पर हमले और 2008 में इस्लामाबाद में मैरियट होटल में बमबारी शामिल है।

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