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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़र अब बचके कहां जाएगा साहित्य

अब बचके कहां जाएगा साहित्य

लॉकडाउन का साहित्य आ रहा है। वह एक नई विधा की तरह आ रहा है। जैसे ‘आपातकाल का साहित्य’ आया था, उसी तरह यह आ रहा है। एकदम ‘स्पेशल साहित्य’ बनकर आ रहा है। खास ब्रांड के साथ, अपनी...

 अब बचके कहां जाएगा साहित्य
सुधीश पचौरी हिंदी साहित्यकारSat, 13 Jun 2020 09:49 PM
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लॉकडाउन का साहित्य आ रहा है। वह एक नई विधा की तरह आ रहा है। जैसे ‘आपातकाल का साहित्य’ आया था, उसी तरह यह आ रहा है। एकदम ‘स्पेशल साहित्य’ बनकर आ रहा है। खास ब्रांड के साथ, अपनी ‘टाइम लाइन’ के साथ। यूं तो लॉकडाउन ने सब कुछ लॉक करके रख दिया, लेकिन साहित्य को अनलॉक कर दिया! उसने इंडस्ट्री बंद कर दी, बाजार बंद कर दिए, स्कूल-कॉलेज-लाइबे्ररियां बंद कर दीं, मगर साहित्य पर उसका बस न चला। इसीलिए इन दिनों लॉकडाउन-साहित्य की बहार है। 
अंगे्रजी के कुछ लॉकडाउनी लेखकों ने अपने लॉकडाउन साहित्य से अंग्रेजी में हल्ला कर दिया। एक के बाद एक तीन-तीन उपन्यासकार लॉन्च हो गए। कोई मारक्वेज बनकर ‘लव इन द टाइम ऑफ लॉकडाउन’ लेकर आ रहा है, तो कोई ‘क्वारंटीन’ नॉवेल लेकर, और कोई प्रवासी मजदूरों की आपबीती सुना रहा है।
हिंदी भी किसी से पीछे नहीं है। उसमें भी लॉकडाउन-कहानियां, लॉकडाउन-कविताएं आ रही हैं और कही-सुनी जा रही हैं। ऐसा लगता है कि साहित्य की बरसात हो रही है। साहित्य की बाढ़ आ रही है। प्रकाशको, सावधान! बाबरपुर वाले प्रिंटरो, सावधान! बाइंडरो, सावधान! साहित्य की आंधी आ रही है। यूं तो कबीर के वक्त भी एक बार आंधी आई थी, लेकिन वह आंधी ‘ज्ञान की आंधी’ थी। उस आंधी के बारे में कबीर ने लिखा था : साधो! भाई आई ज्ञान की आंधी!/ भ्रम की टाटी सबै उड़ानी माया रहै न बांधी!  
पर यह साहित्य की आंधी है और हिंदी में आ चुकी है। लॉकडाउन ने सबकी कलम को अनलॉक कर दिया है। सबकी सरस्वती जाग गई हैं। सब अचानक अति-संवेदनशील हो उठे हैं। सभी कविता, कहानी, उपन्यास, टिप्पणी लेखक बन गए हैं। जैसे, सब साहित्य के पीछे लट्ठ लेकर पड़ गए हैं कि अब बचके कहां जाएगा! 
गए वे दिन, जब कविता, कहानी कभी-कभी लिखी जाती थी। जब कभी प्रेरणा स्फुरित होती और कल्पना उड़ान भरती, तो एकाध कविता होने लगती। लेखक पहले अनुभव करता, उसे पचाता, फिर उसे तराशता, तब जाकर लिखता। लिखने के बाद भी संवारता, फिर लिखता यानी पकाता, तब जाकर कवियों-कथाकारों के बीच अपनी रचना लेकर आता।
लेकिन लॉकडाउन ने सबको चौबीस बाई सात का लेखक बना डाला है। कोई सुबह-सुबह लिखता है। कोई चारों प्रहर लिखता है, तो कोई आठों प्रहर लगा रहता है। कोई फेसबुक पर तैनात है, तो कोई ट्विटर पर ट्विटराता रहता है। कोई वाट्सएप पर बिजी रहता है। कहीं कुछ लिखने से छूट न जाए। कोई मुझसे आगे न निकल जाए। 
लॉकडाउन की बलिहारी है कि जितने साहित्यकार इस दौरान बने हैं, उतने तो पिछले एक हजार साल के हिंदी साहित्य में नहीं बने। इसीलिए हम कह रहे हैं कि साथी! आई साहित्य की आंधी! बहुत भज लिए कालिदास भवभूति, बहुत भज लिए कबीर, सूर, तुलसी, बिहारी, और बहुत पढ़ लिए प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, और बहुत देख लिए अज्ञेय, मुक्तिबोध। क्या तुलसी कभी लॉकडाउन में रहे? क्या प्रेमचंद ने कभी लॉकडाउन भोगा? हमने भोगा, इसलिए हम ही हैं लॉकडाउन के कवि, कथाकार।
हमारे जैसा आशु रचनाकार कहां मिलेगा कि इधर लॉकडाउन हुआ, उधर लॉकडाउनी कविता-कहानी फूट पड़ी? एकदम ताजा-ताजा। लॉकडाउन, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है। कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है। ऐसे लॉकडाउन-साहित्य की जय हो!

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