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साहित्य जिए तो जिए कैसे

साहित्य का दम घुट रहा है। न किसी से मिलना-जुलना; न इसकी उससे भिड़ाना, न उसकी इससे भिड़ाना; न मंच, न मचान, न गोष्ठी-संगोष्ठी; न कोई उत्सव, न समारोह, न किसी का साठवां-सत्तरवां-अस्सीवां जन्मदिन; न किसी का...

साहित्य जिए तो जिए कैसे
सुधीश पचौरी हिंदी साहित्यकारSat, 15 May 2021 09:44 PM
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साहित्य का दम घुट रहा है। न किसी से मिलना-जुलना; न इसकी उससे भिड़ाना, न उसकी इससे भिड़ाना; न मंच, न मचान, न गोष्ठी-संगोष्ठी; न कोई उत्सव, न समारोह, न किसी का साठवां-सत्तरवां-अस्सीवां जन्मदिन; न किसी का विमोचन, न लोकार्पण-थोकार्पण; न पुस्तक दिवस, न पुस्तक मेला-ठेला। साहित्य का माहौल ही नहीं बचा। बताइए, साहित्य का दम न घुटे, तो क्यों न घुटे? आदमी की ऑक्सीजन तो मिल सकती है, लेकिन साहित्य वाली ऑक्सीजन किसी बाजार में नहीं मिलती। वह अगर मिलती है, तो साहित्य के अंदर ही मिलती है, क्योंकि साहित्य स्वयं एक ऑक्सीजन है। वह अपनी ऑक्सीजन खुद बनाता है और लोगों को बांटता है। इस तरह, खुद भी ठीक रहता है और समाज को भी रखता है।
सब कोरोना की दूसरी लहर की कृपा है कि अब न साहित्य की वे शामें हैं, न काव्य-पाठ, न कथा-पाठ, न नाट्य-पाठ, न कोई एक दिवसीय, दो दिवसीय, तीन दिवसीय सेमिनार, न समारोह, न सम्मेलन, न अध्यक्ष, न प्रमुख अतिथि, और न कोई बीज वक्ता। न कार्ड, न आमंत्रण, न कार्यक्रम के डिटेल्स, न कोई विचारणीय विषय, न कोई चर्चा, न वाद- विवाद, न संवाद! लगता है, वादे-वादे जायते तत्वबोध: वाला दौर गया! ‘डबल मास्क’ लगाकर, छह फुट से भी अधिक दूरी रखकर क्या तत्व-बोध होगा? ऐसा ‘कांटेक्टलेस साहित्य’ भी क्या कोई साहित्य है? यह ‘कांटेक्ट’,  यानी संपर्क ही तो साहित्य की प्राण-वायु है। संपर्क और संबंध ही तो साहित्य के ऑक्सीजन सिलेंडर हैं। समाज से संपर्क नहीं, तो साहित्य नहीं। साहित्य जिए तो जिए कैसे? आदमी की ऑक्सीजन-जांच के लिए तो ऑक्सीमीटर हैं, ऑक्सीजन मास्क हैं, ऑक्सीजन टैंकर हैं, ऑक्सीजन सिलेंडर हैं, ऑक्सीजन कंसेंट्रेटर हैं, लेकिन साहित्य के लिए किसी के पास कुछ नहीं।
कहां गई साहित्य की वह छोटी सी खुशहाल कॉमरेडी दुनिया? कहां गईं वे कॉफी हाउस  वाली बैठकें, वह एक-एक चाय के प्याले में उठते सौ-सौ तूफान? न कहीं हंगामे, न ठहाके, न इसे गिराने-उसे उठाने की प्रिय साहित्यिक साजिशें, न रंजिशें, न शब्दों की कोई जंग, न कोई जोश, और न उत्साह! अब न कोई मोहन सिंह प्लेस है, न आईआईसी है, न हैबिटेट है, न त्रिवेणी है, न साहित्य अकादेमी के दूसरे-तीसरे फ्लोर हैं, जहां साहित्य के संत आपस में बैठकर ‘सत्संग’ कर सकें। जब तक साहित्य में वाद-विवाद न हो, तब तक संवाद कैसे हो? यही तो साहित्य का सत्संग है, जो साहित्य की प्राण-वायु है। जब तक साहित्य में साहित्यकार एक-दूसरे से बहसें नहीं, लड़े-झगड़े नहीं, तब तक साहित्य रचने की प्रेरणा ही नहीं होती। जब तक साहित्यकारों के बीच स्पद्र्धा, वैचारिक झगडे़ और रूठ-मटक्के न हों, तब तक कैसा साहित्य और कौन सा साहित्य? जब तक साहित्य की ये अंतरंग लीलाएं न हों, तब तक साहित्य क्या? साहित्य करे भी, तो आखिर क्या करे? कोरोना कहता है कि आपस में मिलना-जुलना मना है। ऐसे में, साहित्य हो, तो कैसे हो? मिलना-जुलना ही तो साहित्य की ऑक्सीजन है। साहित्य मिलेगा नहीं, तो खिलेगा कैसे? इन दिनों हर साहित्यकार एक-दूसरे से पूछता रहता है, आखिर कब तक चलेगा यह सब? कभी श्रीकांत वर्मा ने लिखा था, जो बचेगा, कैसे रचेगा। मैं तो कहता हूं कि जो रचेगा, सो बचेगा और जो बचेगा, सो रचेगा, इसलिए कोरोना के टीके लगवाकर बचे रहो और रचते रहो!

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