फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रमेरा सुंदर सपना बीत गया

मेरा सुंदर सपना बीत गया

कहां जाऊं, क्या करूं? किससे शिकायत करूं, किसके आगे रोऊं? आह! मैं पिछले 70 दिन से 70 साल पुराना सपना देख रहा था कि अब टूटेंगे ही मठ और गढ़ सब और बहुत हो लिया, अब हमारी है बारी, बदल के रहेंगे दुनिया ये...

मेरा सुंदर सपना बीत गया
सुधीश पचौरी हिंदी साहित्यकारSat, 30 Jan 2021 11:08 PM
ऐप पर पढ़ें

कहां जाऊं, क्या करूं? किससे शिकायत करूं, किसके आगे रोऊं? आह! मैं पिछले 70 दिन से 70 साल पुराना सपना देख रहा था कि अब टूटेंगे ही मठ और गढ़ सब और बहुत हो लिया, अब हमारी है बारी, बदल के रहेंगे दुनिया ये सारी। मैं सुबह अपनी ‘ऑडी’से निकल जाता और दिल्ली के बॉर्डरों पर जहां क्रांति के अलाव जलते होते, वहीं तापने लगता। साथियों का हुक्का गुड़गुड़ाने लगता। नाश्ते में हलवा उड़ाता, फिर लंच में मक्के दी रोटी, सरसों दा साग विद मक्खन लेता, संग में खीर सपोटता, फिर शाम को क्रांतिकारी जिम में जाता, अपने डोले-शोले चौड़ाता, रात को बिरयानी खाता, फिर मसाज कराकर थकान उतारता, और इकबाल बानो की गाई फैज की नज्म हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे  अपनी कार में सुनता हुआ घर आकर रिपोर्ताज लिखने लगता कि क्रांति का इतिहास आज कितना बढ़ा? कैसे बढ़ा? 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड के जरिए ‘जन-गण’ किस तरह गणतंत्र को ‘रिक्लेम’ करेगा। मैं रोमांचित होता और सोचता, कितना धन्यभाग हूं मैं, अपनी आंखों से एक महान क्रांति को पल-पल ‘लाइव’ देख रहा हूं। मुझे लगता कि मैं भी ‘जॉन रीड’ की तरह दस दिन जब दुनिया हिल उठी  की तर्ज पर ‘एक दिन जब दिल्ली हिल उठी’ लिखने वाला हूं, जो इस क्रांति का प्रामाणिक रिकॉर्ड होगा।  
क्रांति के ‘जीरो ग्रांउड’ से लौटकर रात के दो बजे तक सोशल मीडिया पर एक बौद्धिक वर्ग-युद्ध चलाता रहता। अपने को छोड़ बाकी सभी सत्तावादी रिएक्शनरी लेखकों को गरियाता रहता कि अगर तुमने अब भी साथ न दिया, तो इतिहास तुमको कभी माफ नहीं करेगा; कि तुम गद्दार कहलाओगे। तय करो कि किस ओर हो तुम? उनकी तरफ कि इनकी यानी मेरी तरफ? क्रांति इतने पास कब दिखी? एक क्रांति घर से कुल पांच किलोमीटर दूर हाईवे पर होती दिखती। दूसरी 40 किलोमीटर दूसरे बॉर्डर पर होती दिखती और तीसरी क्रांति भी 45 किलोमीटर दूर होती दिखती। मुझे रोज दिल्ली की किल्ली ढीली होती दिखती। सत्ता की चूलें डोलती दिखतीं। यकीन होता कि जनता जब हिलाती है, तो बडे़-बडे़ हिल जाते हैं। मैं रोमांचित होता रहता। 70 साल पुराने मेरे सपने साक्षात होते दिखते। कभी मजदूर-किसान नारे लगाते थे, तो उनके साथ मैं भी लगाया करता था : मांग रहा है हिन्दुस्तान लाल किले पर लाल निशान!  लेकिन इस 26 जनवरी के दिन कानून को धता बताकर ट्रैक्टर क्रांतिकारियों ने सीधे लाल किले पर चढ़ाई कर दी। एक क्रांतिकारी प्राचीर पर लगे पोल पर छापामार की तरह चढ़ा और एक धार्मिक झंडा फहरा दिया, फिर किसानों का झंडा भी लहरा दिया!
सच कहूं : जब से उस कवि ने लाल किले पर अपना धार्मिक झंडा लगाया है, तभी से मन उखड़ा-उखड़ा है। अपना नाम कमाने के चक्कर में एक धार्मिक झंडा लगाकर उसने मेरे सारे सेकुलर सपनों को चकनाचूर कर दिया। मेरी रोज की मक्के दी रोटी, सरसों दा साग विद मक्खन को, मेरे हलवे, मेरी खीर, मेरे पिज्जे, मेरे पकौड़ों मेरे मसाज, मेरे जिम और रात की ठंड भगाने वाली फ्री की ‘दवा’ वाली ‘पिकनिक’ का ‘द एंड’ कर दिया! बताइए, अब कहां जाऊं? सुबह-सुबह किस क्रांतिकारी सेकुलर अलाव पर जाकर तापूं? कहां फ्री का पिज्जा पाऊं? किस अलाव के पास जाकर अपनी रचनाओं को ठंड से बचाऊं? हाय! मेरा सुंदर सपना बीत गया। मैं क्रांति में सब कुछ हार गया, बेदर्द जमाना जीत गया। मेरा सुंदर सपना बीत गया।

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें