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एक धमकी का सवाल है बाबा

उनको मिल गई। इनको मिल गई। लेकिन मुझे अब तक नहीं मिली। हीनता-बोध से मरा जाता हूं। जिनको मिली, वे महान हो लिए। टीवी में छा गए। इतिहास बन गया। इनको मिली, तो यह भी चढ़ गए। हमदर्दी मिली। मित्र बोले- साथी...

एक धमकी का सवाल है बाबा
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 07 Oct 2017 10:07 PM
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उनको मिल गई। इनको मिल गई। लेकिन मुझे अब तक नहीं मिली। हीनता-बोध से मरा जाता हूं। जिनको मिली, वे महान हो लिए। टीवी में छा गए। इतिहास बन गया। इनको मिली, तो यह भी चढ़ गए। हमदर्दी मिली। मित्र बोले- साथी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। लेकिन मुझको आज तक किसी ने नहीं दी। मिलती, तो मेरा भी कल्याण हो जाता। भाव भी बढ़ जाता। अकड़ के निकलता। लोग कहते कि अरे यह तो वही है, जिसे धमकी मिली है। बुड्ढा है मरगिल्ला, लेकिन धमकी पाते ही देखो कैसा सीना तानकर निकल रहा है? लेखक हो, तो ऐसा। अहो भाग्य कि वह हमारी दुकान से ‘ब्रेड’ लेता है। एक जमाना वह भी था, जब कवियों को थानेदार बनाया करते थे। उनकी कृपा जिस कवि पर हो जाती, वह रातोंरात ‘क्रांतिकारी’ हो जाता। चर्चा में आ जाता। हम बेरोजगार जनवादी टाइप खुश होते कि चलो, एक क्रांतिकारी किस्म का काम तो मिला। फौरन एक वक्तव्य बनाते और सिग्नेचर कैंपेन चलाने लगते। 

अस्सी का दशक। एक मामूली युवा कवि थे वेणुगोपाल। एक दिन एक थानेदार की कृपा हो गई, तो वह साहित्यिक हल्कों में बड़ी ‘खबर’ बन गए। वह तुरंत ‘क्रांतिकारी’ कवि मान लिए गए। तब के मीडिया में छा गए। कई कवियों के लिए खतरा बन गए। इस अवदान के लिए हिंदी साहित्य थानेदार का अरसे तक कर्जदार रहा। अस्सी के दशक में, जब न इतना टीवी था, न सोशल मीडिया, तब साहित्य को समृद्ध करने में जो भूमिका थानेदार ने निभाई, वह अतुलनीय थी। दस शुक्ल जी लिखते या पच्चीस नामवर सिंह, तब भी वेणु की उतनी चर्चा न होती, जितनी कि हुई। उसके इस विनम्र योगदान को तब यदि किसी ने पहचाना, तो एक वरिष्ठ कवि ने पहचाना कि एक थानेदार ने बनाया वेणु को कवि। ‘खग जानै खग ही कै भाषा’। थानेदार के ऐसे साहित्यिक योगदान देख-सुनकर तब मन हुआ कि सिग्नेचर कैंपेन छोड़कर थानेदार जी के चरण कमलों में दंडवत करने लगूं।

अस्सी के दशक के बाद साहित्य के दिन अब फिर से बहुर रहे हैं। बस थानेदार की जगह ‘धमकीदाताओं’ ने ले ली है। इधर धमकी दी, उधर साहित्यकार का नाम आसमान में चढ़ा। लेकिन धमकी सबको नहीं, किसी बड़भागी को ही मिलती है। धमकी ही इस दौर के साहित्य की आलोचना है। जब तक न मिले, साहित्यकार का मन गिरा-गिरा रहता है, वह कुढ़ता रहता है।
यूं तो मैं हजार किस्म की उपेक्षाएं सह सकता हूं, पर धमकीदाताओं की इस उपेक्षा को नहीं सह सकता। सबको देते हो और मेरा नंबर आता है, तो कहते हो कि धमकी ‘आउट ऑफ स्टॉक’ है। यह भेदवाद असह्य है। मैंने आपका क्या बिगाड़ा? मुझे लगता है कि आप में और जिनको आप धमकी देते हो, उनमें मिलीभगत है, वरना ऐसा क्यों है कि वे धमकी को तमगे की तरह टांगकर निकलते हैं और हम ‘सिग्नेचरवादी’ बनकर रह जाते हैं। हिंदी वाला हूं। अपनी बिरादरी की फितरत जानता हूं। हिंदी वाले जानते हैं कि धमकी भी ‘अर्जित’ की जाती है। धमकी अर्जित करना एक कला है। आप हेट करें। हेट से रेट बढ़ेगा, तो आपका ‘वेट’ बढ़ेगा। वेट बढ़ेगा, तो धमकी का गेट खुलेगा ‘धमकी मिलत मिटत सब पीरा’।

हीनता-बोध का मारा मैं इन दिनों एक ठो धमकीदाता की तलाश में हूं। मेरे करियर का सवाल है। पेमेंट, नो प्रॉब्लम। जो रेट कहोगे, दूंगा। डॉयरेक्ट कैश ट्रांसफर। बस इतिहास में लिख जाए कि मुझे भी मिली थी। अब भी अगर नहीं दी, तो याद रखना- मैं एक धमकी खुद को ही दे डालूंगा। फिर न कहना कि बताया नहीं।
 

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