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हिंदी का टू मिनट नूडल क्षण

अपनी हिंदी बड़ी ही अद्भुत भाषा है। उसे जितना पढ़िए, उतना गढ़िए। जितना सुनिए, उतना बुनिए। जितना रचिए, उतना ही सिरजिए। उतने ही सुखदाश्चर्य से भरते; मरते जाइए। यहां ‘कहा’ कुछ जाता है,...

हिंदी का टू मिनट नूडल क्षण
सुधीश पचौरी हिंदी साहित्यकारSun, 05 May 2019 12:34 AM
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अपनी हिंदी बड़ी ही अद्भुत भाषा है। उसे जितना पढ़िए, उतना गढ़िए। जितना सुनिए, उतना बुनिए। जितना रचिए, उतना ही सिरजिए। उतने ही सुखदाश्चर्य से भरते; मरते जाइए। यहां ‘कहा’ कुछ जाता है, ‘किया’ कुछ जाता है। जो ‘किया’ जाता है, वह ‘कहा’ नहीं जाता। जो नहीं ‘कहा’ जाता, वह ‘किया’ जाता है। हिंदी में ‘हां’ का मतलब ‘हां’ ही नहीं होता, ‘न’ भी हो सकता है, और ‘न’ का मतलब ‘हां’ भी। 
यही हिंदी की ‘लाक्षणिकता’ है। यहीं उसकी ‘व्यंजनात्मकता’ है। यही उसकी ‘ध्वन्यात्मकता’ है। यही उसका ‘बहुलार्थता’ है। यही उसकी ‘बहुवचनता’ है। यही उसकी ‘प्लूरिटी’ है। जितना बोला जाता है, उसका अर्थ उससे अधिक ही होता है। जो बताया जाता है, वह या तो उससे कुछ अधिक होता है या कम। हिंदी वाले तोलकर अर्थ नहीं लगाते। अर्थ हमेशा ‘छलकता’ है। हिंदी साहित्य में ‘अभिध’ नहीं चलती, कोरा ’शब्दार्थ’ नहीं चलता कि जो जितना कहे, उसका मानी उतना ही हो। 
वह ‘उलटबांसी’ की भाषा है। इन दिनों तो वह अक्सर ‘उलटबांसी’ में ही जीती है। यूं, कभी कबीर ही उलटबांसी के उस्ताद कहे जाते थे। लेकिन इन दिनों तो हर हिंदी लेखक ‘उलटबांसी’ का उस्ताद बना बैठा है। इसीलिए जब किसी गोष्ठी में कोई कहता है कि मैं सिर्फ ‘दो शब्द’ कहूंगा’ या ‘दो मिनट’ बोलूंगा, तो मैं सहम जाता हूं कि बेटा, अब झेलो। अब 20-30 मिनट खींचेगा, फिर भी पल्ले कुछ नया पड़ जाए, तो बताना। हिंदी की जटिल समस्याओं को समझने-समझाने के लिए दो मिनट तो क्या, दो घंटे भी अपर्याप्त हैं। इसीलिए हर वक्ता दो मिनट के बहाने मनचाहे मिनट तक बोलता है।
यही हिंदी की अपनी ‘बहुलार्थता’ है। हिंदी में शब्द का एक अर्थ नहीं होता, अनेक ‘अर्थ’ होते हैं। इसीलिए हिंदी ‘अनेकार्थवादी’ यानी ‘बहुलार्थी’ है। यह ‘बहुलार्थता’ हिंदी वालों को इस कदर प्रिय है कि आजकल ‘एकार्थ’ कहीं चलता ही नहीं। हर कोई हर शब्द का मनमाना अर्थ लगाता है। ंिहंदी के हर वक्ता के पास कहने को इतना कुछ होता है कि वह 20-30 मिनट में समा ही नहीं पाता। इतना बोलकर भी बुलास बची रह जाती है। 
यही हिंदी का ‘टू मिनट नूडल’ क्षण होता है। न वह दो मिनट में पक पाता है, न लेखक दो मिनट में बक पाता है। ऐसे ‘वक्ता’ ही तो गोष्ठियों की जान होते हैं। वही गोष्ठियों की सफलता का कारण होते हैं। वे न हों, तो आप कैसे जान पाएंगे कि हिंदी में ‘लक्षणा’ कैसे खेला करती है? तमाम वक्ता जो दो मिनट को फैलाकर 20 मिनट तक खींच ले जाते हैं, लक्षणा-व्यंजना के आचार्य अभिनवगुप्त और आनंदवर्धन से कम नहीं होते। क्या मजा आए अगर वक्ता घड़ी लगाकर सिर्फ दो मिनट बोले और चल दे।
पांच हजार साल की पंरपरा का बोध, पांच हजार से लेकर करोड़ों फेसबुकिया साहित्यकारों की रचनाओं और विचारों से निपटने की जिम्मेदारी से क्या दो मिनट में मुक्त हुआ जा सकता है? ‘दो मिनट’ कहकर अगर ‘दो मिनट’ ही बोला, तो क्या बोला? दो मिनट तो मंचासीनों के नामों के आगे ‘परमादरणीय’, ‘परम श्रद्धेय’ और फिर अंत में ‘जी’ ‘जी’ लगाने में ही निकल जाएंगे। दो मिनट का मतलब अगर दो मिनट ही लें, तो फिर हिंदी तो एकदम पैदल हो गई। निरी अभिध की भाषा हो गई। वह रचनात्मक कहां रही? इसलिए ‘दो मिनट’ को लाक्षणिक अर्थ में ही लिया जाता है, यानी दो मिनट का मतलब- आप जितना चाहें, उतना मिनट। 
यही तो हिंदी की मनचाही उदारता है।

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