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साहित्य सेवा में पव्वे की भूमिका 

साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य कमजोर की आवाज है। साहित्य सबका हित करता है। ऐसी बातें खामखयाली हैं। नई उत्तर आधुनिक परिभाषा के अनुसार, साहित्य का अर्थ है ‘पव्वा’ यानी...

साहित्य सेवा में पव्वे की भूमिका 
सुधीश पचौरी हिंदी साहित्यकारSat, 19 Jan 2019 08:43 PM
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साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य कमजोर की आवाज है। साहित्य सबका हित करता है। ऐसी बातें खामखयाली हैं। नई उत्तर आधुनिक परिभाषा के अनुसार, साहित्य का अर्थ है ‘पव्वा’ यानी ‘पावर’। जब से फ्रांसीसी उत्तर आधुनिक दार्शनिक अंकल फूको अपने कान में ‘पावर’ का मंत्र फूंके हैं, तब से अपन को साहित्य साहित्य नहीं लगता, वह ‘पावर’ या ‘पव्वा’ नजर आता है।

हमारे संस्कृत के महान आचार्य व्यर्थ ही काव्य की आत्मा को कभी रस में, कभी ध्वनि में, कभी वक्रोक्ति में, कभी रीति में तलाशते रहे। जबकि साहित्य की आत्मा रहती थी पावर यानी पव्वे में। अगर हम आचायार्ें के चक्कर में रहते, तो रस-ध्वनि का ही चक्कर लगाते रहते। भला हो अंकल फूको का कि समय रहते चेता गए कि साहित्य की चालक शक्ति है ‘पावर’ और चलताऊ हिंदी में कहें, तो ‘पव्वा’। यकीन न हो, तो आजमा के देख लीजिए।

आपको साहित्य में आना है, नाम कमाना है, बड़ा लेखक बनना है, तो पहले कुछ अपना ‘पावर’ बनाएं-कुछ ‘पव्वा’ बनाएं, फिर देखें कि समीक्षक आपके गुण गाते हैं कि नहीं? इतिहास आपको युग-निर्माता बताता है कि नहीं? इन दिनों पावर ही साहित्य है। जितनी ‘पावर’ उतना साहित्य। पावर गई, तो साहित्य गया। पावर गई, तो कोर्स से गए। इसीलिए कहता हूं कि हे साथी, साहित्य के द्वार आपके लिए हमेशा खुले हैं, पर साहित्य में आएं, तो अपने पावर या पव्वे के साथ आएं। बिना पव्वे के आप ‘कव्वे’ ही रहेंगें।

यहां ‘पावर’ या ‘पव्वे’ का तो एक ही अर्थ है, पर ‘पव्वे’ में श्लेष अलंकार है, जिसके फिर से दो अर्थ हैं। एक अर्थ तो है ‘पव्वा’। ‘पव्वा’ पावर का सड़क छाप संस्करण है। आम आदमी पावर को ‘पव्वा’ कहा करता है और इस ‘पव्वा’ का दूसरा अर्थ है ‘दारू वाला पव्वा’। ज्ञानी जन बताते हैं कि जिसके पास ये पव्वे होते हैं, इस कलियुग में वही असली साहित्यकार होता है। उसे साहित्य में जमने से कोई रोक नहीं सकता।

पव्वा शब्द है ही ऐसा लीलाधारी। अनेक अर्थों वाला यह शब्द ‘पव्वा’ इतना दिव्य है कि एक ही झटके में लेखक के दैहिक, दैविक और भौतिक- तीनों किस्म के तापों का शमन करता है। जब साहित्यकार गोष्ठी-पश्चात के रसरंग में जाकर लहराने लगे, घर लौटते वक्त किसी नाले या नाली में पतित होकर अपतित मित्रों द्वारा गाली सहित ऊपर उठाया जाए यानी कि बाहर निकाला जाए, और जब टैक्सी में उलटी करके ड्राइवर से बेहिसाब गालियां खाता हुआ देर रात घर लौटे, तब समझिए कि पव्वे ने साहित्य में अपना पूरा काम किया है।

दिल्ली में ऐसे पव्वा प्रेमियों की कमी नहीं, जिनकी नाक मीलों दूर से उस ठिकाने को सूंघ लेती है, जहां पव्वा खुला करता है और तभी साहित्य का अंतरंग खुलता है। पव्वा ही साहित्य की दिशा तय करता है। किसको क्या मिले, कौन कहां छपे, यह सब पव्वा तय करता है। जिसका पव्वा होता है, उसी का सब कुछ होता है। वही इनाम का, इकराम का आयोजक, नियोजक, वियोजक और अभियोजक होता है। इस पव्वे के साथ अगर किसी के पास आईएएस वाला पव्वा है या किसी के पास डॉक्टरी का पव्वा है, या मेडिकल वाला पव्वा है, किसी के पास इनकम टैक्स का पव्वा है, तो तय मानिए कि साहित्य में या तो अफसर आया या उसकी पत्नी आई और साहित्य में अब छाई कि तब छाई। सब पव्वे की करामात है।
आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास असल में ‘पव्वे का ही इतिहास’ है। 

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