इमरान की पार्टी में मतभेद
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी (पीटीआई) से फौजिया कसूरी का इस्तीफा पार्टी के लिए एक बड़ा झटका है। खासकर तब, जब यह जमात अब भी अपनी जड़ों के प्रति अडिग होने के दावे कर रही है। यह सचमुच शर्मनाक बात है कि...
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी (पीटीआई) से फौजिया कसूरी का इस्तीफा पार्टी के लिए एक बड़ा झटका है। खासकर तब, जब यह जमात अब भी अपनी जड़ों के प्रति अडिग होने के दावे कर रही है। यह सचमुच शर्मनाक बात है कि इस सियासी पार्टी के संस्थापक सदस्य इस आधार पर पार्टी छोड़कर जा रहे हैं कि उनकी बातें नहीं सुनी जा रहीं और लगातार बदलते रुख के कारण पार्टी यह लगातार दिशाहीन स्थिति में है। 2013 के इंंतिखाब के बाद से ही पीटीआई पार्टी को एकजुट रखने के लिए संघर्ष करती रही है। खासकर संस्थापक सदस्यों के मामले में यह दिखता है, जो इस बिना पर पार्टी में शामिल हुए थे कि इसकी खूबी इसके उम्मीदवार होंगे। हालांकि, जब पार्टी ने एक सूबे में सरकार चलाने का तजुर्बा हासिल किया, तो उसे आम चुनाव में जीताऊ उम्मीदवारों की अहमियत का एहसास हुआ। बहरहाल, जो पार्टी अपने उन लोगों की चिंताओं को दूर नहीं कर पा रही है, जिन्होंने उसे अवाम में पहुंंचाने व पाकिस्तान की सियासत में सुर्खरू करने के लिए अपना खून-पसीना बहाया, वह सत्ता में आने पर बड़ी-बड़ी नीतियां लागू करने और बड़े कदम उठाने के वादे कर रही है। फिर जिस तरह से पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के दिग्गज नेताओं शाह महमूद कुरेशी व जहांगीर खान तारीन के मतभेद खुलकर सामने आए हैं, उससे यह समझना मुश्किल नहीं कि यह पार्टी कितनी ठोस पॉलिसी तैयार कर पाएगी और उनको वक्त पर अमल करा पाएगी। यह बताता है कि पीटीआई के भीतरी समूहों में काफी अनिश्चितता है और उसके पास ऐसी कोई सुसंगत विचारधारा नहीं है, जो उन सबको बांध सके और आगे का रास्ता दिखा सके। पर अपने पुराने सदस्यों के पार्टी छोड़ जाने को गंभीरता से लेने की बजाय पीटीआई इस्तीफा देने वालों की छवि खराब करने में अपनी ताकत लगा रही है। पार्टी का यही रवैया हमने फौजिया कसूरी के मामले में भी देखा है। अब यह तो वक्त बताएगा कि आम चुनाव में फौजिया का जाना कोई असर डालता है या नहीं, मगर पीटीआई एक चुनाव क्षेत्र की सियासत वाली पार्टी बन गई है।