जिंदा करो अपनी उंगलियों का जादू
अगर प्राइमरी पाठशाला में लकड़ी की ‘पट्टी’ न होती, तो क्या होता? पट्टी का ‘घोटा’ न होता, तो क्या होता? अगर खड़िया और उसका ‘बुद्दका’ (दवात) न होता, तो क्या होता? अगर ‘सरकंडे’ की ड्योढ़ी कलम न होती, तो...
अगर प्राइमरी पाठशाला में लकड़ी की ‘पट्टी’ न होती, तो क्या होता? पट्टी का ‘घोटा’ न होता, तो क्या होता? अगर खड़िया और उसका ‘बुद्दका’ (दवात) न होता, तो क्या होता? अगर ‘सरकंडे’ की ड्योढ़ी कलम न होती, तो क्या होता? जो होता सो होता, मगर हिंदी साहित्य शायद इतना सुंदर न होता। अगर हम हस्तलेख और सुलेख की बात करें, तो हमें सरकंडे की कलम, खड़िया, दवात और पट्टी याद आएगी ही। हिंदी के जितने सूरमा हुए, सरकंडे की कलम आदि की बदौलत ही हुए। कागज पर तो बाद में लिखा, पहले तो प्राइमरी पाठशाला के मास्टरजी ने बहुत की उंगलियां तोड़ी होंगी, तब जाकर कुछ साफ-सुथरे अक्षर लिखने लायक बने होंगे।
बचपन में मास्टरजी कहते, अच्छे नंबर लाने हैं, तो साफ-साफ लिखना। सुलेख लिखोगे, तो परीक्षक खुश होकर अच्छे नंबर देगा। अगर उसे पढ़ने में दिक्कत हुई, तो मिल लिए तुमको अच्छे नंबर... और फिर गुरु-कृपा से सब सुलेख लिखने का अभ्यास करते। सुलेखन के ‘कंपटीशन’ होते और बहुत से सुलेखन का प्रमाणपत्र लेकर आते। यूं तो बहुत से अपठनीय लिखने वाले भी कमाल कर गए, पर अपने मास्टरजी कहते, ‘चील बिलौवा’ लिखने वाला अपने को छिपाता है। वह नहीं चाहता कि कोई उसे समझे। ऐसे कुलेखक उन डॉक्टरों की तरह होते हैं, जिनके परचे को केमिस्ट ही पढ़ सकते हैं, मरीज नहीं।
बहुत से लोग आज भी सिंधुघाटी लिपि में ही लिखा करते हैं, मानो कोई चैलेंज देते हों कि कोई माई का लाल उनके लिखे को ‘उखाड़कर’ दिखाए। काश! इनकी उंगलियों ने भी कुछ ‘एक्सरसाइज’ की होती, तो वे भी सुलेखक/ खुशखत लिखने वाले कहाते। पठनीय होते। हिंदी में अब शायद ही कोई मास्टर सुलेख के लिए किसी की उंगलियों में पेंसिल दबाते हों। पेंसिल दबाना तो दूर, अब आप किसी की उंगली छू भी नहीं सकते। शायद इसीलिए हिंदी में सुलेख कम नजर आता है, लेकिन उर्दू में खुशखत और खत्ताती की परंपरा अब भी बरकरार है।
हम नहीं कहते कि कोई किसी को सजा दे, पर सुलेख लिखने का दूसरा तरीका भी तो कोई सुझाए! बहरहाल, हमें तो अपने मास्टर जी की वह पेंसिल अभी तक याद है, जो उन्होंने ‘नॉर्मल मिडिल स्कूल, हाथरस’ की छठी कक्षा में हमारे हस्तलेख के सौंदर्य से प्रसन्न होकर दाएं हाथ की तीन उंगलियों के बीच फंसाकर दो-तीन बार जोर से दबाई थी! वह दिन कि आज का दिन, हमारी उंगलियों ने सुलेख से कभी दगा नहीं की!
दसवीं में हमारे एक सहपाठी का हस्तलेख तो इतना सुंदर था कि उसके लिखे अक्षर प्रेस में छपे अक्षरों जैसे लगते। अक्षरों का ड्योढ़ापन और एकदम सीधी शिरोरेखा! वह जिले की सुलेख प्रतियोगिताओं के अधिकतर इनाम जीतता रहता। उस जैसी सुलेखन कला सीखने के लिए हम उसके मित्र बन गए। वह ‘पेन’ की ‘निब’ को घिसकर ड्योढ़ा करता, तो हम भी करने लगे। उसका धन्यवाद! यदि अब भी कहीं कोई सुलेख दिख जाता है, तो मेरा मन मुग्ध हो उठता है। ऐसा लेखन पवित्र और श्रद्धास्पद लगता है और उसके सुंदर अक्षरों को ‘फॉलो’ करने का मन करता है। हमारे मास्टरजी कहते थे- जिसका लेख साफ, उसका दिल साफ!
नई तकनीक ने हमारी उंगलियों को हमसे छीन लिया है। न छात्रों के हाथ में कागज-कलम होते हैं और न मास्टरों के। ज्यादातर आईपैड, लैपटॉप, स्मार्टफोन के ‘की बोर्ड’ पर ही टाइप-टूइप करते हैं। जब से ‘ऑनलाइन पेमेंट’ चला है, तब से लोग ‘चैक’ पर सही दस्तखत करना तक भूल गए हैं। और अब तो ‘चैट जीपीटी’ की कृत्रिम बुद्धि ने टाइपिंग को ही निपटा दिया है। उससे जब जो जैसा चाहो, लिखवा लो। शायद इसीलिए इन दिनों कुछ देशों में लिखना सिखाने के लिए स्कूल खोले जा रहे हैं।
इससे पहले कि यह नौबत यहां आए, फिर से जिंदा करो अपनी उंगलियों का जादू, वापस ले आओ सुलेख का सौंदर्यशास्त्र!