बीत गया साहित्य का पैदल युग
हिंदी के साहित्यकारों ने कुछ किया हो या न किया हो, समाज को बदला हो या न बदला हो, अपनी ‘क्लास’ जरूर बदल ली है। गरीब की गरीबी दूर हुई हो या न हुई हो, उसका गान करते हुए हमारे साहित्यकारों ने अपनी...
हिंदी के साहित्यकारों ने कुछ किया हो या न किया हो, समाज को बदला हो या न बदला हो, अपनी ‘क्लास’ जरूर बदल ली है। गरीब की गरीबी दूर हुई हो या न हुई हो, उसका गान करते हुए हमारे साहित्यकारों ने अपनी गरीबी जरूर दूर कर ली है।
कुछ ने प्रेमचंद का नाम ले-लेकर, कुछ ने मार्क्स, एंगेल्स का नाम जप-जपकर, तो कुछ ने लेनिन, माओ, चे, कास्त्रे का भजन करते-करते अपनी गरीबी दूर कर ली और कुछ ने मुक्तिबोध का नाम जप करते-करते अपनी दरिद्रता से मुक्ति पा ली। वह बीड़ी पीते रह गए, लेकिन चेले शैंपेन पीने लगे। कुछ ने संघर्ष चलाते-चलाते अपनी गरीबी दूर कर ली, तो कुछ ने वर्ग-संघर्ष चलाते-चलाते दूर कर ली।
यकीन न हो, तो हिंदी साहित्यकारों का सर्वे करा लें। उनकी प्रोफाइलिंग करा लें। आपको एक लेखक ऐसा नहीं मिलेगा, जो गरीबी की रेखा वाला हो, उसके नीचे रहने वाला हो या उसके कुछ ऊपर कुछ नीचे रहने वाला हो। मैं स्वयं हिंदी साहित्य की इस प्रगति का गवाह हूं, इसीलिए यहां आपबीती और जगबीती का बखान कर रहा हूं। जब प्रेमंचद को पढ़ा, तो जाना कि गरीबी दूर करनी है, तो पहले अपनी गरीबी दूर कर। इस तरह, कुछ ने प्रेमचंद-प्रेमचंद करते-करते, कुछ ने प्रेमचंद बेचते-बेचते गरीबी दूर की। हिंदी साहित्य की गरीबी इसी तरह दूर हुई है।
हिंदी साहित्य ने सचमुच बहुत कुछ सिखाया है : जब दो बीघा जमीन और प्यासा देखी, तब समझ में आया कि बेटा! पहले अपनी गरीबी दूर कर, फिर गरीबों की गरीबी दूर करियो। जिस तरह राजनेताओं ने गरीबी बेची, उसी तरह साहित्य ने भी गरीबी बेची और दोनों ने अपनी-अपनी गरीबी दूर की। इसीलिए हिंदी का पैदल से पैदल साहित्यकार भी आज साहित्य के साथ-साथ कार वाला हो गया है। उसके पास ‘साहित्य’ भी है और ‘कार’ भी है।
इन दिनों अधिकांश हिंदी साहित्य कार से आता है और कार से ही जाता है। बिना कार के साहित्य संभव नहीं। कार है, तो मंडी हाउस है। कार है, तो आईआईसी है। कार है, तो हैबिटेट है और वहां की खुशबू है। इन दिनों साहित्यकार की केंद्रीय समस्या साहित्य में अपनी ‘पार्किंग’ की नहीं, बल्कि ‘कार पार्किंग’ की है। साहित्य है वहां, फ्री की कार पार्किंग है जहां!
साहित्य का पैदल युग गया, बैलगाड़ी युग गया और साइकिल युग भी बीत गया। साहित्य डीटीसी वाले बस युग या मेट्रो युग से निकल अब सीधे कार युग में आ चुका है। यही हिंदी साहित्य के तेज विकास का प्रमाण है। यही विकसित भारत का विकसित साहित्य है। यही विकसित भारत की विकसित कविता-कहानी है। यही सबका साथ और अपना विकास का प्रमाण है।
यही पिछले सात-आठ दशकों में विकसित उस ‘मिडिल क्लास’ का साहित्य है, जिसके पास कार है, मकान है, अच्छी नौकरी है और बाल-बच्चे डॉलरमय हैं। इसी कारण साहित्य में न मजदूर हैं, न किसान हैं, न सर्वहारा है, बल्कि अधिकांश ‘एनीजीओकार’ हैं। अब साहित्य की समीक्षा साहित्यकार की कार समीक्षा से शुरू होती है और उसी से खत्म होती है कि किसके पास कौन सी कार है? सस्ता मॉडल है कि महंगा? साहित्यकार चालित है कि ‘शॉफर’ चालित है?
इन दिनों काव्य विचार या कथा विचार की जगह कार विचार निर्णायक है। साहित्यकारों की सारी विचारधारात्मक लड़ाई कारों को लेकर आपसी जलन, कुढ़न, घुटन, ईष्र्या, द्वेष, मान, मत्सर, आह, कराह, डाह में बदल जाती है। कौन किसे ‘लिफ्ट’ दे रहा है, कौन किससे ले रहा है, इसी से आत्म-संघर्ष का लेवल तय होता है, गुट और गैंग बनते हैं, जिनमें विचारधारात्मक संघर्ष की जगह कभी-कभी गैंगवार भी हो जाते हैं।
यदि आप हिंदी साहित्य के किसी ‘हू इज हू’ के लिए अपनी कार सेवा दे सकते हैं, तो तुरंत बडे़ साहित्यकार हो सकते हैं। इन दिनों साहित्य में ‘कारधारा’ निर्णायक है, ‘विचारधारा’ नहीं।