हिंदी साहित्य में इतना सन्नाटा क्यों है
एक बहस नहीं, एक मुद्दा नहीं, एक अपील नहीं, एक कैंपेन नहीं, ध्यान खींचने वाली एक आलोचनात्मक टिप्पणी नहीं, जिस दिल्ली में हिंदी के हजारों लेखक रहते हों, वहां ऐसा सन्नाटा मुझे बर्दाश्त नहीं होता...

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एक बहस नहीं, एक मुद्दा नहीं, एक अपील नहीं, एक कैंपेन नहीं, ध्यान खींचने वाली एक आलोचनात्मक टिप्पणी नहीं, जिस दिल्ली में हिंदी के हजारों लेखक रहते हों, वहां ऐसा सन्नाटा मुझे बर्दाश्त नहीं होता। मेरी दिल्ली ऐसी तो कभी नहीं रही। पिछले चालीस-पचास बरसों में ऐसी हलचल विहीन दिल्ली न देखी, न सुनी!
एक वक्त रहा, जब जरा-जरा सी बात पर तूफान उठा करते थे : नामवर ने यह कह दिया... तो कई दिन उसी की ‘हाय-हाय’ और ‘वाह-वाह’ में निकल जाते। राजेंद्र यादव ने जैनेंद्र के खिलाफ ऐसा क्यों बोल दिया? कमलेश्वर ने सारिका में लघुपत्रिका आंदोलन पर किन्हीं अनिल घई से हमला कराया और समांतर कहानी आंदोलन शुरू किया। नामवर की पुस्तक कविता के नए प्रतिमान को रामविलास ने धर्मयुग में ‘कलगी बाजरे की’ सिद्ध कर उसे ढेर कर दिया।
जरा-जरा सी बात पर पंगे होते और महीनों तक साहित्य में छाए रहते। साहित्य खबर बनता। एक दिन खबर आती कि हरिशंकर परसाई पर हमला हुआ है, तो फौरन उनके पक्ष में सैकड़ों लेखक दस्तखत कर देते और हमारे जैसे उस खबर को छपवाने अखबारों के दफ्तरों के चक्कर लगाने लगते। श्रीकांत वर्मा ने एक सेमिनार में प्रगतिशीलों पर हमला किया, तो रामविलास शर्मा ने उनको वहीं ऐसी-ऐसी सुनाई कि सब ठंडे हो गए!
एक बार का अकादेमी सम्मान विष्णु प्रभाकर की कृति आवारा मसीहा को न दिया जाकर किसी और को दे दिया गया। इससे असंतुष्ट मुद्र्राराक्षस ने एलान कर दिया कि अब हम लेखक आवारा मसीहा को ‘जन सम्मान’ देंगे। कमेटी बन गई। अकादेमी की रकम जितनी राशि लेखकों से जुटाई गई और सम्मान-पत्र के साथ एक समारोह में विष्णु जी को भेंट कर दी गई।
साहित्यिक पंगा हुआ, तो पंगा ही सही। वे कर सकते हैं, तो हम क्यों नहीं कर सकते? यही अदा रहती! कोई भी पूछ उठता था, आपने रघुवीर सहाय का काव्य संकलन हंसो हंसो जल्दी हंसो या धूमिल का संसद से सड़क तक पढ़ा? यह पढ़ा? वह पढ़ा? लोग ऐसे पूछते थे, जैसे इनको पढ़ना किसी बडे़ साहित्यिक इम्तिहान को पास करने के लिए जरूरी हों।
इस बार का ‘भारत भूषण सम्मान’ उसको मिला, इसे नहीं, क्योंकि यह उनका चमचा हैै। ‘पहल सम्मान’ उसे दिया गया, क्योंकि वह उस गुट का था। यह तो शुद्ध पक्षपात है और लीजिए, इस बरस का ‘श्रीकांत वर्मा सम्मान’ उसे दिया गया, जबकि तीन लेखक उससे कहीं बेहतर थे।
सच! तब के साहित्यकार किसी हीरो से कम न नजर आते। वे खुद चलते-फिरते साहित्य होते। उनकी हरेक हरकत पर नजर रखी जाती। कोई जरा सा इधर-उधर हुआ कि पकड़ा गया। कौन क्या क्या कर रहा है, इस पर निगाह रखते। सबकी अपनी खुली राय होती। वह बुरा मानेगा, इसकी परवाह किए बगैर आप लेखक से अपनी राय कह सकते थे। तब ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ होने की जरूरत नहीं थी।
यह हिंदी की साहित्यिक संस्कृति थी। हर साहित्यिक घटना की बाल की खाल निकाली जाती। लोग बिजी रहते। इसी बहाने कुछ पढ़ते-पढ़ाते, लिखते-लिखाते, फिर एक-दूसरे से जिरह करते। वादे वादे जायते तत्वबोध: होता रहता। कुछ न कुछ होता रहता था। जब कुछ न होता, तो पैदा किया जाता। यह भावों व विचारों से भरी साहित्यिक संस्कृति थी, जो अब नहीं है!
यूं तो हरेक बंदा लेखक है। ऑनलाइन है। सबके ग्रुप्स हैं। सब कुछ न कुछ लिखते रहते हैं, पर अब इन सबके दिल में भावों, भावनाओं और विचारों व शब्दों की जगह ‘इमोजी’ रहते हैं; भावों और विचारों की जगह उनके चिह्न रहते हैं, इसीलिए अब साहित्य में कोई रिस्क नहीं लेता, सब सिर्फ ‘सेफ’ खेलते हैं। किसे दुश्मन बनाएं? जाने कौन कब किस काम आ जाए? इसलिए कोई दिल की बात नहीं कहता और इसीलिए हिंदी साहित्य में इतना सन्नाटा है!
