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एक लेखक की प्रार्थना

आप ही बताएं कि क्या करूं? कौन सा उपाय करूं प्रभु कि साहित्य में बना रहूं। साहित्य में तना रहूं। साहित्य में सना रहूं। देखिए तो ये बने हुए हैं। वो बने हुए हैं। इनको ये मिल गया। उनको वो मिल गया। मुझे...

एक लेखक की प्रार्थना
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSun, 15 Sep 2019 01:01 AM
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आप ही बताएं कि क्या करूं? कौन सा उपाय करूं प्रभु कि साहित्य में बना रहूं। साहित्य में तना रहूं। साहित्य में सना रहूं। देखिए तो ये बने हुए हैं। वो बने हुए हैं। इनको ये मिल गया। उनको वो मिल गया। मुझे क्या मिला? रोज फेसबुक पर ताल ठोकता हूं। अपने समय के सबसे बड़े ‘खल’ को नित्य ‘शाप’ देता रहता हूं। उच्चाटन और मारण मंत्र पढ़ता हूं। नित्य गरियाता हूं, पर उसका कुछ नहीं बिगड़ता। ये कैसे दिन आ गए प्रभु। मेरा दिया ‘शाप’ तक किसी को ‘नाराज’ नहीं करता, बल्कि जिसको शाप देता हूं, वही कहने लगता है कि मुझे और गरियाओ। मेरी और निंदा करो। मुझे मारो।
सुबह-सुबह, ब्रह्ममुहूर्त में ही एक बोतल खोलकर फेसबुक पर देश-दुनिया को ‘सही’ लाइन देने लग जाता हूं कि क्या ठीक है, क्या नहीं? जनता को क्या करना चाहिए, क्या नहीं? लोग मुझे ‘साइबर इंटेलेक्चुअल’ मानते हैं, ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ कहते हैं। मुझे ‘लाइक’ करने लगते हैं। मेरे लिखे पर ‘वाह-वाह’ करनेे लगते हैं। फिर भी लगता रहता है कि सब व्यर्थ है। कोई किसी को सीरियसली नहीं लेता। यह ‘मिलेनियल पीढ़ी’ तो किसी को भी लिफ्ट नहीं देती। दस काव्य संकलन, छह कथा संकलन, चार आलोचना पुस्तकें, हजारों भाषण, मगर पूछता-पहचानता कोई नहीं। इन दिनों सभी लेखक हैं। सभी अपने पाठक हैं। अपने व्याख्याकार भी हैं। अपने टीकाकार हैं, और सभी अपने फैन हैं। साहित्य का ऐसा ‘जनतंत्रीकरण’ हुआ है कि साहित्य ही गायब हो गया। कहीं साहित्य का अंत तो नहीं हो रहा? क्या ऐसे ही दिन देखने थे प्रभु?

जब लिखना शुरू किया था, तो अपने को कालिदास से कम नहीं समझता था। ‘अकादेमी’ झटक लिया, तो मेरी नजरों में कालिदास-भवभूति सब बौने हो गए। वे मेरे जैसे ‘अकादेमी’ कब हुए? इन प्रति-क्रांतिकारी दिनों में, एक क्रांतिकारी लेखक बनने के लिए मैंने क्या नहीं किया? हर तानाशाह को शाप दिया। किसी को ‘हिटलर’ कहा। किसी को ‘मुसोलिनी’ बताया। पर किसी का कुछ बिगड़ा? मेरी आलोचना से तो वे और हृष्ट-पुष्ट हो गए। फिर भी सुबह से गए रात तक खोजता फिरता हूं कि मेरी क्रांतिकारी ‘लाइन’ किसी ने पढ़ी कि नहीं। हर बार निराश होता हूं कि सब कितने मक्कार हो गए हैं। सब लाइक तो करते रहे, लेकिन क्रांति के लिए जंतर-मंतर तो क्या, घर से निकलकर मोहल्ले के नुक्कड़ तक में आए? कुछ तो ऐसे निकम्मे निकले कि दो शब्द तक नहीं लिखे, सिर्फ एक ‘इमोजी’ भेज दी। मुझे तो लगता है कि आज का सारा साहित्य इमोजी हो गया है। कविता इमोजी है। कहानी इमोजी है। विचार भी इमोजी है। सब कुछ ‘बना बनाया’ है। आपको उसे ‘चिपकाना’ भर है। 

हे प्रभु, यह कैसा साहित्यिक जनतंत्र है कि इन दिनों सभी कवि हैं, सभी कहानीकार हैं, सभी उपन्यासकार हैं, और सभी विचारक हैं। सब लेखक विचारक हो गए हैं, तो पढ़ने वाला कौन बचा? पहले जब मेरा कुछ भी छपता था, तो ‘पाठक’ टूट पड़ते थे। इन दिनों पढ़ने वाले बचे ही कहां हैं? जो बचे हैं, वे पांच सेकंड पढ़ने-सूंघने वाले ‘त्वरित पाठक’ हैं। नजरों से जरा छुआ और लाइक कर दिया। इन दिनों हर चीज पर ‘थम्स अप’ है। यह क्या हो रहा है प्रभु? साहित्य की दुनिया में इतना धारासार अमृत कब बरसा प्रभु? प्रभु जी देर तक इस लेखक का रोना-बिसूरना सुनते-देखते रहे और ‘वाट्सएप’ पर तुरंत तीन इमोजी चिपकाकर भेज दिए और फिर अपने ‘फेसबुक’ पर बैठ गए।

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