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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रऐ गमे दिल क्या करूं

ऐ गमे दिल क्या करूं

कभी कबीर याद आते हैं, तो कभी मजाज लखनवी। मन कभी गुनगुनाने लगता है- रहना नहिं देस बिराना है  और कभी तलत महमूद की तरह गाने लगता है- ऐ गमे दिल क्या करूं, ऐ वहशते दिल क्या करूं? आप और मैं सगुण...

ऐ गमे दिल क्या करूं
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 24 Feb 2018 06:46 PM
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कभी कबीर याद आते हैं, तो कभी मजाज लखनवी। मन कभी गुनगुनाने लगता है- रहना नहिं देस बिराना है  और कभी तलत महमूद की तरह गाने लगता है- ऐ गमे दिल क्या करूं, ऐ वहशते दिल क्या करूं?

आप और मैं सगुण साहित्य में इसलिए तो नहीं आए थे कि इतने निर्गुनियां हो जाएं कि जब भी साहित्य को विजिट करें, ‘निर्गुण’ ही को पाएं। इसीलिए अब मन नहीं करता कि साहित्य में आएं-जाएं। एक साहित्यप्रेमी शहर का बुलावा था। बड़ी मनुहार की बुलाने वालों ने कि आपके बिना काम नहीं चलने वाला। आप आएंगे, तो हम सब धन्य होंगे। ‘उपकृत’ होंगे। ‘कृतार्थ’ होंगे। सब कहने की बातें हैं। न कोई धन्य होता है, न कोई कृतार्थ-वृतार्थ होता है। हां ‘कुत्तार्थ’ अवश्य होता है। समारोह निपटने के बाद बिना बोले कहा जाता है- अब फूट! 

जो भी साहित्य में अपने-अपने ‘फड़’ या ‘गद्दियां’ लगाए हैं, अपनी धूनियां रमाए हैं, अपनी दुकानें सजाए बैठे हैं, उन सबके संग यही होता है। साहित्य के नाम पर बहुत कुछ सहना पड़ता है। रहीम ने बहुत पहले समझा दिया था- काज परे कछु और है, काज सरे कछु और/ रहिमन भंवरी के भए नदी सिरावत मौर।
लेकिन मेरी समस्या सिर्फ इतनी नहीं है, बल्कि ‘सगुण’ साहित्य में ‘निर्गुण’ की नई ‘स्थापना’ की है। इससे साहित्य का ‘जायका’ बदल गया है। मन कहता रहता है कि साहित्य-वाहित्य सब बेकार है- रहना नहिं देस बिराना है।  साहित्य के मारे उस शहर ने मुझे पुकारा कि आकर साहित्य को बचाइए। कई और बंदों से भी गुहार की। हम सब बचाने पहुंचे। किसी ने 30 मिनट बचाया। किसी ने 20 मिनट बचाया। किसी ने पूरा एक घंटा साहित्य को बचाया। पूरे दो दिन तक बचाया और ऐसा बचाया कि साहित्य हमसे खुद बचता फिरा।

हमारी वीरता से सेमिनार निपट चुकी थी। श्रोता  चाय वाली लाइन लगाने को निकल लिए थे कि आयोजक का बंदा आया और कहने लगा- सर जी, इस पर दस्तखत कर दीजिए। मैंने कर दिए। फिर बोला- बैंक अकाउंट नंबर और आईएफएससी कोड दे दीजिए। मैंने पूछा- ये क्या बला है? तो हंसकर बोला- डिजिटल का जमाना है, कैश या चैक के दिन लद गए। पेमेंट सीधे आपके खाते में जाएगा। पिछले दिनों जहां जहां गया, खाली हाथ लौटा। सबने अकाउंट नंबर, पैन नंबर, आईएफएससी कोड मांगा। कई ने कहा- एक कैंसिल चैक ही दे दीजिए। 
साहित्य को बचाने के लिए गरजने वाले हम सबकी वीरता धरी रह गई। सबको अचानक एक ‘रिक्तता’ का अनुभव हुआ। ‘खालीपन’ महसूस हुआ। यह ‘नई कविता’ की रिक्तता से सवाई और सात्र्र के  अस्तित्ववाद से अधिक तीखी- पराया शहर और जेब खाली। जिस साहित्य को बचाने के लिए मैं दो सौ किलोमीटर दौड़ा गया और कई तो हजार मील से दौड़े आए, सबके हाथ खाली थे। हाथ में था तो एक झोला, वह भी खादी का, जिसमें पांच रुपये का एक पेन और दस पेजी राइटिंग पैड था। वह प्यारा-दुलारा ‘लिफाफा’ दूर-दूर तक नहीं था। कैश होता, तो जेब गरम होती। जेब गरम होती, तो मन गरम होता। शहर की मशहूर मिठाई ले जाता। बिनु पग चलै सुनै बिनु काना  की तरह वह एकदम ‘निर्गुण-निराकार’ था। जेब की जगह उसे सीधे बैंक में आना था।

जब से साहित्य में ऑनलाइन ‘निर्गुण’ तत्व आया है, मन खाली-खाली रहता है। मजाज की तरह गाता है- इस किनारे नोंच लूं या उस किनारे नोच लूं... ऐ गमे दिल क्या करूं, ऐ वहशते दिल क्या करूं? क्या करूं? क्या करूं?

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