आम सहमति के मसले
किसी भी गंभीर मुद्दे पर अलग-अलग राय हो सकती है,लेकिन ऐसे मुद्दों को एक झटके से नकारना अनुचित है। स्वीकार न भी हो, तब भी, कम से कम वैकल्पिक सुझाव की अपेक्षा तो की ही जाती है। मसलन, किसी कंपनी के...
किसी भी गंभीर मुद्दे पर अलग-अलग राय हो सकती है,लेकिन ऐसे मुद्दों को एक झटके से नकारना अनुचित है। स्वीकार न भी हो, तब भी, कम से कम वैकल्पिक सुझाव की अपेक्षा तो की ही जाती है। मसलन, किसी कंपनी के निजीकरण से असहमति है, तो उसे उबारने के उपाय तो सुझाने होंगे, वरना माना जाएगा कि यह विरोध के लिए विरोध है। पाकिस्तान के दोनों प्रमुख दलों पीपीपी और पीटीआई की यही स्थिति दिख रही है। वे पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस और पाकिस्तान स्टील मिल्स के निजीकरण का विरोध तो कर रहे हैं, इन्हें घाटे से उबारने का उनके पास कोई सुझाव नहीं है। इनकी पहल ज्यादा विश्वसनीय होती, अगर ये सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को घाटे से उबारने के लिए कोई स्पष्ट दृष्टिकोण लेकर सामने आते। एयरलाइंस का घाटा 320 अरब रुपये और स्टील मिल्स का घाटा 161 अरब रुपये पहुंच चुका है। यही हाल रहा, तो आने वाले वर्षों में यह घाटा देश के कुल शांतिकालीन रक्षा बजट से भी कहीं आगे निकल जाए, तो आश्चर्य नहीं होगा। सच है कि इन्हें उबारने के तमाम प्रयास नाकाफी साबित हुए हैं और यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अगर हालात इस स्तर पर पहुंचे हैं, तो इसके लिए भी कहीं न कहीं हमारा सामूहिक राजनीतिक नेतृत्व, उसकी अदूरदर्शिता ही जिम्मेदार रही है। प्रतिपक्षी के हर विचार के विरोध की राजनीतिक शैली ने हमारी संस्थाओं को बरबाद किया है। कुछ वास्तविकताएं हैं, जिनका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए। गैस और खनन के क्षेत्र में भी हमारी विपन्नता और सार्वजनिक उपक्रमों का जर्जर होते जाना इसी की देन है। अतीत से अब तक इन मसलों पर कभी कोई रचनात्मक पहल नहीं दिखी। अब इस पर गंभीर और सकारात्मक चर्चा की जरूरत है। निजीकरण जैसा कोई कदम भी जल्दबाजी में उठाने की सलाह तो नहीं दी जा सकती, इसके लिए बहुत सोची-समझी रणनीति बनाने की जरूरत है। दूरगामी असर के ऐसे मसलों पर सस्ती लोकप्रियता वाली राजनीति नहीं, स्थाई और सकारात्मक असर वाली व्यापक आम सहमति की जरूरत होती है।