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MOVIE REVIEW: बादलों के पार, उम्मीद तलाशती है बियॉन्ड द क्लाउड्स, फिल्म देखने से पहले पढ़ें रिव्यू

फिल्म का ट्रेलर आने के दिन से ही इसकी तुलना डैनी बॉयल की ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ से की जाने लगी थी, पर फिल्म देखने के बाद यह तुलना जायज नहीं लगती। ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ में मुम्बई...

MOVIE REVIEW: बादलों के पार, उम्मीद तलाशती है बियॉन्ड द क्लाउड्स, फिल्म देखने से पहले पढ़ें रिव्यू
ज्योति द्विवेदी दिल्लीSat, 21 April 2018 01:39 PM
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फिल्म का ट्रेलर आने के दिन से ही इसकी तुलना डैनी बॉयल की ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ से की जाने लगी थी, पर फिल्म देखने के बाद यह तुलना जायज नहीं लगती। ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ में मुम्बई जहां खुद एक किरदार थी, वहीं ‘बियॉन्ड द क्लाउड्स’ में मुम्बई एक ऐसी लोकल ट्रेन के समान है, जो कहानी के विभिन्न स्टेशनों से होकर गुजरती है।

फिल्म को देखते हुए एक बार भी ऐसा महसूस नहीं होता कि हम एक विदेशी के नजरिये से गढ़ा गया सिनेमा देख रहे हैं। निर्देशक माजिद मजीदी आहिस्ता-आहिस्ता हमें किरदारों के नजदीक ले जाते हैं और यह एहसास कराते हैं कि घोर नाउम्मीदी में उम्मीद की छोटी-सी किरण को थामे रखने का सुकून क्या होता है! फिल्म कहीं-कहीं विशुद्ध बॉलीवुड नाटकीयता की ओर झुकती है, पर अंत होते-होते दर्शक इस कमी को भुला देता है। निश्चित रूप से यह निर्देशक की सफलता है। 

यह है कहानी...

यह कहानी है आमिर (ईशान खट्टर) और तारा (मालविका मोहनन) की, जो भाई-बहन हैं और मुम्बई में अपने-अपने संघर्षो से जूझ रहे हैं। आमिर ड्रग्स की सप्लाई कर जल्दी से जल्दी बड़ा आदमी बनना चाहता है। वहीं मालविका अपने शराबी, हिंसक पति से अलग रहते हुए किसी तरह गुजारा कर रही है। दोनों की एक-दूसरे से कुछ शिकायतें हैं। इस बीच एक घटना इनकी जिंदगी में तूफान ला देती है। तारा का पड़ोसी अक्शी (गौतम घोष) उसका बलात्कार करने की कोशिश करता है। बचने की कोशिश में तारा उसके सिर पर प्रहार करती है, जिससे वह बुरी तरह घायल हो जाता है। तारा को पुलिस जेल में बंद कर देती है। इस घटना के बाद आमिर का हृदय परिवर्तन होना शुरू होता है। वह किसी भी कीमत पर अपनी बहन को जेल से निकलवाना चाहता है, पर ऐसा तभी संभव है, जब अक्शी यह बयान दे कि तारा निर्दोष है..।

दिल छू लेने वाले  पल...

फिल्म में दिल छू लेने वाले कई पल हैं। खासकर आमिर की मनोस्थिति बदलने से जुड़े दृश्य। जिस तरह वह अपनी बहन के बलात्कारी के परिवार की महिलाओं की मदद में अपने हिस्से की खुशी तलाश लेता है, वह काबिले तारीफ है। अक्शी की मां झुम्पा की भूमिका निभाने वाली अदाकारा जी. वी. शारदा का काम प्रभावित करता है। फिल्म में कई बार आमिर के साथ आपकी भावनाएं भी जुड़ती हैं। जब उसका किशोर मन इस उधेड़बुन में होता है कि क्या अक्शी का बदला उसकी बहन से लिया जाए, तो आपके भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि इस संघर्ष में जीत पाशविक प्रवृत्ति की होगी या इनसानियत की.. इस वक्त समाज में जैसा माहौल है, उसे देखते हुए यह फिल्म सही संवेदनाएं जगाने का काम करती है। 

इस फिल्म में सिनेमेटोग्राफर अनिल मेहता कुछ अद्भुत दृश्य दिखा पाने में कामयाब रहे हैं। परदे पर पड़ने वाली छाया को माजिद ने कई जगह सांकेतिक रूप में इस्तेमाल किया है, जो प्रभावी लगा है। एक दृश्य में झुम्पा की दोनों पोतियां, आमिर के साथ क्रेयॉन कलर से दीवार पर आकृतियां बना रही हैं। इस तरह के दृश्य देर तक याद रह जाते हैं। एक और महत्वपूर्ण बात यह, कि मजीदी की इस फिल्म के जरिये बॉलीवुड को एक अच्छा अभिनेता मिल गया है। 

जहां ईशान के भाई शाहिद अपने शुरुआती दौर में चॉकलेटी चेहरे वाले मासूम हीरो लगते थे, वहीं ईशान में पहली फिल्म से ही गजब की परिपक्वता नजर आती है। डांस करते वक्त भी उनकी ऊर्जा देखते बनती है। कुछ बॉलीवुडिया दृश्यों में वह जरूर लड़खड़ाते हैं, पर अधिकतर जगहों पर वह दर्शक को मजबूर कर देते हैं कि वह उन पर ध्यान टिका कर रखें। मालविका ने भी अच्छा काम किया है, पर कुछ दृश्यों में उनका रोना-चीखना सहज नहीं लगा, हालांकि यहां कमी दृश्य की बुनावट में भी थी। ए. आर. रहमान का संगीत कुछ विशेष प्रभावित नहीं करता। 

फिल्म का इंटरवल से पहले का हिस्सा जरा धीमा है, पर इंटरवल के बाद फिल्म सही गति पकड़ लेती है। इस फिल्म के जरिये बॉलीवुड को एक अच्छा अभिनेता मिल गया है। जहां ईशान के भाई शाहिद अपने शुरुआती दौर में चॉकलेटी चेहरे वाले मासूम हीरो लगते थे, वहीं ईशान में पहली ही फिल्म से ही गजब की परिपक्वता नजर आ रही है।

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