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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रमेरे रोने का हो गया इंतजाम

मेरे रोने का हो गया इंतजाम

हाय! एक बार फिर मेरे कीमती हस्ताक्षर काम न आए। कितना सोच-विचार करने के बाद, कितने चिंतन-मनन के बाद मित्रों के हस्ताक्षर अभियान में शामिल हुआ था और किस उछाह के साथ मैंने हस्ताक्षर किए थे! सोचता था,...

मेरे रोने का हो गया इंतजाम
सुधीश पचौरी,हिंदी साहित्यकारSat, 12 Mar 2022 08:44 PM

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हाय! एक बार फिर मेरे कीमती हस्ताक्षर काम न आए। कितना सोच-विचार करने के बाद, कितने चिंतन-मनन के बाद मित्रों के हस्ताक्षर अभियान में शामिल हुआ था और किस उछाह के साथ मैंने हस्ताक्षर किए थे!
सोचता था, इस बार हस्ताक्षर अभियान जरूर रंग लाएगा और उसमें भी मेरा हस्ताक्षर अपना जलवा जरूर दिखाएगा, क्योंकि मैं ही जनता की मशाल हूं, मैं ही उसकी ढाल हूं! जब-जब समाज अटकता-भटकता है, तब-तब मैं ही उसे रास्ता दिखाता हूं। इस तरह, मैं समझता रहा कि इस बार जनता मेरी बात जरूर मानेगी, लेकिन उसने मुझे ‘फेल’ कर दिया। न मेरी कविता उसे समझा सकी, न मेरी कहानी उसकी आंखें खोल सकी और न मेरे क्रांतिकारी लेख, मेरी लाल भभूका पोस्टें उसको दिशा दे पाईं, और न मेरे हस्ताक्षर ही उसको प्रबोध सके। 
हाय! जाने वे कैसे लेखक थे, जिनकी लेखनी में दम था, जिनके हस्ताक्षरों में दम था, जिनकी लेखनी से बडे़-बडे़ बादशाह तक डरते थे। इसलिए मैं समझता रहा कि जनता का लेखक हूं, मेरा सारा लेखन जनता को जगाने के लिए है। मेरी कलम उसकी प्रहरी है। वह क्रांति का बिगुल बजाती है। मैं अपनी जनता के लिए जीता और मरता हूं। मेरी लेखनी उसी के लिए चलती-मचलती है। 
मैं अब तक मानता रहा कि मैं जनता का हूं और जनता मेरी है। वह मेरी कविता-कहानी पढ़ती है। मेरी हरेक पोस्ट को ‘फॉलो’ करती है। वह मेरी सुनती है, मेरे कहे पर चलती है। लेकिन इस बार इसी जनता ने हम जैसे हस्ताक्षर-वीरों की समझाइश को ठुकराकर हमें हमारी औकात दिखा दी और हमारे लेखक होने की सारी गलतफहमी दूर कर दी!
मैं अब तक यही समझता रहा कि कवि-कलाकार सत्ता को हिलाने वाले होते हैं, क्योंकि उनकी बातें सब मानते हैं, क्योंकि वही ‘संकट की घड़ी’ में हमारे काम आते हैं, क्योंकि वही शब्दार्थ की दुनिया के ‘प्रजापति’ होते हैं, क्योंकि वही ‘परिभू-स्वयंभू’ होते हैं। 
लेकिन आज पहली बार महसूस हुआ कि ऐसी सब बातें एक मिथ हैं और शुद्ध बकवास हैं। आज का सच यही है कि लेखक का अंत हो चुका है, लेखन का अंत हो चुका है, उसकी महानता का अंत हो चुका है। अब न उसके लेखन में दम बचा है, न लेखनी में। उसकी न कोई सुनता है, न परवाह करता है।
बडे़-बड़े आचार्य जन शुरू से साहित्यकारों की भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर बताते रहे और उनको बेवकूफ बनाते रहे हैं और वे बनते भी रहे। वे उसे यह कह-कहकर चने के झाड़ पर चढ़ाते रहे हैं कि तू मशाल है, तू कमाल है, तू तमंचा है, तू तोप है, तू ‘सोप’ है, तू ‘होप’ है और लेखक लोग यही समझते रहे कि तू पुतिन है, तू जेलेंस्की है, तू जिनपिंग है, तू बाइडन है। तू सब कुछ कर सकता है। राई का पर्वत करता है, पर्वत को राई बना सकता है, सत्ताओं को हिला सकता है। 
और इसी गलतफहमी में मुझ जैसा बेवड़ा फिर से हस्ताक्षर कर बैठा और आज अपना सा मुंह लिए बैठा है। मुझे लगता है कि लेखक को जनता की जरूरत तो है, लेकिन वास्तव में जनता को लेखक की जरूरत नहीं है। वह अपनी मशाल आप है। वह अपनी गुरु आप है। वह सबकी बाप है।
इसके बरक्स हम और हमारे लेखक ‘फेक’ लेखक हैं। हमारी सोच ‘फेक’ है। हमारे हस्ताक्षर भी ‘फेक’ हैं। हम लिखते कुछ हैं, कहते कुछ हैं, और करते कुछ और हैं। इसी गलतफहमी के तहत हम समझाते रहे कि हे जनता, तेरा जनतंत्र खतरे में है, अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है, भारत का ‘विचार’ खतरे में है, भारत का ‘अचार’ खतरे है, इसलिए ‘उनको’ हराना है और ‘इनको’ जिताना है, लेकिन जनता ने एक न सुनी और अगले पांच बरस के लिए हमारे रोने का इंतजाम कर दिया। अब लिखते रहो बेटे, रोने-कोसने वाला साहित्य!  

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