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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़र ताऊ तेरी याद सतावै

ताऊ तेरी याद सतावै

न किसी से वाद कर सका, न विवाद, न संवाद। ऐसा लेखक भी क्या लेखक? लेखक तो वह, जो ‘वादे वादे जायते तत्वबोध:’ के बहाने एक विवाद पैदा कर दे। विवाद से प्रवाद फैलेगा। प्रवाद से वाद बढे़गा। वाद का...

 ताऊ तेरी याद सतावै
सुधीश पचौरीSat, 05 Aug 2017 11:40 PM
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न किसी से वाद कर सका, न विवाद, न संवाद। ऐसा लेखक भी क्या लेखक? लेखक तो वह, जो ‘वादे वादे जायते तत्वबोध:’ के बहाने एक विवाद पैदा कर दे। विवाद से प्रवाद फैलेगा। प्रवाद से वाद बढे़गा। वाद का प्रतिवाद होगा। प्रतिवाद के आगे मुकदमा और मुकदमा लटकंत होगा। विवाद की उम्र जितनी लंबी, उतना ही लेखक का फायदा, प्रकाशक का फायदा। अफसोस, विवाद बनाने के तरीके हिंदी वाले आज तक सीख नहीं पाए। सीख लेते, तो वे भी कुछ बन गए होते। जिनने कुछ बनाए भी, वे गली छाप, ननद-भौजाई छाप। वह उसके साथ भाग गया, वह उसके साथ भाग गई। इतनी साहित्यिक क्रांतियां घट गईं, लेकिन हिंदी अपना पैदलपना नहीं छोड़ पाई। 

अब तो विवाद पैदा करने के नए-नए तरीके विकसित हो चले हैं। एक पूरा शास्त्र विकसित हो चला है। एजेंसियां बन गई हैं। जितना विवाद चाहें, उतना पाएं। जिस तरह का चाहें, जितनों को शामिल करना चाहें, बस रेट बदल जाएगा। दो दिन चलाना है। सप्ताह तक चलाना है। अखबार में ब्रेक करना है। चैनलों पर करना है। सोशल मीडिया में वायरल करना है, तो वह भी हो जाएगा। सब एक साथ भी संभव है।
अच्छे विवाद वे होते हैं, जो लिमिटेड होते हैं। जिनमें सब मजा लें, वे सर्वोत्तम होते हैं। माफी की मांग करवाने वाले विवाद सबसे सफल विवाद होते हैं। लेखक पहले कहता है कि मेरा मतलब ये नहीं था, फिर खेद प्रकाश करता है। जब खेद को भी अस्वीकार कर दिया जाता है, तो वह बिना शर्त माफी मांग बड़प्पन दिखाता है। लोग सोचते हैं, यह लेखक दमदार है। टस से मस नहीं हुआ। कोई लेखक दो-चार दिन टिका रहे, तो वह हिट हो जाता है। अडं़त एक पॉजिटिव मूल्य है। हटंत होने से कीमत गिर जाती है।

 आंकड़ा निकालें, तो मालूम पड़ेगा कि वही लेखक और उसकी वही किताबें ज्यादा बिकीं, जिनके आसपास कोई विवाद रहा। इस मामले में फिल्म वालों से सीखा जा सकता है। वे रिलीज से पहले विवाद बनाते रहते हैं और सौ, दो सौ करोड़ बटोर ले जाते हैं। हिंदी वालों ने आज तक कुछ न सीखा, शायद इसीलिए मार्केट ठंडा रहता है। तमिल को देखो। मलयालम को देखो। एक से एक टॉप क्लास विवाद पैदा करने वाले मिल जाएंगे और एक अपने हिंदी वाले हैं। हिंदी के लेखक अभी तक शिष्ट-सौम्य दिखना चाहते हैं। इसीलिए हिंदी के मार्केट में कोई उत्तेजना, कोई उठान नहीं नजर आती। वह ठंडा ही पड़ा रहता है। हंगामा हो, तो हिंदी वालों का ध्यान जाए और कुछ पाठक बनें।

जब तक अपना ताऊ था, विवाद के टोटे न थे। एक बार तो उसने ऐसा संपादकीय लिख  मारा कि पुलिस को उसे सुरक्षा देने आना पड़ा। पुलिसवाला और वह भी गनमैन। ताऊ तो घबरा गया। फोन कर कहने लगा कि यार पचौरी! इस बंदूक वाले को हटवा। डर लगता है, कहीं मेरी तरफ ही लिबलिबी दब गई तो? एरिया का एसएचओ साहित्यप्रेमी था, सो ताऊ की प्रॉब्लम समझकर हंसने लगा- जब इतना भी दम नहीं, तो काहे पंगे मोल लेते रहते हैं महाराज? बड़ी मुश्किल से उस सिक्युरिटी गार्ड को हटवा सके।
जब से ताऊ सिधारा है, तब से हिंदी साहित्य सूना पड़ा है। न कहीं एक वाद है, न कोई विवाद है। न जीवंत संवाद है, न कहीं प्रतिवाद है, न प्रतिसंवाद है। न एक झगड़ा है, न रगड़ा है। हिंदी न जाने क्यों सात हाथ का घूंघट काढ़े लाजवंती बनकर अंगूठे से जमीन कुरेदती हुई अपने को धन्य समझती रहती है। 
हाय मेरे ताऊ! जब से तू गया सै, एक विवाद तक के लिए तरस गया हूं।
 

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