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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रराजा के आगे सरेंडर करती कविता

राजा के आगे सरेंडर करती कविता

कविता को एक राजा चाहिए और राजा को एक कविता। यह कोई सामंती संस्कृति नहीं, यह ‘उत्तर आधुनिक’ अमेरिकी कल्चर है। यकीन न हो, तो अमेरिका के नए राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह के वीडियो देख लें।...

राजा के आगे सरेंडर करती कविता
सुधीश पचौरी हिंदी साहित्यकारSat, 23 Jan 2021 08:50 PM
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कविता को एक राजा चाहिए और राजा को एक कविता। यह कोई सामंती संस्कृति नहीं, यह ‘उत्तर आधुनिक’ अमेरिकी कल्चर है। यकीन न हो, तो अमेरिका के नए राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह के वीडियो देख लें। जो बाइडन के शपथ ग्रहण समारोह के उद्घाटन में अमेरिका की युवा कवयित्री अमांडा गोरमन ने एक स्वरचित कविता गाई और अमेरिकी आइकन जेनिफर लोपेज थिरकीं। है न कमाल की बात! यह है अमेरिकी ‘उत्तर आधुनिकता’ में धुर सामंती संस्कृति का मिक्स्चर। लेकिन मजाल कि कोई आपत्ति करे, यह क्या हो रहा है?  कहते हैं, यह तो डेमोक्रेट्स की परंपरा है, लेकिन हमारी नजर में यह सत्ता के आगे कविता का शुद्ध ‘सरेंडर’ है और यह ‘सरेंडर की कविता’ है ‘समर्पण की कविता’है, जो राजा का हौसला बढ़ाने के लिए गा रही है : द हिल वी क्लाइंब, यानी हम चढ़ते हैं जिस पर्वत पर! वही हम होंगे कामयाब  वाला भाव! वैसी ही वीरता व्यंजक मुद्रा कि जैसे युवा कवयित्री कह रही हो, ‘सर जी, हम चढ़ते हैं कैपिटल हिल पर’! हमें तो यह ‘फस्र्ट वल्र्डी’ कविता अपनी ‘थर्ड वल्र्डी’ कविता से गई-बीती नजर आती है। जो कविता सत्ता-प्रतिरोधी हुआ करती थी, वही आज सत्ता के आगे ठुमके लगाती नजर आती है। और हे मेरे प्रभु! कविता का यह समर्पण तब हो रहा है, जब अमेरिका के नोम चोम्स्की, अमत्र्य सेन और उनके जैसे न जाने कितने नोबेल ब्रांड विश्व-बुद्धिजीवी किसी भी प्रकार की समर्पणबाजी के खिलाफ आए दिन अपने दस्तखत मारते रहते हैं। इसीलिए मेरा मन आज इन बौद्धिक प्रभुओं से शिकायत करने को मचल रहा है कि हे नोम चोम्स्की और फ्रेडरिक जेमेसन जी, आपके रहते अमेरिकी युवा कविता आज ऐसे सामंतवादी समर्पण गीत क्यों गा रही है? और यह सब दुर्विपाक आप जैसे ग्लोबल बुद्धिजीवियों के रहते हो रहा है। क्यों? 
जरा देखिए तो! आपके होते हुए भी आपकी युवा कविता ने सत्ता के आगे सरेंडर कर दिया? वह दरबारी बनी जा रही है। फिर भी ‘दरबारी’ नहीं कहला रही है, उल्टे उसकी रचयिता एक नामी कवयित्री सिद्ध की जा रही है। भारत को लेकर तो आपकी कलम आए दिन दस्तखत करने को मचलती रहती है, पर इस समर्पणवाद पर आपकी कलम से एक शब्द नहीं फूट रहा। क्यों? आप तो आप, आपके इधर वाले क्रांतिजीवी बिरादर भी एकदम चुप हैं। क्यों? कल को यहां भी ऐसा होने लगे कि कविजन राजा के आगे सरेंडर करने लगें, उसकी अर्चना करने लगें, तो आपको कैसा लगेगा? गनीमत है, अपने यहां ऐसा नहीं हुआ कि किसी राजा के शपथ ग्रहण पर किसी कवि ने चापलूसी भरा ऐसा गीत लिखा हो। गलती से भी अगर किसी ने ऐसा किया होता, तो वह हिंदी साहित्य के रौरव नरक में सड़ता मिलता! साफ है, अपनी हिंदी आपकी अंग्रेजी से कहीं अधिक क्रांतिकारी है। वह किसी भी राजा के आगे सरेंडर नहीं करती। हिंदी का साहित्यकार दस-पांच हजार के सम्मान के लिए जिस-तिस के आगे साष्टांग कर लेता है, पर किसी राजा के आगे सरेंडर नहीं करता। और कभी कोई करता भी है, तो उसे क्रांतिकारी सिद्ध करने की पूरी  सैद्धांतिकी तैयार रखता है, ताकि कोई टोके, तो अपने सरेंडर को भी क्रांतिकारी सिद्ध कर सके और कह सके कि उस विशेष स्थिति में मेरा वह ‘समर्पण’ भी ‘टैक्टिकल’ व ‘क्रांतिकारी’ था। हिंदी वाला बाहर कुछ होता है, अंदर कुछ। यही हिंदी की कलाकारी है। इसीलिए अमेरिका वाला तो दरबारी दिखता है, जबकि हिंदी वाला सरेंडर करके भी क्रांतिकारी दिखता रहता है।

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