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हिंदी का बैठा हुआ साहित्य

ये शाम के पांच बजे ‘बैठते’ हैं। ये आठ बजे ‘बैठते’ हैं। ये रात के दस बजे ‘बैठा’ करते हैं। ये सुबह से देर रात तक ‘बैठे’ ही रहते हैं।  हिंदी...

हिंदी का बैठा हुआ साहित्य
सुधीश पचौरीSat, 10 Feb 2018 07:16 PM
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ये शाम के पांच बजे ‘बैठते’ हैं।
ये आठ बजे ‘बैठते’ हैं।
ये रात के दस बजे ‘बैठा’ करते हैं।
ये सुबह से देर रात तक ‘बैठे’ ही रहते हैं। 
हिंदी साहित्य कहीं-न-कहीं नित्य ‘बैठता’ है। न बैठे, तो न एक कविता हो, न एक कहानी हो और न कोई एक हस्ताक्षर अभियान हो। ‘बैठना’ साहित्य की सबसे बड़ी प्रेरणा है। 

शाम होते ही मन ‘साहित्येतर’ होने लगता है। सात बजे के बाद सेमिनार में अध्यक्ष की कुरसी पर बिराजना, कालेपानी की सजा जैसा लगता है। मन आईआईसी-हैबिटेट की कुंज गलियों में सरपट दौड़ लगाने लगता है। बिना बैठे न साहित्य की शाम होती है, न सुबह। बिना बैठे साहित्य नहीं पचता।

वे बैठते हैं, तो साहित्य बैठता है। वे उठते हैं, तो साहित्य उठता है। कभी-कभी इतना बैठता है कि चाहे तो भी नहीं उठ पाता। सहारा देना पड़ता है, तब कहीं घर पहुंचता है।

बैठना एक ‘कल्चरल इवेंट’ है, जो हिंदी साहित्य में हर सुबह-शाम घटती है। उसी के चलाए साहित्य चलता है। 
बैठना एक सांस्कृतिक खुशबू है। असली लेखक वही है, जो बैठक की खुशबू दूर से सूंघ ले। वही दूरदर्शी कहलाता है। बैठने की खुशबू मीलों दौड़ाती है। यही साहित्य का ‘आत्मसंघर्ष’ है। लेखक न बैठ पाए, तो साहित्य का ‘संघर्ष पर्व’ शुरू होता है, और बैठ जाए, तो ‘शांति पर्व’ होता है। 

सभी बैठते हैं। अलग-अलग बैठते हैं। साथ-साथ भी बैठते हैं। प्रगतिशील बैठते हैं। जनवादी बैठते हैं। जसमंवादी बैठते हैं। धनवादी भी बैठते हैं। सभी ‘बैठने’ के उस्ताद हैं। इसीलिए हिंदी साहित्य ‘बैठा’ हुआ है।

लेखक लेखक से मिलता है, तो पहला सवाल यही पूछता है- कहां बैठना है?

क्या हाल है? क्या लिखा है? क्या लिख रहे हैं? उसे पढ़ा कि नहीं? इसे पढ़ा कि नहीं?- ये सारे सवाल ‘प्रतिक्रियावादी’ हैं।
लेखक की भूमिका क्या है? 
बैठना है।
गोष्ठी किस लिए?
बैठने के लिए।
एक दिवसीय, द्विदिवसीय, त्रिदिवसीय समारोह किस लिए?
बैठने के लिए।
शताब्दी मनाना क्या है? 
बैठने का बहाना है।
साहित्य की प्रासंगिकता? 
बैठना है।
ये सम्मान-वम्मान क्या हैं?
बैठना है।
विचारधारा क्या है? 
बैठना है।
बैठने के बाद ही ‘भैरवी’ जगती है और राग ‘कल्याण’ आलाप लेता है। बैठने के बाद ही कलाएं एक-दूसरे से गले मिलती हैं और साहित्य ‘तत्व चिंतन’ करने लगता है।
लेकिन ‘चिंतन’ का ‘तत्व’ क्या है?
बैठना है।
‘तय करो, किस ओर हो तुम’ जैसे सवाल का मतलब क्या है?
मतलब है, ‘तय करो कि कहां बैठना है’? ‘किसके साथ बैठना है’? 
बैठने के बाद बहुत कुछ नजर आने लगता है। फासिज्म तो तुरंत सामने खड़ा नजर आता है। जितना हलक तर होता जाता है, उतना ही एंटी-फासिस्ट स्ट्रगल तेज होता जाता है।
बैठे हुए साहित्य को जनतंत्र की बहुत 
याद आती है।

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