भारत के इतिहास में ऐसे कई लोग हुए हैं, जिन्होंने अपनी निष्ठा और पराक्रम से अपने राज्य की बड़ी सेवा की। देश के विभिन्न क्षेत्रों में लोकमानस में उनकी कहानियां बड़े आदर के साथ सुनी-सुनाई जाती हैं, लेकिन उनको इतिहास में कुछ खास जगह नहीं मिल पाई। कई का बस हल्का-सा जिक्र है, तो कई गुमनाम हैं। मराठा सूबेदार तानाजी मालुसरे एक ऐसे ही योद्धा हैं। उनके बारे में इतिहास में बहुत कम जिक्र मिलता है। महाराष्ट्र के क्षेत्रीय इतिहास में तानाजी को कितनी जगह मिली है, पता नहीं, लेकिन उत्तर भारत में लोग उनके बारे में बहुत कम या न के बराबर जानते हैं। मगर तानाजी की निष्ठा और उनकी वीरता के प्रति उनके बालमित्र और महाराज छत्रपति शिवाजी के मन कितना स्नेह और आदर था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है- कोंडाना किले को पुन: प्राप्त करने की लड़ाई में जब तानाजी मारे गए, तो शिवाजी महाराज ने कहा था- ‘गढ़ तो आया, पर सिंह चला गया।’ कहते हैं, शिवाजी ने उसके बाद कोंडाना का नाम बदल कर सिंहगढ़ कर दिया।
छत्रपति शिवाजी (शरद केलकर) ने अपनी कूटनीति, रणणीति और छापापार युद्ध शैली की बदौलत दक्षिण में अपने शासन का अच्छा-खासा विस्तार कर लिया था। मुगलों के साथ उनका शह-मात का खेल जारी था। उधर औरंगजेब (ल्यूक केनी) ने दक्षिण में अपने साम्राज्य को और मजबूती देने की योजना बनाई। उसने बड़ी सेना दक्षिण की ओर भेजी। शिवाजी को मुगलों से समझौता करना पड़ा और अपने 23 किले उन्हें देने पड़े, जिनमें कोंडाना भी शामिल था। उस समय शिवाजी की मां राजमाता जीजाबाई (पद्मावती राय) ने प्रतिज्ञा की, जब तक कोंडाणा फिर से मराठों के पास नहीं आ जाता, तब तक वे नंगे पैर रहेंगी। चार साल बाद मराठे अपनी शक्ति जुटा कर कोंडाना पर फिर से कब्जा करने की तैयारी करते हैं। औरंगजेब कोंडाना का किलेदार बनाकर उदयभान सिंह राठौड़ (सैफ अली खान) को भेजता है। शिवाजी इस अभियान का नेतृत्व स्वयं करने की योजना बनाते हैं। उनके सलाहकार ऐसा करने से मना करते हैं और अपने किसी विश्वस्त को भेजने की सलाह देते हैं। सुबेदार तानाजी मालुसरे (अजय देवगन) ने कई लड़ाइयां जीती हैं। लेकिन शिवाजी महाराज उनको इस अभियान में नहीं भेजना चाहते, क्योंकि वह और उनकी पत्नी पार्वती (काजोल) अपने बेटे की शादी की तैयारियों में व्यस्त हैं। तानाजी को यह बात पता लग जाती है, और वह शिवाजी को इस बात के लिए मजबूर कर देते हैं कि कोंडाणा के अभियान का नेतृत्व वह तानाजी को करने दें। उनके लिए निजी जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण स्वराज और भगवा ध्वज है। तानाजी प्रतिज्ञा करते हैं कि वह उदयभान को मार कर राजमाता के पैरों में जुतियां पहनाएंगे। लेकिन उनके साथ विश्वासघात होता है और उनकी योजना उदयभान को पता लग जाती है...

तानाजी की ऐतिहासिकता में तो कोई संदेह नहीं है, मगर इतिहास में उनके बारे में जानकारी बहुत कम उपलब्ध है। उन पर सवा दो घंटे की फिल्म बनाने के लिए निश्चित रूप से काफी मेहनत करनी पड़ी होगी। फिल्म में ऐतिहासिक घटनाओं का प्रतिशत कितना है और कितनी कल्पना है, यह कह पाना मुश्किल है। वैसे भी जब कोई ऐतिहासिक फिल्म बनती है, तो उसमें रचनात्मक छूट ली जाती है। और यह ठीक भी है, बशर्ते रचनात्मक छूट के नाम पर इतिहास की धज्जियां न उड़ाई जाएं। तानाजी को देख कर लगता है कि इसमें सिनेमाई छूट के नाम पर बहुत ज्यादा इधर-उधर की बातें नहीं हैं। पटकथा पर मेहनत की गई है। शिवाजी के समय और माहौल को रचने में निर्देशक और उनकी टीम सफल रहे हैं। संवादों में दम है और वे दर्शकों के मन में असर छोड़ने वाले हैं। हालांकि भगवा तथा स्वराज का बार-बार जिक्र कुछ लोगों को खटक सकता है। ओम राउत का निर्देशन बहुत अच्छा है। उन्होंने तानाजी सहित सभी चरित्रों को बहुत अच्छे-से गढ़ा है। कुछ इस तरह कि कई किरदार कम स्क्रीन टाइम मिलने के बावजूद अपना प्रभाव छोड़ते हैं। जैसे तानाजी की पत्नी पार्वती और राजमाता जीजाबाई के किरदार। हालांकि उदयभान के किरदार में नाटकीयता थोड़ी ज्यादा है और शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास स्वामी के बारे में फिल्म में कोई जिक्र नहीं है। तानाजी और पार्वती के प्रेम को भी कम दृश्यों में प्रभावशाली तरीके से दिखाया गया है।

फिल्म के विजुअल इफेक्ट, ग्राफिक्स (वीएफएक्स) शानदार हैं और एक्शन फर्स्ट क्लास। देख कर मजा आता है। फिल्म को 3-डी में देखने में ज्यादा मजा आएगा। जब भाले और तीर चल रहे होते हैं, तो कई बार गर्दन अपने आप दायें-बायें हो जाती है। फिल्म का संगीत वीर रस से ओतप्रोत है। ‘शंकरा रे शंकरा’ और ‘मां भवानी’ गीत जोश पैदा करते हैं। सिनेमेटोग्राफी अच्छी है। फिल्म का क्लाइमैक्स गर्व की भावना पैदा करता है और भावुक भी करता है। तानाजी के किरदार में अजय देवगन का काम बहुत बढ़िया है। हालांकि कहीं कहीं वे ‘सिंघम’ नजर आते हैं, लेकिन कुल मिलाकर उन्होंने इस किरदार में जान फूंक दी है। खलनायक के रूप में सैफ अली खान का काम शानदार है। वह धूतर्तता और क्रूरता को अपने किरदार में सहजता से ले आए हैं। काजोल का रोल छोटा है, लेकिन इस छोटे-से रोल में ही वह बड़ा प्रभाव छोड़ती हैं। अगर कद-काठी की असंगतता को छोड़ दिया जाए, तो शरद केलकर शिवाजी के रूप में असरदार रहे हैं। पद्मावती राव भी प्रभावित करती हैं। राजकुमार कमला देवी के रूप में नेहा शर्मा का काम भी ठीक है। ल्यूक केनी और बाकी कलाकारों का काम भी अच्छा है। इस फिल्म की कास्टिंग बहुत अच्छी है।
यह फिल्म समय की धूल में दब गए इतिहास के एक पन्ने को झाड़ कर सबके सामने लाने की कोशिश करती है। यह एक अच्छी तरह से बनाई गई फिल्म है, जो प्रेरित करती है।
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