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Girish Karnad Profile: साहित्य और सिनेमा की दमदार आवाज थे गिरीश कारनाड

गिरीश कारनाड रंगमंच और फिल्मों के दमदार अभिनेता के साथ उच्च कोटि के लेखक और कई भाषाओं के प्रकांड विद्वान थे। वे अभिव्यक्ति की आजादी के बड़े पैरोकार थे। उनके जैसी प्रतिभाएं दुर्लभ होती हैं। वे कन्नड़,...

Girish Karnad Profile: साहित्य और सिनेमा की दमदार आवाज थे गिरीश कारनाड
लाइव हिन्दुस्तान टीम नई दिल्लीTue, 11 June 2019 10:49 PM
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गिरीश कारनाड रंगमंच और फिल्मों के दमदार अभिनेता के साथ उच्च कोटि के लेखक और कई भाषाओं के प्रकांड विद्वान थे। वे अभिव्यक्ति की आजादी के बड़े पैरोकार थे। उनके जैसी प्रतिभाएं दुर्लभ होती हैं। वे कन्नड़, हिंदी मराठी और अंग्रेजी धाराप्रवाह बोलते थे। उन्हें चार बार फिल्मफेयर अवार्ड के साथ पद्मश्री, पद्मविभूषण और ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया था।

जन्म से मराठी पर कन्नड़ साहित्य में योगदान
महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के हिल स्टेशन माथेरान में 19 मई 1938 को जन्मे गिरीश रघुनाथ कारनाड बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कारनाड महाराष्ट्र के कोंकणी भाषी परिवार में पैदा हुए। उनकी शुरुआती पढ़ाई मराठी में हुई, जब उनका परिवार धारवाड़ में चला गया तो वे कन्नड़ में पढ़ने लगे। आगे उनका सारा जीवन कन्नड़ भाषा के लिए योगदान करते हुए कर्नाटक में बीता। हालांकि वे अंग्रेजी और मराठी के बड़े जानकार थे पर लेखक के तौर पर उन्होंने कन्नड़ भाषा को चुना। उन्होंने अंग्रेजी के कई प्रतिष्ठित नाटकों का अनुवाद भी किया। 1960 के दशक में नाटकों के लेखन से कर्नाड को लोग पहचानने लगे। तकरीबन पांच दशक से ज्यादा समय तक वो कर्नाड नाटकों के लिए सक्रिय रहे।

ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई और शिकागो में प्रोफेसर
गिरीश कारनाड स्वतंत्र भारत के भारतीय रंगमंच के प्रमुख हस्ताक्षर थे। कारनाड 1958 में स्नातक करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भी गए। 1960 से 1963 के बीच ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई के बाद कुछ समय तक वे शिकागो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भी रहे, लेकिन उनका मन बाहर नहीं लगा और वे वापस लौट आए। भारत आने पर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, चेन्नई में सात साल काम किया। फिर वे मद्रास थियेटर समूह से जुड़ गए।

भारतीय रंगमंच के प्रमुख हस्ताक्षर 
एक नाटककार के तौर पर कारनाड हिंदी के मोहन राकेश, मराठी के विजय तेंदुलकर और बांग्ला के बादल सरकार के साथ मिलकर उस चतुर्भुज को बनाते थे जिसने आजादी के बाद नाट्य लेखन में बड़ा योगदान किया। उनके 1964 में लिखे ‘तुगलक’ नाटक में नए बनते राष्ट्र और महत्वाकांक्षी शासक के अपने द्वंद्व में भारत का द्वंद्व अभिव्यक्त हुआ। ‘हयवदन’ नाटक में भारतीय रंगमंच को वह मुहावरा मिला जिसे सच्चे अर्थों में भारतीय रंग मुहावरा कहा जा सकता था। उनके नाटक कई बार कन्नड़ से पहले हिंदी में मंचित किए गए। वो लगातार नाटक लिखते रहे, उनके नए नाटकों में से एक ‘उन्हें पुणे शहर एक में’ कास्मोपोलिटन शहर के कई हिस्सों और सिरों पर रहते जीवन की टकराहट दिखाई देती है जो हमारे महानगरों का यथार्थ है। ययाति, नागमंडल, रक्त कल्याण, बिखरे बिंब, वेडिंग एलबम जैसे नाटक उन्होंने भारतीय रंगमंच को दिए जिसे कई भारतीय भाषाओं में मंचित किया गया। उनके नाटक रक्त कल्याण का देश भर में 150 बार से ज्यादा मंचन हो चुका है।

समांतर और व्यवसायिक सिनेमा के शानदार अभिनेता  
गिरीश कारनाड ऐसे अभिनेता थे जिनके काम को समांतर सिनेमा के साथ व्यवसायिक सिनेमा में शानदार अभिनय के लिए सराहा गया। कारनाड ने 1970 में कन्नड़ फिल्म ‘संस्कार’ से अपना फिल्मी सफर शुरू किया। उनकी पहली फिल्म को ही कन्नड़ सिनेमा के लिए राष्ट्रपति का गोल्डन लोटस पुरस्कार मिला।

उन्होंने कई हिंदी फिल्मों में भी भावपूर्ण अभिनय किया। 1977 में वे शबाना आजमी के साथ फिल्म ‘स्वामी’ में नजर आए। श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी ‘निशांत’ और ‘मंथन’ में भी गिरीश ने भूमिकाएं की। नागेश कुकुनूर की ‘इकबाल’ और ‘डोर’ उनकी दो और चर्चित फिल्में हैं। गिरीश कारनाड ने सलमान खान की फिल्म एक था टाइगर और ‘टाइगर जिंदा है में भी काम किया था। कारनाड को चार फिल्म फेयर अवॉर्ड भी मिले। उन्हें 1978 में फिल्म ‘भूमिका’ के लिए नेशनल अवॉर्ड मिला था।

गिरीश ने बीवी कारंथ के साथ मिल कर 1977 में गोधुलि का निर्देशन किया। यह ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह की शुरुआती फिल्म थी। भारतीय शास्त्रीय संगीत पर बनी उनकी फिल्म ‘सुरसंगम’ में शास्त्रीय संगीत के प्रकांड पंडित की भूमिका में गिरीश कला के हर बिंदु पर हीरे जैसे प्रकाशवान प्रतीत होते हैं। इस फिल्म में उनके साथ जयाप्रदा थीं। उन्होंने 1984 की चर्चित फिल्म उत्सव का निर्देशन किया था।

मालगुडी डेज में स्वामी के पिता
आरके नारायण की कथा पर 1986 में निर्देशक अंनत नाग के बनाए बेहद शानदार हिंदी धारावाहिक ‘मालगुडी डेज’ में गिरीश कारनाड ने मुख्य पात्र स्वामी के पिता की भूमिका निभा कर उस चरित्र को अमर बना दिया। बेहद शांत, कठोर भी और अपने पुत्र को अनुशासन में रखने वाले, उससे बेइंतहा प्यार करने वाले पिता की कई शेड लिए हुए उनका चरित्र था।

प्रमुख नाटक  

ययाति (1961), तुगलक (1964), हयवदना (1972), अग्नि बरखा, नागमंडला (1988), रक्त कल्याण, बिखरे बिम्ब, वेडिंग एलबम। तलेदंड ( हिंदी में रक्त कल्याण), द ड्रीम्स ऑफ टीपू सुल्तान, ओडाकालू बिमंबा,  द फायर एंड द रेन।

प्रमुख फिल्में

संस्कार (1970), निशांत (1975), मंथन (1976), स्वामी (1977), गोधुलि (1977), भूमिका (1978), उत्सव (1984), सुरसंगम (1985), नागमंडला (1996), एक था टाइगर (2012), टाइगर जिंदा है (2017)

पुरस्कार और सम्मान

1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार

1974 में पद्मश्री

1980 में फिल्मफेयर पुरस्कार।

1992 में पद्मभूषण और कन्नड़ साहित्य अकादमी पुरस्कार

1994 में साहित्य अकादमी पुरस्कार

1998 में साहित्य के प्रतिष्ठिीत ज्ञानपीठ अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।

04 बार हिंदी फिल्मों के लिए फिल्मफेयर अवार्ड मिला।

04 बार दक्षिण भारतीय सिनेमा में फिल्म फेयर अवार्ड मिला।

प्रशासनिक जिम्मेवारी

1974-75 के दौरान गिरीश कारनाड पुणे फिल्म संस्थान के निदेशक रहे।

1988 से 1993 तक वे संगीत नाटक अकादमी के चेयरमैन रहे।

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