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गुजरात में सभी दलों के लिए पाटीदार वोट बैंक 'हॉट केक' क्यों? समझें- पूरा गणित और इतिहास

गुजरात में बीजेपी जीत के लिए पुराने सियासी फार्मूले से लेकर नए जातीय समीकरण का सियासी दांव चल रही है। इसी के तहत पार्टी ने पाटीदारों और ओबीसी नेताओं को टिकट बंटवारे में काफी तरजीह दी है।

गुजरात में सभी दलों के लिए पाटीदार वोट बैंक 'हॉट केक' क्यों? समझें- पूरा गणित और इतिहास
Pramod Kumarमौलिक पाठक, हिन्दुस्तान टाइम्स,अहमदाबादSun, 20 Nov 2022 08:34 AM
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गुजरात चुनाव नजदीक आने के साथ ही सभी राजनीतिक दल प्रभावशाली पाटीदार समुदाय को रिझाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। राज्य की 182 विधानसभा सीटों के चुनावों के लिए,जहां सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 45 पाटीदारों को उम्मीदवार बनाया है, तो वहीं मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने 42 पाटीदार उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। आम आदमी पार्टी (आप) ने भी इस समुदाय से 46 नेताओं को चुनावी टिकट दिया है।

हालांकि, 2002 के गुजरात विधानसभा चुनावों में पार्टी की जीत के बाद से प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ही आम तौर पर चुनावों के दौरान भाजपा का सबसे लोकप्रिय चेहरा बने हुए हैं, बावजूद इसके भाजपा, विपक्षी कांग्रेस और आप सभी पार्टियां राज्य में शक्तिशाली और प्रभावशाली पाटीदारों की उपेक्षा नहीं कर सकतीं, जिनमें से अधिकांश पटेल उपनाम से जाने जाते हैं। 

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ऐसे में सवाल उठता है कि पटेल या पाटीदार, जो राज्य की आबादी का लगभग 12-14% हिस्सा हैं, वह गुजरात में सबसे महत्वपूर्ण वोट बैंक क्यों माना जाता है?

कृषक जमींदारों का सबसे बड़ा समुदाय:
पाटीदार राज्य में जमींदारों का सबसे बड़ा समुदाय है। यह एक कृषक जाति है, इसमें कई उप-जातियां शामिल हैं। सबसे प्रमुख रूप से लेउवा और कडवा पटेल हैं। 1950 के दशक में समुदाय को सौराष्ट्र भूमि सुधार अधिनियम, 1952 से बड़े पैमाने पर लाभ हुआ, जिसने काश्तकार किसानों को दखल का अधिकार दिया, जो मुख्य रूप से पटेल समुदाय से थे।

सौराष्ट्र क्षेत्र में मूंगफली और कपास जैसी नकदी फसलों की खेती शुरू करने से पटेल धीरे-धीरे समृद्ध होते गए। उन्होंने पीतल, सिरेमिक, हीरा, ऑटो इंजीनियरिंग और फार्मास्यूटिकल्स में भी निवेश किया और धीरे-धीरे जमीन खरीदकर गुजरात के अन्य हिस्सों में अपना प्रभुत्व फैला लिया। सौराष्ट्र पटेल लॉबी राजनीति में भी प्रमुख स्थान हासिल करने के लिए आगे बढ़ी।

बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अमित ढोलकिया ने कहा, “पाटीदार एक संगठित और समृद्ध समुदाय है और इसलिए, उनका प्रभाव उनकी संख्या के अनुपात में नहीं है। वे कई व्यवसायों, व्यापार और यहां तक ​​कि सहकारी समितियों को नियंत्रित करते हैं।”

स्वामीनारायण संप्रदाय के बीच बड़ी उपस्थिति:
उन्होंने बताया, “स्वामीनारायण संप्रदाय के बीच उनकी बहुत बड़ी उपस्थिति है, जो एक बहुत शक्तिशाली धार्मिक संगठन है। साथ ही, बड़ी संख्या में एनआरआई पाटीदार हैं। इन सभी पहलुओं को देखते हुए, सभी शक्तिशाली पार्टियां उन्हें लुभाने की कोशिश करती हैं।”

समुदाय बड़े पैमाने पर आणंद, खेड़ा और मेहसाणा जिलों और पाटन और अहमदाबाद जिलों के कुछ हिस्सों में मौजूद है। सूरत शहर में, कम से कम चार सीटों पर उनका दबदबा है। सौराष्ट्र के राजकोट, अमरेली और मोरबी जिलों में उनकी मजबूत उपस्थिति है।

50 सीटों पर अहम भूमिका:
राजनीतिक दलों के एक आंतरिक विश्लेषण के अनुसार, लगभग 16 सीटें हैं, जहां पाटीदार मतदाताओं का स्पष्ट रूप से वर्चस्व है- इनमें नौ सौराष्ट्र में, तीन उत्तर गुजरात में और चार सूरत में हैं। राज्य में 50 से अधिक सीटें ऐसी हैं जहां पटेल अहम भूमिका निभा सकते हैं और अन्य 40 सीटों पर उनका कुछ प्रभाव है।

1990 से ही बीजेपी के प्रबल समर्थक:
पाटीदार तीन दशकों से अधिक समय से मुख्य रूप से 1990 के दशक से भाजपा के प्रबल समर्थक रहे हैं। शुरुआत में, यह 1980 के दशक के मध्य में पार्टी के प्रबल समर्थक तब बने, जब कांग्रेस ने क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम वोट बैंक का पक्ष लेने के लिए 'खाम' सिद्धांत को सामने लाया था। इसके विरोध में पाटीदारों ने खुद को भाजपा की तरफ प्रेरित कर लिया।

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हालांकि, समुदाय के लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के लिए 2015 में तत्कालीन अनामत आंदोलन समिति (पीएएएस) के संयोजक हार्दिक पटेल के नेतृत्व में एक तीव्र आंदोलन, भाजपा के लिए एक बड़ा झटका साबित हुआ, जिसने पिछले दो दशकों में इसका सबसे खराब प्रदर्शन देखा। 2017 के चुनावों में बीजेपी सिर्फ 99 सीटें जीत सकी, जबकि कांग्रेस ने  77 सीटें जीतकर प्रभावशाली प्रदर्शन किया था।

बीजेपी ने 2017 में पाटीदारों के विरोध के बावजूद, सूरत शहर में सभी 12 सीटें जीतीं, लेकिन सौराष्ट्र क्षेत्र में पटेल बहुल मोरबी और अमरेली जिलों में आठ सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। तब नोटबंदी, जीएसटी की शुरूआत और कृषि संकट भी अन्य कारक थे जिन्होंने पार्टी के खिलाफ काम किया था।

2007 के बाद से पाटीदारों में असंतोष:
“2007 के बाद से बीजेपी के खिलाफ पाटीदारों में लगातार असंतोष बढ़ता रहा है, जब पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल ने सरदार पटेल उत्कर्ष समिति (तब मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ भाजपा सरकार का विरोध करने के लिए) का गठन किया था। 2012 में, पटेल और पूर्व गृह मंत्री गोवर्धन जडफिया (पटेल समुदाय से ही आते हैं) ने बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए गुजरात परिवर्तन पार्टी (जीपीपी) बनाई थी। 2017 में, पाटीदार आंदोलन था। 

सत्तारूढ़ भाजपा ने पिछले साल अपने पूरे मंत्रिमंडल को ही बदल दिया था और मुख्यमंत्री (विजय रूपानी) की जगह पटेल मुख्यमंत्री (भूपेंद्र पटेल) बना दिया। 1 मई, 1960 को अपने गठन के बाद से गुजरात में आनंदीबेन पटेल, केशुभाई पटेल, चिमनभाई पटेल और बाबूभाई पटेल सहित कम से कम पांच पटेल मुख्यमंत्री रह चुके हैं।

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