मतदान बनाम लोकतंत्र
मतदान वास्तव में लोकतंत्र का पर्यायवाची नहीं है। थाईलैंड का उदाहरण देखिए, वर्ष 2014 में सेना ने फिर से तख्तापलट किया था, पर चूंकि सैन्य शासन को आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में सही नहीं माना जाता, फलत: इस...
मतदान वास्तव में लोकतंत्र का पर्यायवाची नहीं है। थाईलैंड का उदाहरण देखिए, वर्ष 2014 में सेना ने फिर से तख्तापलट किया था, पर चूंकि सैन्य शासन को आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में सही नहीं माना जाता, फलत: इस वर्ष वहां चुनाव हुए। वादा था कि लोकतंत्र की वापसी होगी, पर वास्तव में सैन्य शासन को ही आगे चलाने की मंशा थी, सो सेना ने अपनी पार्टी गठित कर ली। संविधान के साथ धांधली की गई, ताकि सेना समर्थित पार्टी को जिताया जा सके। वोटों की गणना के लिए 45 दिनों का समय लिया गया। विगत बुधवार को घोषणा की गई। परिणामों के आकलन के लिए विचित्र व विस्तृत फॉर्मूला आजमाया गया। जिस लोकतंत्र समर्थक नई पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया है, उसके नेता को देशद्रोह समेत अनेक मामलों में आरोपी बना दिया गया। अंतत: तख्तापलट के नेता ही चुनावी जनादेश के मुखौटे के साथ प्रधानमंत्री के रूप में अपना पद बचाए रखेंगे। दुनिया में कई स्थानों पर नेताओं ने परिणाम को अपने पक्ष में करने के नए-पुराने तरीके अपनाए हैं। यूक्रेन में राष्ट्रपति चुनाव में मतपत्र पर नामक्रम में हाई प्रोफाइल राजनेता यूलिया टिमोशेंको से पहले एक अन्य प्रत्याशी वाई वी टिमोशेंको का नाम दे दिया गया। पिछले महीने बेनिन के चुनाव में एक वित्तीय नियम लाकर सभी विपक्षी पार्टियों को अयोग्य करार दिया गया। निक चीजमैन और ब्रियान क्लास ने अपनी किताब हाऊ टु रिग ऐन इलेक्शन में लिखा है कि चुनाव निरंकुश शासकों के लिए उपयोगी हो सकते हैं। वे विपक्ष को बांट देते हैं, उनके राजनीतिक आधार को सीमित कर देते हैं, विरोधियों की महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रण में रखते हैं। एक नियंत्रित समाज में मतदान सिर्फ आज्ञापालन का रिवाज बन जाता है। उत्तर कोरिया में लोग कठपुतली प्रतिनिधि चुनते हैं, मतपत्र पर सिर्फ एक नाम होता है। आश्चर्यजनक नहीं कि निरंकुश शासक उन संस्थाओं का कद घटाने की साजिश रचते हैं, जो उनके लिए बाधा बन सकती हैं। ऐसे लोकतंत्रों को अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या वे लोकतंत्र कहलाने की सच्ची योग्यता रखते हैं।