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सुबरन को खोजत फिरत कवि, व्यभिचारी, चोर

जब-जब अपने वाट्सएप पर ‘कविता समय’ टाइप निमंत्रण देखता हूं, तो झटका सा लगता है। कहीं कविता का ‘समय’ तो नहीं आ गया? कहीं उसकी चला-चली की बेला तो नहीं आ गई? हो सकता है, दवाएं असर...

सुबरन को खोजत फिरत कवि, व्यभिचारी, चोर
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 12 Feb 2022 08:53 PM

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जब-जब अपने वाट्सएप पर ‘कविता समय’ टाइप निमंत्रण देखता हूं, तो झटका सा लगता है। कहीं कविता का ‘समय’ तो नहीं आ गया? कहीं उसकी चला-चली की बेला तो नहीं आ गई? हो सकता है, दवाएं असर न कर रही हों और डॉक्टर कह रहे हों कि कविता को दवा की जगह दुआ की जरूरत है, दुआ करिए- शायद दुआ करने के लिए बुलाया जा रहा है कि हम सब दुआ करें, ताकि कविता बची रहे।
सच कहूं, मेरे लिए ‘कविता समय’ का प्रथमार्थ कुछ इसी तरह खुला, लेकिन मन नहीं माना और सोचने लगा- जिस भाषा में आज लाखों ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी और संन्यासियों की चार-चार पीढ़ियां ‘चौबीस बाई सात’ के हिसाब से ऑनलाइन और ऑफलाइन कवियाई रहती हों, वहां कविता का ‘समय’ भला कैसे आ सकता है? फिर सोचा कि क्यों न किसी कवि के मुख से ही पक्का कर लूं कि यह ‘कविता समय’ क्या बला है? सो, एक कवि से पूछ बैठा कि हे कवियों के कवि, साहित्य में कवि-न्याय या काव्य-न्याय तो सुना था, लेकिन यह ‘कविता समय’ क्या बला है? 
वह उवाचे, यूं ऐसे अकादमिक सवाल अध्यापक ही किया करते हैं और मैं मानता हूं कि अध्यापकों ने साहित्य का जितना नुकसान किया है, उतना किसी ने भी नहीं किया। फिर भी, आप पूछते हैं, तो बताए देता हूं कि ‘कविता समय’ का मतलब है, ‘कविता समय’, यानी ‘कविता का समय’। मेरे जैसे समझदार को उनका इशारा काफी था। 
अब आप पूछेंगे कि वह कौन सा समय हो सकता है, जब कविता की जाती है, तो एक शाश्वत सा जबाव आएगा कि कविता करने का कोई तयशुदा समय नहीं होता। वह कभी भी हो सकती है। कवि मूडी होता है, सो सब कुछ कवि के मूड पर निर्भर है। वह चाहे तो लिखे, न चाहे तो न लिखे। कब उसका मूड आए, कब लिखने बैठ जाए, कविता सुनाने लग जाए, कोई नहीं जानता। क्या कवि का या उसके कविता करने का कोई टाइम-टेबल बनाया जा सकता है? इसका जवाब भी है, नहीं। कभी नहीं। कवि क्या कोई बाबू, बस या ट्रेन है कि टाइम से काम करे?
मैंने फिर पूछा, आप तो ‘कवि कुलगुरु’ हैं, अखिल भारतीय ‘कविताश्रम’ चलाते हैं। कवियों और कवयित्रियों की मदद के लिए सुख्यात हैं। आप कितनी तो कवि कल्याण योजनाएं चलाते हैं। फिर, इतनी व्यस्तता के बीच आप हर बरस दो-तीन काव्य संकलन कैसे बरसा देते हैं? छात्र-हित और शोधार्थी-हित में यह स्पष्ट करने की कृपा करें कि आपका अपना ‘कविता समय’ क्या है?
वह हमेशा की तरह बेझिझक बोले, यूं तो कोई खास समय तय नहीं। आप जानते ही हैं कि दिन में तो मैं साहित्य का ‘कल्याण’ करने में बिजी रहता हूं। सिर्फ रात में समय मिलता है, सो रात के बारह-एक बजे के बाद जब सब सो जाते हैं, तो कविता करने के मूड में आ पाता हूं। मैं समझ गया कि आदरणीय का ‘कविता समय’ तब आता है, जब दो-चार पेग कंठगत हो जाते हैं। आजकल अधिकांश कवियों का ‘कविता समय’ इसी तरह आता है।
कवियों की इस निशाचरी वृत्ति को देखकर ही किसी ने यह कहा होगा, जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि यानी, रवि के बिना ही कवि संभव है, यानी अंधेरे में ही कवि की कविता संभव है। और शायद इसीलिए केशवदास ने बताया था- चरण धरत चिंता करत, भावत नींद न भोर/ सुबरन को खोजत फिरत, कवि, व्यभिचारी, चोर! 

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