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विश्वविद्यालय उपभोक्ता कानून के दायरे में आते हैं या नहीं, सुप्रीम कोर्ट करेगा विचार

उच्चतम न्यायालय इस सवाल पर विचार के लिये तैयार हो गया है कि क्या शिक्षण संस्थान या विश्वविद्यालय पर, सेवा में कमी के लिये उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत मुकदमा किया जा सकता है। इस विषय पर शीर्ष अदालत...

विश्वविद्यालय उपभोक्ता कानून के दायरे में आते हैं या नहीं, सुप्रीम कोर्ट करेगा विचार
एजेंसी,नई दिल्लीWed, 21 Oct 2020 04:52 PM
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उच्चतम न्यायालय इस सवाल पर विचार के लिये तैयार हो गया है कि क्या शिक्षण संस्थान या विश्वविद्यालय पर, सेवा में कमी के लिये उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत मुकदमा किया जा सकता है। इस विषय पर शीर्ष अदालत के परस्पर विरोधी फैसले हैं। न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चंद्रचूड, न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति इन्दिरा बनर्जी ने सेवाओं में खामियों के आरोप में तमिलनाडु के सलेम स्थित विनायक मिशन यूनिवर्सिटी के खिलाफ मनु सोलंकी और अन्य छात्रों की अपील विचारार्थ स्वीकार कर ली है।
     
पीठ ने 15 अक्टूबर को अपने आदेश में कहा, ''चूंकि इस न्यायालय का इस विषय पर अलग अलग दृष्टिकोण है कि क्या एक शिक्षण संस्थान या विश्वविद्यालय उपभोक्ता संरक्षण कानून, 1986 के दायरे में आयेगा। इस अपील को विचारार्थ स्वीकार करने की आवश्यकता होगी।''
     
न्यायालय ने कैविएट दायर करने वाले विश्वविद्यालय की ओर से पेश अधिवक्ता सौम्यजीत से कहा कि वह राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के फैसले के खिलाफ दायर अपील पर छह सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करें।
     
विश्वविद्यालय ने महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय और पीटी कोशी मामलों का सहारा लेते हुये कहा है कि इन फैसले में व्यवस्था दी गयी है कि शिक्षा वस्तु नहीं है और शैक्षणिक संस्थायें किसी प्रकार की सेवा प्रदान नहीं करती हैं।
     
संस्थान के अनुसार, अत: प्रवेश और शुल्क के मामले में किसी भी प्रकार की सेवा का सवाल नहीं उठता और इसलिए उपभोक्ता मंच या आयोग सेवा में कमी के सवाल पर विचार नहीं कर सकते। हालांकि, छात्रों ने शीर्ष अदालत के दूसरे फैसलों का हवाला दिया है जिसमें कहा गया है कि शिक्षण संस्थायें उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में आयेंगी।

मुआवजे की मांग    

विनायक मिशन यूनिवर्सिटी के मेडिकल पाठ्यक्रम के सोलंकी और आठ अन्य छात्रों ने सेवा में खामी और समाज में हैसियत गंवाने, शैक्षणिक सत्र गंवाने, तथा मानसिक और शारीरिक वेदना के आधार पर इस संस्थान से 1.4-1.4 करोड़ रूपए के मुआवजे की मांग की है। 
     
इन छात्रों का आरोप है कि इस संस्थान ने झूठे वायदों के आधार पर उन्हें अपने यहां के पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने के लिये आकर्षित किया और कहा कि उनके पास प्राधिकारियों की सारी स्वीकृतियां हैं।
     
छात्रों को 2005-2006 के समुद्रपारीय कार्यक्रम के तहत प्रवेश दिया गया । इसके तहत दो साल की शिक्षा थाइलैंड में और ढाई साल की शिक्षा यहां होनी थी। इन छात्रों को विश्वास दिलाया गया था कि उन्हें भारत सरकार और भारतीय चिकित्सा परिषद से मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय की एमबीबीएस की अंतिम वर्ष की डिग्री प्रदान की जायेगी। 

छात्रों को अवसरों से वंचित होना पड़ा     

याचिका में आरोप लगाया गया है कि दो साल थाईलैंड में पढ़ाई के बाद छात्रों को सूचित किया गया कि उन्हें थाईलैंड में ही अपनी पढ़ाई जारी रखनी होगी और उन्हें विदेशी मेडिकल डिग्री मिलेगी और उन्हें बाद में भारत में स्क्रीनिंग टेस्ट देना पड़ेगा। छात्रों ने अपील में कहा है कि इससे उन्हें अपने जीवन के अवसरों से वंचित होना पड़ा है क्योंकि नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन ने कहा है कि चूंकि उनकी डिग्री भारतीय चिकित्सा परिषद या मेडिकल काउन्सिल आफ थाईलैंड से मान्यता प्राप्त नहीं हैं, इसलिए उनके पास प्राइमरी मेडिकल योग्यता नहीं है।
    
राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने 20 जनवरी को अपने फैसले में कहा था कि उसकी सुविचारित राय में शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में नहीं आती हैं। 

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