कविता को भी टीका लग जाता
टीका लगवाने के बाद जैसे ही मैंने अपने प्रिय कवि से टीके के बारे में पूछा, तो वह फोन पर ही फट पडे़- न लगवाया, न लगवाऊंगा। यह मुद्दा ‘नॉन निगोशिएबल’ है। मैंने पूछा- टीका न लगवाने का कारण?...
टीका लगवाने के बाद जैसे ही मैंने अपने प्रिय कवि से टीके के बारे में पूछा, तो वह फोन पर ही फट पडे़- न लगवाया, न लगवाऊंगा। यह मुद्दा ‘नॉन निगोशिएबल’ है।
मैंने पूछा- टीका न लगवाने का कारण? क्या आपको सुई से डर लगता है?
वह बोले- क्या बकवास कर रहे हैं आप? जो आदमी जिंदगी भर सत्य और न्याय के लिए संघर्ष करता रहा हो, जिसकी रचनाएं अलाव की तरह जलती हों और जो शख्स आपातकाल तक में नहीं डरा, वह क्या एक सुई से डर जाएगा?
तब न लगवाने की वजह?
तुम जैसे समझौतापरस्त, कायर व कमजोर लोग इस बात को नहीं समझ सकते। यह मेरा ‘आइडियोलॉजिकल स्टैंड’ है। इसलिए टीका नहीं लगवाना!
पर टीके में विचारधारा कहां से आ गई?
तुम्हारा विचारधारात्मक पतन हो चुका है। तुम नहीं समझ सकते। लेकिन मेरे लिए हर चीज विचारधारात्मक है- उनका जवाब था।
मैंने कहा- लेकिन टीका तो कोरोना के वायरस से बना है। उसी को सुई में भरकर लगाया जाता है, विचार भरकर तो नहीं लगाया जा रहा?
वह फट पड़े- तुम मुझे शासक वर्ग के दलाल लगते हो। इतना भी नहीं समझते कि ये टीके उन्होंने बनाए हैं, जो हमारे शोषक-उत्पीड़क हैं। ये फासिस्ट टीके हैं। फिर क्यों लगवाऊं?
साथी, कोरोना की दूसरी लहर खतरनाक नजर आ रही है। भगवान न करे कि आपको कुछ हो। हम आप जैसे साहित्यकार को खोना गवारा नहीं कर सकते- मैंने उन्हें समझाया।
अच्छा, तो तुम मेरी शोकसभा की तैयारी कर रहे हो! पर कोरोना मेरा कुछ न बिगाड़ पाएगा।
मैंने कहा- आप जैसे पढे़-लिखे लगवाएंगे, तो औरों को भी प्रेरणा मिलेगी और कोरोना के फैलने पर रोक लगेगी। सरकार यही चाहती है।
वह बोले- मैं इस सरकार की बात क्यों मानूं, जिसने किसानों की बातें न मानीं? जिसने मेरी कविताओं को न माना, मैं उसकी क्यों मानूं?
मैंने कहा- हम चाहते हैं कि आप अभी रहें। आपकी कविता रहे। नोबेल आपका इंतजार कर रहा है। इसलिए टीका लगवा लीजिए। आपका सुरक्षित रहना हिंदी साहित्य के लिए जरूरी है।
वह फिर इनकारी मुद्रा में बोले- कह दिया न कि मुझे नहीं लगवाना यह फासिस्ट टीका। जब अपना राज आएगा, तब लगवा लेंगे टीका।
अब मेरी बारी थी- किंतु साथी, टीके को हिंदू-मुसलमान ने नहीं, दुनिया के जाने-माने वैज्ञानिकों और डॉक्टरों ने बनाया है। लेबोरेट्रीज में बना है, फिर यह फासिस्ट कैसे हो गया?
वह लगभग चीख पड़े- अक्ल के दुश्मन! तुम नहीं समझ सकते। कोरोना एक फासिस्ट साजिश है, जो आदमी को आदमी से दूर कर देना चाहती है। और इस तरह साहित्य को भी जनता से दूर कर देना चाहती है। मैं इस साजिश के खिलाफ हूं। इसीलिए टीके के खिलाफ हूं।
मैंने कहा- सर जी, आपकी कविता तो खान मार्केट की कविता है। वहां जनता कहां होती है? आप टीका लगवा लेते, तो कविता को भी लग जाता। वह तो सुरक्षित हो जाती।
हमारी बातचीत इसी तरह खत्म हुई। एक दिन, उनकी श्रीमतीजी से मुलाकात हुई, तो उन्होंने बताया कि हम पहले ही दोनों टीके लगवा चुके हैं, पर चूंकि उनको फासिज्म से लड़ने की आदत पड़ी हुई है, इसलिए हर चीज को फासिस्ट समझकर फाइट करते रहते हैं! वैसे भाई साहब, यह फासिज्म क्या है, जिससे वह हर वक्त लड़ते रहते हैं और इस हालत को पहुंच गए हैं?
आप ही बताइए, मैं उनकी श्रीमतीजी को क्या समझाता?