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अब यह रहस्य तो रहा नहीं कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक आपातकाल का मुद्दा है और इससे इसी प्राथमिकता पर निपटना होगा। हम सब जानते हैं कि इसके दुष्प्रभावों के लिए नेपाल सबसे मुफीद है। जलवायु परिवर्तन पर एक...
अब यह रहस्य तो रहा नहीं कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक आपातकाल का मुद्दा है और इससे इसी प्राथमिकता पर निपटना होगा। हम सब जानते हैं कि इसके दुष्प्रभावों के लिए नेपाल सबसे मुफीद है। जलवायु परिवर्तन पर एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि हमारे पास इससे निपटने के लिए बहुत लंबा वक्त नहीं है और अगर हम अपनी अर्थव्यवस्थाओं में तेजी से बदलाव न ला सके, तो चीजें हाथ से निकल जाएंगी। नेपाल इस मामले में पहले से ही कमजोर है। लंबे समय से सूखा झेल रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। बाढ़ कभी भी आ जाती है, और लंबे समय से मौसम के बिगड़े मिजाज ने हमारी आधी से ज्यादा आबादी के लिए रोटी-रोजी के एकमात्र साधन कृषि को बर्बाद करके रख दिया है। हालांकि सरकार ने कुछ नीतियां जरूर बनाईं, लेकिन उसे हालात की गंभीरता का अंदाजा फिर भी नहीं है। राष्ट्रहित और राष्ट्रीय सुरक्षा इन दिनों नया जुमला हैं, लेकिन इसका राग अलापने वाले जब तक जलवायु परिवर्तन के खतरे की भयावहता को नहीं समझेंगे, वे शब्दों की बाजीगरी में ही उलझे रहेंगे। सरकार जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (सीओपी24) में शामिल होने की तैयारी भले कर रही हो, उसके पास अपने प्रयासों के नाम पर दिखाने के लिए कछ खास नहीं है। दक्षिण एशिया के नेपाल क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क की ताजा रिपोर्ट भी बताती है कि जलवायु परिवर्तन के लिए सतर्क रहने, काम करने की तमाम योजनाएं अपनाने का दावा करने के बावजूद हम वास्तव में उलटी दिशा में जा रहे हैं। रिपोर्ट सरकारी जुमलेबाजी और क्रियान्वयन के बीच की हकीकत का बयान करती है, और इसमें तमाम ऐसे इशारे हैं, जहां संभलने की जरूरत है। सच तो यह है कि हम इस सब के लिए जरूरी तंत्र ही कभी नहीं बना सके। सरकार अगर इसे वाकई गंभीर समस्या मानती है, तो विशेषज्ञों की सलाह लेकर वह सब करना होगा, जो हालात बिगड़ने से रोक सके। बिना इसके न तो हम ऐसे सम्मेलनों में योगदान दे सकेंगे, न ही वहां से निकले संदेशों को अपनाकर देश को इसके खतरे से बचा सकेंगे।