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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रन हुआ ब्रेख्त सा अंजाम नसीब

न हुआ ब्रेख्त सा अंजाम नसीब

सोचता हूं, अब हिंदी के अपने चिर विद्रोही और क्रांतिकारी साथी साहित्यकारों को बधाई दे ही दूं। सच! वे सचमुच कलम के सिपाही बनकर एक तानाशाही से जूझते रहे; वे प्रेमचंद की मशाल की तरह जलते रहे और अपनी...

न हुआ ब्रेख्त सा अंजाम नसीब
Pankaj Tomarसुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 03 Aug 2024 09:23 PM
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सोचता हूं, अब हिंदी के अपने चिर विद्रोही और क्रांतिकारी साथी साहित्यकारों को बधाई दे ही दूं। सच! वे सचमुच कलम के सिपाही बनकर एक तानाशाही से जूझते रहे; वे प्रेमचंद की मशाल की तरह जलते रहे और अपनी कलम से ‘लांग मार्च’ करते रहे। मुझे ऐसे सभी साथियों पर इन दिनों बेहद गर्व महसूस होता है, जो अपने लक्षित शत्रु के खिलाफ रोज ‘खड्ग हस्त’ रहे,  संघर्ष चलाते रहे और सोशल मीडिया पर अपने सबसे बडे़ वर्ग शत्रु पर दिन-रात बरसते रहे।
इन सबने ‘विरोध कविताएं’ लिखीं। किसी ने रोज की तीन लिखीं, किसी ने चार, तो किसी ने सुबह-शाम लिखीं और सभी कविताएं सोशल मीडिया पर डालीं। उनको लाइक करवाया, फिर किताब के रूप में छपवाया व रिव्यू कराए, साथ ही छोटे-मोटे सम्मान झटक लिए। यह भी संघर्ष का हिस्सा रहा कि लड़ो और लड़ने की मुद्रा में फोटो खिंचवाओ, वीडियो बनाओ, यू-ट्यूब पर डालो, बड़ी संख्या में ‘फॉलोअर’ बनाओ और कुछ पैसे भी कमाओ।
संघर्ष सचमुच लंबा था। कोई रोज शत्रु को ललकारता रहा, तो कोई उसे दिन-रात दुत्कारता रहा; कोई रोज धिक्कारता रहा, तो कोई रोज गरियाता रहा और इसी तरह विरोध के साहित्य के इतिहास में अपने को दर्ज कराता रहा और खुद को लीडर बनाता रहा! उनकी कलम इस कठिन समय में भी वैचारिक संघर्ष चलाती रही। वह डर-डरकर डर का कीर्तन करती रही और निडर जनता को भी डराती रही। 
मगर वह खलनायक इतना चतुर निकला कि उसने इनके वर्ग संघर्ष को जरा भी ‘सीरियसली’ नहीं लिया। फिर एक दिन ऐसा संयोग हुआ कि तानाशाह का बहुत सा ‘ताना’ निकल गया, लेकिन ‘शाह’ फिर भी बचा रह गया। न कोई पूरी तरह जीता, न पूरी तरह हारा। लेकिन यह फिफ्टी-फिफ्टी भी मेरे जैसे डरपोकों के लिए गर्व की बात रही कि चलो, सबसे बडे़ खल को कुछ कवियों-कथाकारों की कविता-कहानी ने ही निपटा दिया! 
कभी कहा जाता था कि जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो, इसकी जगह अब कहा जाना चाहिए कि ‘जब तोप मुकाबिल हो, तो कविता निकालो’ और यही किया गया! विरोध की कविता सोशल मीडिया पर कही-सुनी जाती रही; विरोध की कहानी भी सोशल मीडिया पर कही-सुनी जाती रही। विरोध के कवि-कथाकार मानते रहे कि उन्हीं की कविता व कहानी ने ‘वर्ग शत्रु’ का दम निकाला है।
जिस प्रकार गांधीजी ने सत्याग्रह चलाया, हमारे ‘विरोध के कवियों’ ने कविताग्रह, कथाग्रह चलाया और अपना सत्ताग्रह भी चलाया। हुआ न कमाल का संघर्ष कि न किसी को किसी ने मारा, न किसी का किसी ने खून किया, यानी कि वही अमीर खुसरो की पहेली वाली बात कि बीसों का सिर काट लिया। ना मारा ना खून किया। बस इसी कारण बहुत से गर्व के साथ-साथ मुझे थोड़ी शर्म सी भी महसूस होती है।
इतिहास बताता है कि विरोध करने पर ब्रेख्त जैसे कवि और नाटककार  को जर्मनी से भागना पड़ा और वाल्टर बेंजामिन जैसे समाज व कला चिंतक को सीमा पार करते-करते शहीद होना पड़ा। लेकिन इधर न किसी विरोध के कवि को कहीं भागना पड़ा, न किसी कथाकार-व्यथाकार को जेल जाने का कष्ट उठाना पड़ा! इनके संघर्ष की अदा ऐसी रही कि किसी की कन्नी उंगली का नाखून तक नहीं कटा। मुझे आज इसी का अफसोस है। अगर किसी विरोध के कवि के साथ कुछ ऐसा-वैसा हुआ होता, तो आज हिंदी साहित्य को भी एकाध ब्रेख्त और बेंजामिन मिल गए होते। अपने यहां भी कुछ ‘रेजिस्टेंस पोयट्स’ हो जाते। हिंदी वाले भी दुनिया के साहित्यिक नक्शे पर छा जाते। नोबेल नहीं, तो बुकर की लाइन में ही लग जाते!
इस उपलब्धि पर हम जैसे जलोकडे़ भी कुछ दिन नाचते-गाते इठलाते। हम भी साहित्य के ‘फर्स्ट वर्ल्ड’ में दाखिल हो जाते, पर क्या करें ‘न हुआ पर न हुआ ब्रेख्त का अंजाम नसीब...।’