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हिंदी साहित्य की अंगोछा विषयक उदासीनता

हिंदी साहित्य सब पर कुर्बान हुआ है, लेकिन अंगोछे पर एक लाइन नहीं मिलती। कवियों ने न जाने किस-किस चीज पर लिखा, लेकिन अंगोछे को न जाने क्यों छोड़ दिया? आखिर उसने कवियों का क्या बिगाड़ा था कि किसी ने उसे...

हिंदी साहित्य की अंगोछा विषयक उदासीनता
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 26 May 2018 09:54 PM
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हिंदी साहित्य सब पर कुर्बान हुआ है, लेकिन अंगोछे पर एक लाइन नहीं मिलती। कवियों ने न जाने किस-किस चीज पर लिखा, लेकिन अंगोछे को न जाने क्यों छोड़ दिया? आखिर उसने कवियों का क्या बिगाड़ा था कि किसी ने उसे एक लाइन के लायक भी नहीं समझा? कितने प्रगतिशील कवि हो गए और कितने जनवादी हुए पड़े हैं। कितने ही जनसंस्कृति मंच वाले कवि घूमते नजर आते हैं, लेकिन अंगोछे को न जाने क्यों किसी ने लिफ्ट न दी।

इतना लंबा प्रगतिशील आंदोलन चला और ढला, लेकिन ढूंढ़ने पर भी अंगोछे का जिक्र न मिला। लगता है कि अंगोछा साहित्य के बाबूडम का शिकार हुआ है। वह उनकी अफसरी का शिकार बना है। जबकि अंगोछा बेहद प्रोग्रेसिव है। उसे पहनते ही रिएक्शनरी से रिएक्शनरी आदमी भी प्रगतिशील नजर आता है। अंगोछा आदमी को सर्वहारा बनाता है। आप देखें कि जो उसे पहनता है, वह सब कुछ हारा हुआ यानी सर्वहारा सा लगता है। जो उसे पहन लेता है, ऐसा लगता है कि अभी-अभी खेत की गुड़ाई करके आ रहा है। अंगोछा डालते आदमी बिना मेहनत किए मेहनतकश जैसा नजर आता है।

अकेले बिहार ने अंगोछा बचाकर रखा है। कुछ उसी तरह बचाकर रखा है, जिस तरह से उसने साहित्य बचाकर रखा है। पता नहीं, अंगोछा किसके शाप के कारण साहित्य में आने से वंचित रह गया? 

जबकि बिहार में अब भी वह साहित्य के कंधे पर शोभायमान नजर आता है, बाकी हिंदी साहित्य में क्यों नहीं आता? साहित्यकार भी किसी रंगबाज से कम होते हैं क्या? रंगबाज हफ्ता वसूलते हैं, साहित्यकार भी हफ्ते की जगह तारीफ वसूलते हैं।       

जब से दिखा है, तब से सोच रहा हूं कि उसे हिंदी साहित्य में होना ही चाहिए। अंगोछे की महिमा गाई ही जानी चाहिए। मुझे तो अंगोछा कबीर की याद दिलाता है। अंगोछा साक्षात एनजीओ है। अंगोछा जमीनी होने का लाइसेंस है। अंगोछा गरमी में पसीना सुखाता है। सरदी में सरदी भगाता है। अंगोछा आम आदमी है। अंगोछा मल्टी परपज है।

एक बार साहित्य करने गया, तो अंगोछा मिला। जब से मिला, तब से ही कंधे पर डाले रहता हूं। सब मुझे सर्वहारा समझते हैं। अंगोछे ने मेरी क्लास बदल दी है। मेरी पहचान बदल दी है और मुझे नई पहचान दे दी है।

साहित्य की बात करें, तो अंगवस्त्र का अपभ्रंश अंगोछा है। इन दिनों ज्यादातर नेता अंगवस्त्र धारण करते हैं, तो भले लगते हैं। उससे उनके मानी बदल जाते हैं। वे कुछ पवित्र-पवित्र से नजर आने लगते हैं। अंगवस्त्र का चलन दक्षिण में रहा है। उत्तर में यह उसी तरह आया है, जिस तरह कभी भक्ति आई थी- भक्ति द्राविड उपजी लाए रामानंद।/ परगट किया कबीर ने सप्तदीप नवखंड।

अंगोछा भी इसी तरह आया होगा या यहां से दक्षिण जाकर अंगवस्त्र बना होगा। जो हो, हमें तो लगता है कि अंगोछा साहित्य का कवच कुंडल है। किसी साहित्यिक गोष्ठी में फंसें, तो तुरंत अंगोछे से माथा पोंछने लगें। इपेक्ट अच्छा पड़ेगा। चश्मा धुंधलाया, तो पोंछ लिए। कुछ खाया-पिया, तो मुंह-हाथ पोंछ लिए। न टिशू पेपर खराब हो, न कूड़ा बने। नो वेस्टेज। 

अंगोछे का खेल बिगाड़ा अंग्रेजों ने। अंगोछे को विदाकर टाई लटका दी। जो उन्होंने अंगोछे के साथ किया, वही साहित्य के साथ किया। साहित्य को ‘डि-कॉलोनाइज’ करना है, तो उसे अंगोछा पहनाओ। उस पर कविता लिखो और उसे कविता में लाओ। अंगोछा जिंदाबाद।

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