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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रश्रोता की तलाश में समारोह

श्रोता की तलाश में समारोह

उस दिन अपना ‘हिंदी साहित्य’(शॉर्ट में ‘हिंसा’) बोला- भाई साब, आजकल बड़े संकट में हूं। मुझे उबारिए। मैंने हमदर्दी जताते हुए पूछा- मेरे प्यारे, क्या तुमको किसी ने पीटा है? किसी...

श्रोता की तलाश में समारोह
सुधीश पचौरी (हिंदी साहित्यकार),नई दिल्ली।Sat, 19 Oct 2019 11:01 PM
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उस दिन अपना ‘हिंदी साहित्य’(शॉर्ट में ‘हिंसा’) बोला- भाई साब, आजकल बड़े संकट में हूं। मुझे उबारिए। मैंने हमदर्दी जताते हुए पूछा- मेरे प्यारे, क्या तुमको किसी ने पीटा है? किसी ने देशद्रोही कहा? हिंसा बोला- अपने ऐसे भाग्य कहां? अपनी समस्या तो ‘श्रोता’ हैं। कल ही ‘दो दिवसीय अखिल भारतीय समारोह’ निपटा चुका हूं, दोनों दिन हॉल खाली रहे। मैंने कहा- चलो, श्रोताओं ने तुमको तंग तो नहीं किया। हिंसा- कोई तंग करने वाला भी तो नहीं आया। वक्ता तो आए, लेकिन श्रोता नहीं आए। मैंने कहा- यह जनतंत्र है। सबकी अपनी मरजी। जबर्दस्ती थोड़े है कि कोई तुमको सुनने आए ही। इतना टाइम किसके पास है? हिंसा- अच्छा तो अब हम ऐसे गए-बीते हो गए कि हमारे लिए किसी के पास टाइम नहीं है। जानते हो न कि साहित्य-संगीत-कला विहीन मनुष्य साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीन:  छाप हो जाता है। मैंने कहा- बंधु, ऐसी बात नहीं है। यह ‘जेन नेक्स्ट’ का जमाना है। अब लड़के-लड़कियां नेटफ्लिक्स पर एक से एक अपराध-सेक्स की फिल्में देखने में मस्त रहते हैं। ऐसे में वे कवियों के रोने-धोने को सुनने क्यों आएं। और मित्र, बुरा न मानना, तुम्हारे साहित्यकारों ने आजकल ऐसा मनहूस रूप बना रखा है कि उसे देखते ही आदमी भाग उठता है कि यार, कहां आ फंसे? हिंसा- किंतु भाई साब। हमारे ‘वे’ तो हमेशा चाय-नाश्ता-लंच सब देते हैं।

कवि-कहानीकार और साहित्य के चर्चक-अर्चक सब आते हैं, मगर कुरसियां खाली पड़ी रहती हैं। एक कवि पढ़ता, तो दूसरा मन ही मन कुढ़ता है कि देखो तो दुष्ट कितने आत्म विश्वास से बोर किए जा रहा है, और फिर जब दूसरे का नंबर आता है, तो पहले वाला उसे घटिया कहता है। कवि होना बड़ी बात है। फिर कविताओं की तो अपने पास बोरियां भरी पड़ी हैं। कहानियों का स्टॉक भी जरूरत से अधिक है, और उपन्यास, आत्मकथा और संस्मरणों की भी कोई किल्लत नहीं, आलोचक तो इतने हैं कि एक बुलाओ, पचास आएं, लेकिन सरजी, कमी साहित्य प्रेमी ‘जनता’ की है। प्लीज हेल्प मी। मैंने पीछा छुड़ाने के लिए कहा- यार, तुम हमेशा के ‘कम्प्लेंट बॉक्स’ बने रहते हो। पहले शिकायत थी कि ‘पाठक’ नहीं हैं, अब विलाप करते हो कि ‘श्रोता’ नहीं हैं। रोना-धोना छोड़ो। श्रोता फ्री में नहीं मिलते। बजट बढ़ाओ। श्रोताओं को सम्मान दो। आने-जाने के लिए ‘ओला-उबर’ दो। उनको कम से कम पांच हजार रुपये प्रति घंटा ‘सिटिंग अलाउंस’ दो। देखना, तब आएंगे। जितनी देर बिठाओ, बैठेंगे।

हिंसा- लेकिन इन दिनों जब हम कवियों को ही कुछ नहीं देते, तो श्रोताओं को कैसे दे सकते हैं? सब कवि फ्री आते-जाते हैं, श्रोताओं को भी तो अपने आप आना चाहिए न? जब दूल्हा ‘फ्री’ है, तो बारातियों को क्यों पैसे दें? मैंने कहा- दूल्हा हो न हो, आज के समय में बारात ही ‘मस्ट’ है। दूल्हे से कहो कि अपनी बारात साथ लेकर आए, नहीं तो घरवालों को ही ले आए। हॉल तो भरेगा। हिंसा- भाई साब। घरवाले तो पहले ही कवि को झेल-झेलकर पक चुके होते हैं। कवि से सब बचे-बचे फिरते हैं। मैंने बोला- तब वही करो, जो ‘दल’ करते हैं। एजेंसियों की मदद लो और ‘पेड’ श्रोता बुलाओ। कई कवि-आलोचक एजेसियां चलाते हैं, ‘पैसा दो श्रोता लो’। अपना उद्धार चाहते हो, तो इस तरह का रचनात्मक कार्य तो करना पडे़गा। आम आदमी, यानी श्रोता की कीमत तो समझनी ही होगी। इतना सुनते ही अपना ‘हिंसा’ श्रोताओं की तरह अंतध्र्यान हो गया।

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