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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रवह हिंदी लेखक क्या, जो इसके लिए लड़े

वह हिंदी लेखक क्या, जो इसके लिए लड़े

हिंदी एक बार फिर ठुकी। एक बार फिर हिंदी के लिए कोई बड़ा लेखक नहीं बोला। क्यों? क्योंकि हिंदी में जितने लेखक हैं, उनमें से अधिकांश हिंदी के ‘फेक’ लेखक हैं। असली हिंदी लेखक नहीं हैं। अगर असली लेखक...

वह हिंदी लेखक क्या, जो इसके लिए लड़े
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 21 May 2022 10:43 PM
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हिंदी एक बार फिर ठुकी। एक बार फिर हिंदी के लिए कोई बड़ा लेखक नहीं बोला। क्यों? क्योंकि हिंदी में जितने लेखक हैं, उनमें से अधिकांश हिंदी के ‘फेक’ लेखक हैं। असली हिंदी लेखक नहीं हैं। अगर असली लेखक होते, तो पिछले दिनों कन्नड़ का एक हीरो जब हिंदी को ठोक रहा था, तब वे जरूर बोलते, लेकिन वे नहीं बोले।
बहरहाल, हिंदी के पक्ष में बॉलीवुड का एक हीरो बोला। उसने कन्नड़ हीरो से पूछा- अगर हिंदी ‘राष्ट्रीय भाषा’ नहीं, तो आप अपनी फिल्मों को हिंदी में डब करके क्यों दिखाते हो? हिंदी के अंध-विरोधियों ने ‘राष्ट्रीय भाषा’ को ‘राष्ट्रभाषा’ समझ लिया और ‘हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है, न हो सकती है’ कहकर उसे ठोकते रहे। फिर भी ब्ॉालीवुड के हीरो के इस सवाल का जवाब न दे सके कि जब हिंदी से इतनी ही नफरत है, तब अपनी फिल्मों को हिंदी में ‘डब’ करके क्यों दिखाते हो और करोड़ों रुपये क्यों कमाते हो?

स्पष्ट है, हिंदी के बचाव में आया तो बॉलीवुड का एक हीरो, हिंदी का लेखक नहीं आया। यूं एकाध लेखक ने कुछ कहा, तो कहा, वरना हमारे जानते किसी नामी लेखक ने हिंदी को धिक्कारने वालों के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। क्यों? क्योंकि हिंदी से उनका कोई आत्मिक लगाव नहीं है। ऐसा लगता है कि न हिंदी उनकी कोई है और न वे हिंदी के कोई हैं। अगर होते, तो क्या हिंदी को आए दिन ठोकने वालों को कोई माकूल जबाव नहीं देते?
अगर जबाव देते, तो बहसें किसी स्तर तक पहुंचतीं। कुछ तर्क आते, कुछ तथ्य आते और हिंदी से ईष्र्या करने वालों के साथ एक वैचारिक ‘एंगेजमेंट’ होता और तब उनको भी मालूम पड़ता कि हिंदी ‘अनाथ’ नहीं है। उसका पक्ष लेने वाले मर नहीं गए हैं। हमारा हिंदी विरोधियों से इतना ही निवेदन है कि अगर हिंदी को इसी तरह से ठोकते रहे, तो हिंदी में डब की जाती तुम्हारी फिल्मों को देखने वाले भी न मिलेंगे। अगर हिंदी वालों ने तुम्हारी फिल्मों का बहिष्कार कर दिया, तो तुम हजारों करोड़ की कमाई से भी वंचित हो जाओगे। तब तुम्हें मालूम पडे़गा कि हिंदी विरोध के असली मानी क्या हैं?    

लेकिन वह हिंदी वाला क्या, जो हिंदी के लिए बोले? जो न हिंदी में रहता है, न हिंदी में रमता है और न उस पर गर्व करता है, ऐसा लेखक हिंदी के लिए कैसे बोल सकता है? जिसके दिल में हिंदी के लिए कोई दर्द नहीं, वह कैसे बोले? जब हिंदी वाला ही हिंदी को हीन नजर से देखे, तब कोई क्या करे? 
हिंदी का लेखक हिंदी को मातृभाषा की जगह किराये की भाषा समझता है। हिंदी का लेखक बनते ही उसका सपना होता है कि वह अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश आदि में अनूदित होकर कब साहित्य के ‘इंटरनेशनल सर्किट’ का हिस्सा बन जाए, कब वह लंदन, पेरिस, अमेरिका जाए-आए, कब ग्लोबल लेखक बन जाए, कब उसकी झोली में डॉलर बरसें, कब वह हिंदी वालों को अमेरिकी उच्चारण में ‘शट अप’ करे।   

इसीलिए अपना मानना है कि हिंदी का कोई कितना ही बड़ा लेखक हो, हिंदी से उसका कोई लगाव नहीं है, वरना क्या कारण है कि जो पांच-दस करोड़ की भाषाओं के लेखक हैं, वे तो अपनी भाषाओं के लिए जान दिए रहते हैं, लेकिन पचास-पचपन करोड़ की हिंदी के लिए ये जान तो क्या, एक बयान तक नहीं देते। यूं वे भारतेंदु की बात करेंगे, लेकिन यह भूल जाएंगे कि हिंदी के बारे में स्वयं भारतेंदु ने क्या कहा है? उन्होंने तो अंग्रेजों के जमाने में ही कह दिया था : निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल/ बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल!
जो हिंदी के लिए नहीं बोलते, ऐसे लेखकों को मैं हिंदी में ‘किराये का लेखक’ मानता हूं। वे हिंदी को ‘निज भाषा’ नहीं मानते, वरना उसको पिटता देख चुप नहीं लगाते! 
स्पष्ट है, हिंदी का कोई धनाधोरी नहीं। उसे कोई ‘ओन’ नहीं करता।  वह एक ‘अनाथ’ भाषा है। यही ‘हिय को सूल’ है। 

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